Thursday, April 25, 2024

नकली बनाम असली चेहरा

बीबीसी के नई दिल्ली और मुंबई स्थित दफ्तरों पर छापा (सरकारी तौर पर जिसे आय कर सर्वे कहा गया) पड़ने के बाद भारत में मौजूदा सरकार से असहमत समूहों के एक बड़े हिस्से में तुरंत यह अनुमान लगाया कि अब पश्चिमी देश नरेंद्र मोदी सरकार पर टूट पड़ेंगे। लेकिन शाम होते-होते ऐसे लोगों को गहरी निराशा हाथ लगी, जब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन फोन पर, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों वीडियो लिंक के जरिए और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक सार्वजनिक बयान के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपनी खुशियां साझा करते हुए सामने आए।

मौका 470 विमानों की खरीद के लिए अमेरिकी कंपनी बोइंग और फ्रेंच कंपनी एयरबस के साथ एयर इंडिया के हुए करार की घोषणा का था। ऋषि सुनक इसलिए प्रसन्न हुए कि जो विमान एयर इंडिया खरीदेगी, उसमें से कुछ के इंजन ब्रिटेन में बनेंगे। अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के नेताओं ने इतने बड़े सौदे को संपन्न कराना अपनी बड़ी सफलता माना और अपनी जनता को संदेश दिया कि इससे लाखों नौकरियां वहां पैदा होंगी। इस उल्लास के बीच बीबीसी पर छापे की खबर कहीं दब-सी गई।

यह भारत में उन लोगों के लिए मायूसी की बात है, जिन्होंने वित्तीय पूंजीवाद के नवउदारवादी दौर में राजसत्ता के बने चरित्र को समझने की कोशिश नहीं की है। नतीजा यह है कि जो दावे राज्य-तंत्र करता है, उसे वे सच मान लेते हैं। चूंकि पश्चिमी देश लगातार लोकतंत्र और मानव अधिकारों की माला जपते रहते हैं, अपने विरोधी देशों के खिलाफ इसे हथियार बनाते हैं और उनका मीडिया इसे प्रचारित करता रहता है, तो बहुत लोग उनके दावों को सच समझ लेते हैं।

लेकिन हैरत तब होती है, जब राजनीतिक रूप से खुद को जागरूक समझने वाले व्यक्ति और समूह भी ताजा घटना-विकास से नावाकिफ नजर आते हैं। यह ठीक वैसा ही है, जैसे अपने देश में बहुत बड़ा जन समुदाय यह भ्रम पाले जी रहा है कि भारत सचमुच एक लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था से चल रहा समाज है।

बहरहाल, 14 फरवरी की घटनाओं पर अगर बारीक नजर डाली जाए, तो ऐसे भ्रमों से निकलने में मदद मिल सकती है। इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि विमान खरीदारी का सौदा तीन निजी कंपनियों के बीच हुआ। आखिर इसका सरकारों से ऐसा कोई संबंध क्यों होना चाहिए, जिसकी घोषणा करने की औपचारिकता राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री पूरी करें?

लोकतंत्र के बारे में जो बातें किताबों में लिखी गई हैं या स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई जाती हैं, उसके मुताबिक सरकार विभिन्न वर्ग हितों से दूर रहने वाली एक निष्पक्ष संस्था है, जिसका काम परस्पर विरोधी निहित स्वार्थों के बीच अधिकतम सहमति तैयार कर नीति निर्माण करना होता है।

लोकतंत्र में सरकार जिनके मतदान से चुनी जाती है, उनमें हमेशा ही वैसे लोगों की संख्या अधिक होती है, जिनके हित समाज की वर्गीय संरचना के बीच सुरक्षित नहीं रहते। ऐसे में यह सरकार से अपेक्षित होता है कि वह उन लोगों के हितों की रक्षा करे, जिनके श्रम या संसाधनों का शोषण समृद्ध और मजबूत तबके कर सकते हैं (दरअसल, करते ही रहते हैं)।

कॉरपोरेट सेक्टर की बड़ी कंपनियां अपने हितों की रक्षा करने में सक्षम होती हैं। उनका सौदा कराने में राजसत्ताएं अपने प्रभाव या अधिकार क्षेत्र का उपयोग करें, सिद्धांततः यह किसी रूप में उचित नहीं है। इसका सीधा मतलब राजसत्ता और कॉरपोरेट हितों का मेल होगा, जिसे एक समय अपमान भाव के साथ क्रोनी कैपिटलिज्म कहा जाता था।

लेकिन 20वीं सदी का वो छोटा सा दौर ही था, जब एक खास विश्व परिस्थिति में सरकार नाम की संस्था पर शासक वर्गों की पकड़ कुछ कमजोर पड़ी थी। वरना, राजसत्ताएं हमेशा ही शासक वर्गों की एजेंसी रही हैं।

बीसबीं सदी के मध्य में जो विश्व परिस्थितियां बनीं, वे उस दौर में तीव्र और व्यापक हुए मजदूर अधिकार आंदोलनों से निर्मित हुई थीं। यह वो दौर था, जब सोवियत संघ दुनिया भर की मेहनतकश जनता के लिए प्रेरणास्रोत बना हुआ था। उसका दबाव और डर गैर-कम्युनिस्ट देशों के शासक वर्गों को तब सता रहा था। उसके बीच उन्होंने कल्याणकारी राज्य का उदय होने दिया, जिसमें सरकारों का काम आम जन का हित संरक्षण और उनकी भलाई की योजनाएं लागू करना भी समझा गया था।

पश्चिमी समाजों के औद्योगिक पूंजीवाद से वित्तीय पूंजीवाद के दौर में जाने के साथ ये हालात बदलने लगे। इस युग में अर्थव्यवस्था में उत्पादक क्षमता के स्थान पर रेंट और वित्त आधारित कारोबार का दबदबा बन गया। प्रचार तंत्र पर अपने नियंत्रण के कारण सरकारों की भूमिका बदलने में पूंजीपति और रेंटियर तबके सफल होते चले गए। उसके साथ ही श्रमिक वर्ग की सौदेबाजी की शक्ति घटाने के प्रोजेक्ट भी कामयाब हो गए।

एक हद तक सरकारी दमन और कुछ हद तक श्रमिक वर्ग को दिग्भ्रमित कर ट्रेड यूनियनों की ताकत को सीमित कर दिया गया। उत्तर आधुनिकतावाद के नाम पर नस्ल, लिंग, संप्रदाय, जाति आदि जैसी अस्मिताओं को उभारने और अपने-अपने दायरे में अस्मिता आधारित न्याय की भावना को प्रोत्साहित कर नई बनी व्यवस्था ने अपने लिए सुरक्षा कवच तैयार किया था। नव उदारवादी दौर लाने में यह कवच काफी कारगर साबित हुआ।

तो इसी नई और मौजूदा व्यवस्था को हम नव उदारवाद के रूप में जानते हैं, जिसमें सरकारें अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप ना करने का ढोंग उस समय तक करती हैं, जब तक कॉरपोरेट्स और वित्तीय पूंजी के हितों की रक्षा के लिए उनके आगे आने की मजबूरी खड़ी नहीं हो जाती है।

इस दौर में सरकारें असल में इजारेदार (मोनोपॉली) पूंजी की एजेंसी के रूप में काम कर रही हैं। पश्चिमी देशों की सरकारें विश्व व्यवस्था पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल अपने कॉरपोरेट हितों को आगे बढ़ाने विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय पूंजी को सुरक्षा दिलाने के लिए खुल कर रही हैं।

भारत में वर्तमान सरकार और कुछ इजारेदार पूंजीपति घरानों में जो याराना बना है, पश्चिमी देशों में सूरत उससे अलग नहीं है। इस संबंध का असल चरित्र मालिक और उसकी एजेंसी का है, जिसमें वास्तविक सत्ता इजारेदार घरानों के पास पहुंच गई है। निर्वाचित सरकारें उस सत्ता को लोगों के आक्रोश या निशाने से बचाए रखने का आवरण बनी हुई हैं।

अगर इस बात की समझ रखी जाए, तो 14 फरवरी को जो हुआ, उस पर आश्चर्य करने की कोई जरूरत नहीं होगी। भारत सरकार ने मौजूदा वैश्विक शक्ति संतुलन के बीच पश्चिमी देशों को साधने के लिए उन्हें लाभकारी सौदे देने की रणनीति अपना रखी है।

कॉरपोरेट घराने इस रणनीति में सहज रूप से शामिल होते हैं, क्योंकि आखिर वे जो निवेश करते हैं, वह रकम उन्हें बैंकों से प्राप्त होती है और बैंकों से ऋण दिलवाने में सरकार की जो भूमिका होती है, यह हम सब जानते हैं। वैसे भी भारत कॉरपोरेट्स और धनवान लोगों ने विभिन्न रूपों में अपने हित बहुराष्ट्रीय पूंजी से जोड़ रखे हैं।

अगर आर्थिक परिघटनाओं का बारीक विश्लेषण करें, तो यह साफ होते देर नहीं लगती कि भारत की राजसत्ता का वित्तीय और रेंटियर पूंजी से संचालित अन्य देशों की राजसत्ताओं से एक गठजोड़ कायम हो चुका है। इस रूप में देखें, तो भारतीय जनता पर भारत की राजसत्ता के माध्यम से पश्चिमी साम्राज्यवाद ने शिकंजा कस लिया है। इसके बीच पश्चिमी देश भारत सरकार को खरोंच लगाने से भी बच रहे हैं, तो स्वाभाविक है क्योंकि इसमें ही उनका हित भी है।

इस बात का अहसास अब शायद भारत में कार्यरत पश्चिमी मीडियाकर्मियों को भी हुआ है। कुछ रिपोर्टों में बताया गया है कि बीबीसी पर छापा पड़ने से ज्यादा मायूसी उन्हें इस बात से हुई है कि ब्रिटेन सहित पश्चिमी सरकारों ने इस मुद्दे पर बीबीसी का साथ नहीं दिया।

इस मायूसी में वे सेल्फ सेंसरशिप जैसी बातें करने लगे हैं। एक वेबसाइट पर छपी रिपोर्ट में कुछ पत्रकारों को यह कहते बताया गया है कि भारत में अब बच कर चलना ही ठीक है, क्योंकि आलोचनात्मक पत्रकारिता करने पर भारत सरकार जरूर कार्रवाई करेगी, जबकि उनके अपने देश उनके साथ खड़े नहीं होंगे।

यहां तक ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनमिस्ट ने भी इसको लेकर गहरा असंतोष जताया है। उसके स्तंभकार बानयान ने लिखा है कि अब आगे जब कभी पश्चिमी देश भारत के साथ उसूलों के साझापन की बात करेंगे, तो उसकी (स्तंभकार की) पेट में जरूर मरोड़ महसूस होगी।

इस लिहाज से देखें तो बीबीसी पर पड़े छापे से यह एक सकारात्मक बात हुई है कि पश्चिम के असली चेहरे से नकाब हटा है। यह चेहरा पश्चिमी मीडियाकर्मियों और भारत के लिबरल समुदाय को कब तक याद रहेगा, कहना मुश्किल है। भ्रम का अपना मोह होता है। वह व्यक्ति को कठोर हकीकत से रू-ब-रू होने से बचाए रखता है। लेकिन नकली चेहरा हमेशा कायम नहीं रह सकता। जब आर्थिक अंतर्विरोध तीव्र होते हैं, तो कई नकाब गिरते हैं। फिलहाल, कम से एक नकाब तो गिरा ही है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं)

जनचौक से जुड़े

2 COMMENTS

5 2 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Keyur Mistri
Keyur Mistri
Guest
1 year ago

Bbc raid Sochi samjhi sazish hai

Meena Singh
Meena Singh
Guest
1 year ago

ये हवाई जहाज की डील
बीबीसी छापे के बाद ही क्यों जग जाहिर की गई
एक बीबीसी के पत्रकारिता को संदेश देना था
की हम पत्रकारों से नही डरते
पत्रकार देशी हों या विदेशी हम उनको जीरो
मानते
दूसरा देश में और अमेरिका ,फ्रांस,ब्रिटेन को
सौदा करके झुका हुआ भी दिखा दिया
इन देशों को भारत के बाजार से मतलब है
नागरिक के अधिकारों से नहीं
तीसरा मोदी सबको संदेश देना चाहते हमारे पास बहुत धन है और समान की खपत भी
चौथा टाटा की डील से मोदी का क्या लेना देना
क्या टाटा को अडानी की जगह दे रहे मोदी
पांचवा किसी कॉरपोरेट की डील भारत सरकार
की डील नही तो मोदी जो भूखे हैं प्रचार के उनका
चेहरा आगे क्यों आगे किया गया
छठा लाइव कांफ्रेंस क्यों दिखाई सुनाई गई
भारत और विदेशों में

प्रचार की भूख

और लाइव दिख कर मनोवैज्ञानिक दबाव जनता
पर डालना
जनता की थाली छोटी होती जा रही
युवा बेरोजगार घूम रहे पर
400 हवाई जहाज की डील दिनभर चलाओ
सपने दिखाओ ,झूठ फैलाओ
कि हम बहुत तरक्की कर रहे
बहुत ही उमदा लेख है आपका
👍👍👍👍👍👍
बहुत बहुत शुक्रिया आभार

Latest Updates

Latest

Related Articles