Saturday, April 27, 2024

क्या नरेन्द्र मोदी का टूट रहा है तीसरी दुनिया के नेता होने का मिथक?

जी-20 देशों के सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ऐसी छवि बनाने की कोशिश की गई, कि मानो‌ वे तीसरी दुनिया के सबसे बड़े नेता हो गए हैं या फिर उनकी भूमिका उसी तरह की हो गई है जैसी कभी जवाहरलाल नेहरु की थी।

उनकी इस कथित वैश्विक छवि को चमकाने के लिए अरबों रुपए फूंक दिए गए। परन्तु जी-20 सम्मेलन के क़रीब एक हफ़्ते बाद ही कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने ऐसा आरोप लगाया कि मोदी सरकार के चेहरे से एक झटके से मोदी सरकार का वैश्विक छवि वाला मुखौटा उतर गया।

ट्रूडो ने यह आरोप अपने देश संसद के विशेष सत्र में लगाया और उन्होंने दावा किया कि सरकारी ‌जांच में कनाडा के नागरिक हरदीप सिंह निज्जर (जो कथित रूप से ख़ालिस्तान आंदोलन से जुड़ा हुआ था) की हत्या में भारतीय एजेंटों का हाथ होने की सम्भावना सामने आई है।

इस आरोप के बाद दोनों देशों के बीच तनाव चरम सीमा पर पहुंच गया। कनाडा ने भारत के एक राजनयिक को जासूसी के आरोप में देश से बाहर निकाल दिया। इसके बदले में भारत ने भी जवाबी कार्यवाही करते हुए कनाडा के एक राजनयिक को अपने देश से निकाल दिया तथा वीज़ा सेवाएं भी स्थगित कर दीं।

भारत में मुख्यधारा की मीडिया में जिस तरह से इस मामले को दिखाया जा रहा है, उसके विपरीत कनाडा के सहयोगी देशों ने भारत के ख़िलाफ़ लगे इन आरोपों का ना ही खंडन किया है और ना ही सार्वजनिक रूप से भारत का समर्थन किया है।

शुरुआत में कनाडा के आरोप के बाद कनाडा के समर्थन में सहयोगी देशों के बयान हल्के दिख रहे थे, लेकिन 21 सितंबर को अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन, जो भारत के सरकार के साथ अमेरिका के मजबूत रिश्तों के कट्टर हिमायती हैं, ने व्हाइट हाउस की एक प्रेस ब्रीफिंग में कहा कि “कनाडा के मसले पर भारत को कोई विशेष छूट नहीं मिलेगी”। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि कानूनी और कूटनीतिक प्रक्रियाओं में अमेरिका कनाडा जैसे अपने नज़दीकी सहयोगियों के साथ परामर्श करेगा।

इसके कुछ दिन बाद अमेरिका के विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकेन ने जो वक्तव्य दिया, उससे अमेरिका की स्थिति और स्पष्ट हो गई। ब्लिंकेन ने भारत को कनाडा की जांच में सहयोग करने की सलाह दी और कहा कि “हम अंतर्राष्ट्रीय दमन जैसे मामलों के प्रति अत्यधिक सतर्क हैं और हम ऐसे मामलों को बहुत गंभीरता से लेते हैं”।

लेकिन 23 सितम्बर न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार सिक्ख अलगाव वादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद अमेरिका ने कनाडा को ख़ुफ़िया जानकारी मुहैया कराई थी। इन ख़ुफ़िया जानकारियों से ही प्रेरित होकर जस्टिन ट्रूडो ने भारत पर गंभीर आरोप लगाए थे।

यह रिपोर्ट तब सामने आई जब कनाडा के शीर्ष अमेरिकी राजनयिक ने पुष्टि की, कि यह फाइव आईज़ साझेदारों के बीच साझा ख़ुफ़िया जानकारी थी, जिसने कनाडा की ज़मीन पर हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को भारत के ख़िलाफ़ संगीन आरोप लगाने के लिए प्रेरित किया था।

न्यूयॉर्क टाइम्स ने अज्ञात सूत्रों के हवाले से कहा कि हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने कनाडाई समकक्षों को ख़ुफ़िया जानकारी उपलब्ध कराई थी। ख़ुफ़िया जानकारी के बाद कनाडा को इस निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद मिली कि इस हत्या में भारत की भागीदारी थी।

इस बात के ख़ुलासे से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाइडेन प्रशासन चीन को घेरने के अपने उद्देश्य के लिए भारत का साथ देने से अधिक वफ़ादारी कनाडा के साथ अपने साझा मूल्यों के प्रति दिखाएगा। भारत में बहुसंख्यक लोगों को ऐसा लगता है कि कनाडा एक कमज़ोर देश है और विश्वशक्ति संतुलन में उसकी भूमिका कोई ख़ास महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए,कि वह उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो का संस्थापक देश है। साथ ही वह जी-7 का सदस्य है।

इसके अलावा वह इस मामले में फाइव आईज़ इंटेलिजेंस एलाइंस का भी हिस्सा है जिसमें ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, अमेरिका और कनाडा है। ये देश एक दूसरे से ख़ुफ़िया सूचनाएं साझा करते रहते हैं। अब तो यह सिद्ध हो गया है कि यह सूचना अमेरिका ने ही कनाडा को दी है। वास्तव में विश्व राजनीति में अंतरराष्ट्रीय कानून जैसी बात केवल सिद्धांतों में होती है।

अमेरिका ने ख़ुद वियतनाम से लेकर इराक़ तक किए गए हमलों में अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किया। जिस तरह अमेरिका ने पाकिस्तान में जाकर ओसामा बिन लादेन को मारा। अल जवाहिरी की या फ़िर ढेरों ईरानी सैन्य कमांडरों की हत्या की ये सभी अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का खुला उल्लंघन था।

इसके अलावा इज़रायल की कुख्यात गुप्तचर संस्था मोसाद ने दुनिया भर में अपने विरोधियों को खोज-खोजकर मारा। 1972 में म्यूनिख में ओलम्पिक में अपने खिलाड़ियों की हत्या का बदला लेने के लिए मोसाद ने जिस तरह दुनिया भर में हत्यारों को खोज-खोजकर मारा उस पर म्यूनिख नामक एक फ़िल्म भी बन चुकी है। इन सब पर पश्चिमी देश हमेशा मौन रहते हैं।

यही इज़रायल भाजपा का आदर्श रहा है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले बीजेपी ने अक्सर पूर्व की सरकारों पर भारत को सॉफ्ट स्टेट बना देने का आरोप लगाया था। मोदी के हिन्दुत्ववादी समर्थकों की हमेशा यह इच्छा रही है कि भारत भी विदेशी भूमि पर सक्रिय देश के शत्रुओं का इज़रायल की तरह सफ़ाया करे।

परन्तु सच यह है कि मोदी सरकार ने स्थितियों का सही अध्ययन नहीं किया। इज़रायल ने कभी भी जी-7 या फाइव आईज़ देशों में राजनीतिक हत्याओं को अंज़ाम नहीं दिया। वह अकसर ऐसा ईरान जैसे उन देशों के भीतर ही करता है, जिन्हें पश्चिम की शब्दावली में रांग नेशन या दुष्ट राज्य कहा जाता है।

2019 में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कथित एयर स्ट्राइक के बाद मोदी ने घोषणा की कि “यह हमारा सिद्धांत है कि हम घर में घुसकर मारेंगे”। हालांकि बालाकोट हवाई हमले और उसके बाद हवाई संघर्ष में भारत को‌ अच्छा-ख़ासा नुकसान उठाना पड़ा था। और दोनों परमाणु सम्पन्न देश लगभग एक-दूसरे पर परमाणु मिसाइल दागने की स्थिति में पहुंच गए थे।

लेकिन मोदी को मज़बूत इरादों वाला नेता दिखाने का राजनीतिक प्रचार इन चीज़ों की परवाह करता नहीं दिखा। बालाकोट हवाई हमले को अंधराष्ट्रवाद की चाशनी में लपेट दिया गया। इसके विरोधियों को देशद्रोही तक कहा गया तथा इसने मोदी को चुनाव जिताने में भी बहुत मदद की।

अमेरिका ने भी बालाकोट में भारत के हमले से जुड़े सच को दबाने की कोशिश की थी। जिसके बाद मोदी के इरादे और मज़बूत हो गए। ‘कोई कुछ नहीं कहेगा’ की मान्यता और मज़बूत तब हो गई जब मोदी के राज में लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमले की घटनाओं को अमेरिकी प्रशासन ने लगातार नज़रअंदाज़ किया। क्योंकि चीन के ख़िलाफ़ भारत का सहयोग ज़रूरी है।

पिछले चार सालों में अमेरिकी प्रशासन ने अमेरिका के धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की सिफ़ारिशों को नज़रअंदाज़ किया। जिसमें उसने यह मांग की है कि “मोदी के भारत को ख़ास तौर पर चिंताजनक देश माना जाए”। अमेरिकी प्रशासन ने कश्मीर और मणिपुर में लगातार हो रही राज्य प्रायोजित हिंसा पर चुप्पी साध ली। यहां तक कि जी-20 के शिखर सम्मेलन के दौरान अमेरिकी पत्रकारों को सवाल न पूछने देने के मोदी सरकार के अनुरोध को भी अमेरिकी प्रशासन ने मान लिया।

शिखर सम्मेलन में बाइडेन-मोदी वार्ता में पत्रकारों को शामिल नहीं होने दिया गया। यह सही है कि अमेरिका दुनिया भर में अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए सैन्य तानाशाहों या फ़िर लोकतंत्र का लबादा ओढ़े नरेन्द्र मोदी जैसे नेताओं को समर्थन देता रहा है। वास्तव में मानवाधिकार का मुद्दा उसके लिए एक रणनीतिक मुद्दा मात्र है।

एक ओर‌ वह चीन में धार्मिक स्वतंत्रता के हनन तथा मानवाधिकारों के मुद्दों पर ज़ोर-शोर से बातें करता है। दूसरी तरफ़ भारत में इन्हीं सब मुद्दों पर चुप्पी साध लेता है। इस तरह बाइडेन प्रशासन ने भारत को यह मानने दिया कि उसके व्यवहार पर कोई कुछ नहीं बोलेगा और उसे किसी तरह का परिणाम या दुष्परिणाम नहीं झेलना पड़ेगा।

यह सही है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन को घेरने के लिए आज भारत की ज़रूरत है। लेकिन अमेरिका को यह भी पता है कि हिन्दुत्व की उग्रवादी फासीवादी राजनीति न केवल भारत के लिए, बल्कि पश्चिमी देशों के लिए भी ख़तरा बन सकती है।

कनाडा की घटना ने यह बात दिखा भी दी है। इसलिए भारत से अपने तमाम हितों के बावज़ूद अमेरिका और पश्चिमी देश इस घटना को इतनी आसानी से नहीं दबने देंगे।

(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक एवं टिप्पणीकार हैं।)

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