Sunday, April 28, 2024

न्यायाधीश बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा दे रहे हैं: जस्टिस ए पी शाह

दिल्ली हाइकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस ए. पी. शाह ने कहा कि बुलडोजर आज शक्ति का प्रतीक बन गया है, जिसे कानूनी मंजूरी या अधिकार के बिना इस्तेमाल किया जाता है। निर्दोष लोगों की जिंदगियां और आजीविकाएं खत्म की जा रही हैं। लेकिन राहत की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है। जिसके विध्वंस के कार्य से आगे बढ़कर पूरे परिवार और समुदाय के लिए विनाशकारी परिणाम हो रहे हैं। कौन उनकी नष्ट हुई जिंदगियों को फिर से बनाने में उनकी मदद करेगा? ये सिर्फ उनके घर नहीं हैं, क्या राज्य को अपनी ताकत के प्रदर्शन के गंभीर परिणामों का एहसास है? जिन पर व्यवस्‍था को बनाए रखने की जिम्‍मेदारी है। अदालतें मूकदर्शक बनी रहती हैं। अगर मैं गलत नहीं हूं तो ऐसा एक भी मामला नहीं है जहां निर्दोष पीड़ितों को न्याय मिला हो। जब, कभी-कभार पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की तरह कोई पीठ स्वत: संज्ञान लेकर राज्य के शक्ति प्रदर्शन पर सवाल उठाती है तो मामला अपने आप ही छीन लिया जाता है।”

दिल्ली हाइकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह ने देश में ‘असहिष्णु और सांप्रदायिक’ ताकतों के उभार पर चिंता व्यक्त की है। हाल ही में उन्होंने कहा चरमपंथी विचारधारा ऐसी ताकतों के लिए ईंधन का काम कर रही हैं। नफरत, ध्रुवीकरण और अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों के तिरस्‍कार की संस्कृति पूरे देश में जड़ें जमा रही है। उन्होंने भारत में अदालत जैसी औपचारिक संस्थाओं के कमजोर होने और उनमें जनता के भरोसे के कम होने की भी आशंका जताई।

जस्टिस शाह ने ये बातें 25वें डीएस बोर्कर मेमोरियल लेक्चर के दौरान कहीं। कार्यक्रम में उन्होंने ‘भारत का मेरा दृष्टिकोण: 2047’ विषय पर व्याख्यान दिया। उल्लेखनीय है कि जस्टिस शाह विधि आयोग के अध्यक्ष के रूप में भी काम कर चुके हैं। अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा, “अब मैं भारत में असहिष्णु और सांप्रदायिक ताकतों का उदय देख रहा हूं जो कि आंशिक रूप से पिछली सरकारों से मोहभंग के कारण संभव हुआ है। कानूनी ढांचा इसे बड़ा कर रहा है जिसमें समाज में निहित दुरुपयोग और दुराग्रह शामिल हो रहा है।

सांप्रदायिकता का यह चिंताजनक उभार, जो धार्मिक राष्ट्रवाद का एक गहरा विभाजनकारी रूप है, उसे शक्तिशाली राजनीतिक समर्थन प्राप्त है। जो विनायक सावरकर के हिंदू राष्ट्र, हिंदू जाति और हिंदू संस्कृति के आदर्श को साकार करने की कोशिश कर रहा है। सावरकर का दृष्टिकोण बेहद पुराना है, जिसे हल्के ढंग से कहा जा रहा है। लोगों को भूगोल या धर्म से परिभाषित नहीं किया जाता है, जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र कठोर एकरूपता या अलगाव की कोठरियां नहीं हैं।

फिर भी, यह हंगामाखेज़ दृष्टिकोण आज भारत में इस हद तक प्रचारित किया जा रहा है कि अल्पसंख्यक भय में जी रहे हैं, और कुछ इस सच्चाई के साथ कि उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। नूंह और दिल्ली में हुई घटनाएं इस भावना को और आगे बढ़ाती है। मुठभेड़ में हत्याएं, अल्पसंख्यक समुदायों के व्यापारियों पर पंचायत में लगाया जा रहा प्रतिबंध और ‘बुलडोजर राजनीति’ जैसे न्यायेतर उपकरणों ने इस स्थिति को और खराब कर दिया है’।

जस्टिस शाह ने अपने व्याख्यान में आगे भारत मे शासन और लोकतंत्र की दिशा का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया। जिसे वह ‘निर्वाचित निरंकुशता’ कह रहे थे, उसे लेकर उन्होंने आगाह किया। उन्होंने जोर देकर कहा कि चुनावी वैधता के बावजूद, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के कार्यों में तेजी से सत्तावादी प्रवृत्ति प्रदर्शित हुई है, जो लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमजोर करती है। उन्होंने कहा, चेक और बैलेंस का क्षरण, निगरानी संस्थानों को अपने साथ ले लेना, असहमति को दबाना, और मीडिया और अदालतों को कमजोर करने को इस बदलाव के प्रमुख संकेत के रूप में देखा जा रहा है। हिंदुत्व राष्ट्रवाद के उभार की निंदा करते हुए, उन्होंने कहा कि यह उदार और सहिष्णु धर्म के रूप में हिंदू धर्म के मूल सार के विपरीत है।

जस्टिस शाह ने हिंदू महासभा के साथ अपने पारिवारिक संबंधों का भी खुलासा किया, जिसका एक महत्वपूर्ण चेहरा विनायक दामोदर सावरकर थे। उन्होंने बताया, “मेरे दादाजी 1940 के दशक में हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे। एक युवा के रूप में मैंने स्कूल में सबसे पहला साहित्य वीडी सावरकर का पढ़ा, तब मुझे उनकी शुरुआती कविता से प्यार हो गया, हालांकि उनकी बाद की कविताएं बहुत ज्यादा संस्कृतनिष्ठ और पढ़ने में कठिन ‌थीं। ग्रेजुएशन में सावरकर की कविता मेरे विषयों में से एक थी… मुझे लगता है कि हिंदुत्व का विचार, जैसा कि हम आज इसे देख रहे है, हिंदू आस्था को ही चुनौती देता है। हिंदू धर्म को लोग सहिष्णु और उदार धर्म मानते हैं। अल्पसंख्यकों के खिलाफ उनके धर्म के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है, उसके बारे में हिंदू समाज काफी हद तक चुप क्यों है? यह एक ऐसा सवाल है जो हममें से कई लोग आज पूछ सकते हैं।

1893 के शिकागो भाषण में विवेकानंद के शब्दों को याद करें, जहां उन्होंने कहा था, “हम न केवल सार्वभौमिक सहिष्णुता में विश्वास करते हैं, बल्कि हम सभी धर्मों को सच्चे रूप में स्वीकार करते हैं,” और उन्हें एक ऐसे राष्ट्र से संबंधित होने पर गर्व है, जिसने दुनिया के सभी धर्मों और सभी देशों के सताये हुए लोगों और शरणार्थ‌ियों को आश्रय दिया है। क्या हमें उस गौरव को हमेशा महसूस नहीं करना चाहिए?”

जस्टिस शाह ने बताया कि यह विचारधारा, जो स्वतंत्रता संग्राम और हमारे संविधान के निर्माण के दौरान हाशिए पर थी, अब प्रभावशाली हो चुकी है, जिससे लोकतंत्र पीछे जा रहा है और अल्पसंख्यकों के बीच भय का माहौल पैदा हो रहा है।

दंगों या अन्य अपराधों में शामिल होने के संदेह में लोगों के घरों को तोडने के संबंध में, जस्टिस शाह ने कहा कि न्यायिक प्रतिक्रिया अपर्याप्त और कमजोर रही है। उन्होंने सांप्रदायिक झड़पों के बाद हरियाणा के नूंह में विध्वंस अभियानों के खिलाफ स्वत: संज्ञान कार्रवाई को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस जीएस संधावालिया की अध्यक्षता वाली पीठ, जिसने मामले का संज्ञान लिया था, के बजाय एक अन्य पीठ को सौंपने का उल्लेख किया। उस पीठ ने कहा था कि क्या राज्य एक विशेष समुदाय को निशाना बना रहा था और क्या उसकी कार्रवाई ‘जातीय शुद्धता’ के बराबर है?

हेट स्पीच पर जस्टिस शाह ने कहा कि समस्या के समाधान के लिए सुप्रीम कोर्ट के प्रयास के बावजूद, ‘हिंसा और नफरत’ का चक्र जारी है। “हेट स्पीच के मामले में भी यही कहानी सामने आई है। राजनेता और राजनीतिक रूप से समर्थित मीडिया संस्‍थान नियमित रूप से सांप्रदायिक नफरत को बढ़ावा देते हैं। राज्य और स्थानीय सरकारें या तो सहभागी हैं या निष्क्रिय हैं। सुप्रीम कोर्ट ने नफरत फैलाने वाले भाषण पर अंकुश लगाने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ और हिंसा और नफरत का चक्र जारी है। जस्टिस शाह ने जोर देकर कहा कि न्यायपालिका की भूमिका चिंता का एक महत्वपूर्ण बिंदु बनकर उभरी है, क्योंकि यह बदलते सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करती है।

सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसलों की सराहना करते हुए, जैसे निजता का अधिकार, भीमा कोरेगांव-एल्गार परिषद मामले में आरोपी कार्यकर्ताओं को जमानत देने के आदेश, और हरियाणा में सांप्रदायिक हिंसा, या मणिपुर में जातीय संघर्ष के जवाब में पारित आदेश, जस्टिस शाह ने कार्यपालिका के अतिरेक का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने में सुप्रीम कोर्ट की असमर्थता पर भी चिंता जाहिर की। उन्होंने कहा‌ कि नागरिकता संशोधन अधिनियम और चुनावी बांड जैसे विवादास्पद मामलों पर अदालत की अनिच्छा और ज्यादा परेशान करती है।

जस्टिस शाह ने यूएपीए के तहत उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना मानवाधिकार कार्यकार्तओं को टारगेट करने पर भी सवाल उठाया। इस संबंध में, जस्टिस शाह ने सुप्रीम कोर्ट के जहुद अहमद वटाली फैसले का भी उल्लेख किया, जिसने यूएपीए के तहत अदालत की जमानत देने की शक्तियों की संकीर्ण व्याख्या की थी। उन्होंने कहा, “तीस्ता सीतलवाड़ का मामला इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। ऐसा प्रतीत होता है कि अदालतें न केवल मामलों को खारिज कर रही हैं, बल्कि कार्यकर्ताओं को टारगेट करने में सरकार का व्यावहारिक रूप से समर्थन कर रही हैं। आतंकवाद विरोधी कानूनों और विशेष रूप से

गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम को लागू करके मानवाधिकार कार्यककर्ताओं का नियमित रूप से उत्‍पीड़न किया जा है। यूएपीए मामलों में जमानत देने की सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या ने वटाली फैसले में कानून के तहत निर्दोषता के अनुमान के सिद्धांत को उलट दिया है।

जस्टिस शाह ने कहा कि अब, अदालतों को अभियोजन के मामले को सच मानना होगा और फिर यह निर्धारित करना होगा कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं। जिसका नतीजा यह है कि यूएपीए के तहत आरोप लगने पर किसी भी दुर्भाग्यपूर्ण व्यक्ति को अनिश्चितकालीन कारावास का सामना करना पड़ रहा है। भीमा कोरेगांव और दिल्ली दंगों के मामलों सहित कई मामलों में यूएपीए का विशेष रूप से उपयोग और दुरुपयोग किया गया है। कुछ लोग जो आरोपी थे और गिरफ्तार किए गए थे, जैसे कि सुधा भारद्वाज, को अंततः जमानत दे दी गई, जबकि स्टैन स्वामी जैसे अन्य लोगों की हिरासत में मौत हो गई।

जस्टिस शाह ने हाईकोर्ट के कामकाज की भी चर्चा की। उन्होंने ‘उनकी वास्तविक स्वतंत्र भूमिका’, जिसका निर्वहन अदालतें करती थीं, उसका निर्वहन करने में उनकी असमर्थता की ओर इशारा किया। उन्होंने इस बात पर भी अफसोस जताया कि कुछ हाईकोर्ट में नागरिक स्वतंत्रता के मामलों में राहत पाना कितना मुश्किल हो गया है, जिससे नागरिकों के पास सबसे ‘हास्यास्पद’ मामलों में भी कार्यकारी अतिक्रमण या अधिकारों के उल्लंघन के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उन्होंने कहा, परेशान करने वाली बात यह है कि न्यायाधीश विभाजनकारी आख्यानों की प्रशंसा कर रहे हैं और बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण के साथ खड़े हो रहे हैं।

जस्टिस शाह ने जोर देकर कहा कि कार्यपालिका न्यायपालिका को ‘आखिरी किला मानती है, जिस पर उसे फतह पाना है’, और यह केशवानंद भारती फैसले के इर्द‌गिर्द नए सिरे से हो रही बहसों से दिखने भी लगा है। उन्होंने कहा कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। 2023 संवैधानिक लोकतंत्र के रूप में भारत की प्रगति का मूल्यांकन करने के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है। इस साल हमने विज्ञान और प्रौद्योगिकी, बुनियादी ढांचे और अंतरिक्ष अन्वेषण में उल्लेखनीय प्रगति देखी है, वहीं देश ने लोकतांत्रिक गिरावट भी देखी है।

जस्टिस शाह ने कहा, विभाजनकारी प्रवृत्तियां हाल में प्रभावशाली हुई हैं, फिर भी सांप्रदायिकता का जीवन बहुत लंबा नहीं है। उन्होंने कहा, समाज अशांति की क्षणिक अवधि के बाद स्वाभाविक रूप से शांति और संतुलन की ओर बढ़ता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस संजय किशन कौल ने की। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली के प्रोफेसर अनूप सुरेंद्रनाथ कार्यक्रम में मौजूद रहे।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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