मेरे साथ न्यायपालिका को भी अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा: जीएन साईबाबा

नई दिल्ली। प्यारे दोस्तों ! दिल्ली प्रेस को मेरे बारे में पता है। मैं आज कहां हूं, मैं समझ नहीं पा रहा। ऐसा इसलिए है कि मुझे अब भी यही महसूस हो रहा है, जैसे कि मैं अब भी उस कुख्यात अंडा सेल में ही बंद हूं। मेरी रिहाई के 24 घंटे बीत जाने के बाद भी मैं इस हकीकत को स्वीकार नहीं कर पा रहा हूं। मैं इस नये परिवेश के साथ अभी तालमेल नहीं बिठा पा रहा हूं। मैं पूरे सात साल तक केवल एक बंद कोठरी की दीवारों को देखता रहा हूं। और उससे पहले भी मैं उसी कोठरी में 17 महीने रह चुका था। 10 साल पहले, जबसे यह मामला शुरू हुआ, तबसे कुल मिलाकर मैंने साढ़े आठ साल से ज्यादा समय उसी कोठरी में गुजारे हैं।

संभवतः आज से दस साल पहले भी सारी दुनिया को पता है कि यह एक मनगढ़ंत मुकदमा है। लेकिन मुझे कोई राहत नहीं मिली। यहां तक कि उच्चतर न्यायपालिका द्वारा बरी किये जाने, अभियोग-मुक्त किये जाने के बावजूद मुझे राहत नहीं मिली। मुझे सीता की तरह अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा। पौराणिक सीता तो एक ही बार अग्निपरीक्षा से गुजरी थी, मुझे उसी अग्निपरीक्षा से दो-दो बार गुजरना पड़ा। फिर भी आज मैं आप लोगों के सामने हूं। लेकिन यह न केवल एक अभियुक्त के रूप में मेरी अग्निपरीक्षा थी, बल्कि उच्चतर न्यायपालिका की भी अग्निपरीक्षा थी।

उच्चतर न्यायपालिका द्वारा मुझे बरी किये जाने का एक फैसला काफी नहीं साबित हुआ। आखिरकार मैं और उच्चतर न्यायपालिका, दोनों ने ही इस अग्निपरीक्षा को पास कर लिया, फिर भी, जैसा कि कहा गया है, “जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाएड” यानि “विलंबित न्याय, न्याय से महरूम करने जैसा है।” आज हम शायद खुश हैं, लेकिन हमारी आंखें आंसुओं से भरी हुई हैं। आप देखिए कि मुझे बरी करने वाले फैसले का पुनः परीक्षण किया गया। खैर न्यायपालिका भी इस अग्निपरीक्षा में पास हो गयी है। इन दोनों अग्निपरीक्षाओं से गुजरने के बाद हम कह सकते हैं कि, जनता के लिए, और लोकतंत्र के लिए भरोसे के लायक बचा रह गया एकमात्र संस्थान, न्यायपालिका भी परीक्षा के दौर से गुजर रही है। आप जानते ही हैं कि क़ानूनी प्रक्रिया से गुजरना खुद ही सबसे बड़ा दंड है। अभियुक्त के रूप में मुझे, और न्यायपालिका, दोनों को इससे गुजरना पड़ा है। 

आज मैं आपके सामने केवल एक बात कहने के लिए आया हूं। दरअसल मैं बातचीत करने की हालत में नहीं हूं। मैं बैठने तक की हालत में नहीं हूं। मैं भयंकर दर्द की हालत में यहां बैठा हूं। मेरे शरीर में फटने जैसा और गोली लगने जैसा दर्द हो रहा है। इसलिए मैं संक्षेप में, बहुत थोड़े शब्दों में अपनी बात कहूंगा।

मैं प्रेस को धन्यवाद देना चाहता हूं। खासकर के, दिल्ली प्रेस को, और अखिल भारतीय प्रेस को। दस वर्षों के इस कठिन दौर में आप सबने मुझ पर और मेरे परिवार पर अपना समर्थन बनाये रखा। संभव है कि प्रेस का एक हिस्सा इस समर्थन के प्रति उत्साहित न रहा हो, लेकिन देश भर में प्रेस और मीडिया के बड़े हिस्से का समर्थन हमें मिलता रहा। इस बात को मैं जेल की अपनी छोटी सी कोठरी से भी महसूस कर पा रहा था कि प्रेस द्वारा सत्य और तथ्य को जारी समर्थन के चलते इस देश में उम्मीद की रोशनी बची हुई है। यह समर्थन सत्य और तथ्य के लिए था, केवल जीएन साईबाबा के लिए नहीं।

अगर जीएन साईबाबा सत्य और तथ्य के पक्ष में खड़े होते हैं, तो हां, उनके लिए भी है। तथ्य और सत्य को मीडिया के एक बड़े हिस्से का समर्थन मिल रहा है, यह बात जेल की उस मनहूस कोठरी में मेरे लिए उम्मीद का एक बड़ा स्रोत थी। मेरे परिवार की उम्मीदें केवल आपकी वजह से जिंदा रहीं। यही वजह है कि जेल से निकल कर सीधे अस्पताल जाने की बजाय मैं पहले आप लोगों के पास आया। आप सत्य और तथ्य के साथ खड़े रहे और आपने सत्य और तथ्य को प्रकाशित किया। और आज न्यायपालिका ने भी कम से कम मेरे मामले में जिस दृढ़ता का परिचय दिया है, और उम्मीद करता हूं कि अन्य मामलों में भी, हर जगह इसी तरह न्याय किया जाएगा, यह चीज भी उम्मीद पैदा करती है। 

साथ ही मैं आपको इसलिए भी बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूं कि आपने मेरे परिवार को अकेला नहीं छोड़ दिया, बल्कि उसे भरपूर समर्थन देते रहे। खास तौर पर ऐसी हालात में, जब मेरे ऊपर आतंकवादी का ठप्पा लगाकर मेरे परिवार को लांछित किया जा रहा था। जब न केवल जेल में मुझे, बल्कि बाहर भी मेरे पूरे परिवार को कलंकित किया जा रहा था, उस समय मेरा परिवार केवल आपके समर्थन के चलते इस संघर्ष में टिका रहा। मैं इसके लिए आपको धन्यवाद देता हूं।

मैं आपके माध्यम से धन्यवाद देना चाहता हूं अपने वकीलों को, और तथ्यों को स्थापित करने और मुझे न्याय दिलवाने में उनके अथक संघर्ष को। इस काम में दिल्ली, मुंबई और नागपुर के वकीलों ने मिलकर काम किया। यह उनके लिए भी एक बड़ी परीक्षा थी, जिसमें उन्होंने अथक संघर्ष किया। आप उन्हें जानते हैं। वकीलों की इतनी बड़ी टीम, जिसने एक साथ मिल कर हमें न्याय दिलाया, उन सबके नाम लेना कठिन काम होगा।

मेरा मुकदमा शायद देश का सबसे बड़ा ऐसा राजनीतिक मुकदमा बन गया है, जिसमें अभियोजन पक्ष ने हमें दबाने के लिए हर तरह के अवैध और अनैतिक तरीक़े इस्तेमाल किये। हमारे वकीलों के लिए भी यह एक काफी लंबा संघर्ष था। 

हालांकि वकीलों की यह सूची काफी लंबी है, फिर भी मैं खासतौर पर दो वकीलों के नाम लेना चाहता हूं। मुंबई उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ वकील सुबोध धर्माधिकारी ने घोषणा की कि यह मुकदमा मैं लड़ूंगा, और इसके लिए मैं एक रुपये भी फीस नहीं लूंगा। बिल्कुल निःशुल्क। वे मुंबई उच्च न्यायालय के काफी बुजुर्ग और वरिष्ठ वकील हैं। जब पहले ट्रायल का मौक़ा आया, उस समय वे बीमार थे, अस्पताल में भर्ती थे, फिर भी वे अस्पताल से कोर्ट आये और जिरह किये। अगले दिन भी उनके द्वारा पेश किये गये बिंदुओं पर बहस हुई और वे फिर से कोर्ट आये। वे अस्पताल में भर्ती थे, फिर भी कोर्ट आकर उन्होंने बहस किया। मैं उन्हें धन्यवाद देता हूं।

मेरे एक वकील का मामला तो और भी दिलचस्प है। उन्होंने ट्रायल के दौरान मेरा बचाव किया, और आज वे खुद सलाखों के पीछे हैं। वे सुरेंद्र गाडलिंग हैं, उन्हें एल्गार परिषद मामले में जेल में डाला गया है, इसका केवल एक कारण है। वे मेरे पक्ष में खड़े हुए और सेशन्स कोर्ट में मेरे पक्ष में उन्होंने जबर्दस्त प्रभावशाली बहस किया। जाहिर है कि 35 साल के अनुभव वाला एक मानवाधिकार वकील, जो हर तरह से माहिर है, उन्होंने कोर्ट में साफ-साफ दिखला दिया कि इस मामले में बिल्कुल कोई तथ्य नहीं है। जाहिर है कि मानवाधिकार वकील सुरेंद्र गाडलिंग विफल नहीं हुए, बल्कि खुद सेशन्स कोर्ट की विफलता थी, जो उसने देश के कानून के खिलाफ फैसला दिया। 

इस ट्रायल के दौरान ही कुछ पुलिस अधिकारियों ने मेरे वकील सुरेंद्र गाडलिंग को धमकाया कि साईबाबा के बाद हम तुम्हारी खबर लेंगे। साईबाबा को सजा सुना दी गयी, और इसके कुछ ही महीने के भीतर सुरेंद्र गाडलिंग को एक और मनगढ़ंत मुकदमें में गिरफ्तार कर लिया गया। वे 5 साल से ज्यादा समय से सजा काट रहे हैं। वे एक प्रतिष्ठित वकील हैं और वे ऐसे मानवाधिकार वकील हैं जो गरीब आदिवासियों, दलितों और अन्य गरीब लोगों के मुकदमे निःशुल्क लड़ते रहे हैं। उन्होंने आम लोगों के पक्ष में हजारों मुकदमों में जीत हासिल की है।

आपसे बात करते हुए मुझे सबसे ज्यादा दुख इसी बात का है, कि मेरे वकील, सुरेंद्र गाडलिंग जैसा सबसे प्रभावशाली वकील, जो इस देश में क़ानून के गिने-चुने मानवीय चेहरों में से एक है, वह आज सलाखों के पीछे है। मैं आपको अपनी कहानी बताना चाहता था। मैं अपनी 10 साल की पीड़ा की कहानी आपसे साझा करना चाहता था। लेकिन जिस तरह की पीड़ा से मैं गुजरा हूं, उसे बयान करने से पहले दो और बातें मैं आपसे कहना चाहता हूं।

मेरे वकील सुरेंद्र गाडगिल, जिन्होंने मेरा बचाव किया, वे आज वही समस्याएं झेल रहे हैं, जो मैं खुद पिछले 10 वर्षों से झेल रहा हूं। उन्हें भी गंभीर हृदयरोग हो गया है। वे तलोजा जेल में बंद हैं। हाल ही में वह भी मेरी तरह बार-बार बेहोश होकर गिर जा रहे हैं। नागपुर सेंट्रल जेल की अंडा सेल में मैं भी पिछले साढ़े आठ सालों तक बार-बार मूर्छित हो जा रहा था। हाल ही में जेल प्रशासन ने सुरेंद्र गाडलिंग को सरकारी अस्पताल द्वारा लिखी गयी जीवनरक्षक दवाएं तक देने से इनकार कर दिया। ये जीवनरक्षक दवाएं जब उनके परिवार ने भेजीं तो भी जेल प्रशासन ने उन्हें देने से इनकार कर दिया। फिर जब परिवार ने दोबारा इन जीवनरक्षक दवाओं को स्पीड पोस्ट से भेजा तो बताया गया कि वे पहुंचीं ही नहीं, और बाद में वापस आ गयीं। यही सब मेरे साथ भी हुआ था। मूर्छित होकर गिरने से रोकने के लिए घुमटा, यानि चक्कर आने पर दी जाने वाली एक टैबलेट जो मैं पिछले सात सालों से खाता रहा हूं, वह एक साधारण सी टैबलेट भी मानवाधिकार अधिवक्ता सुरेंद्र गाडलिंग को नहीं दी जा रही है। वे बेहोश होकर गिर जा रहे हैं, लेकिन वे इस दवा की एक साधारण गोली, जिसे हर कोई जानता है, नहीं ले सकते। इस तरह की स्थिति का सामना करते हुए हाल ही में सुरेंद्र गाडलिंग ने एक याचिका दायर की है। उन्होंने तलोजा केंद्रीय कारागार के अधिकारियों के खिलाफ हत्या के प्रयास का मामला दर्ज कराया है।

आप उच्च न्यायालय में इसकी जांच कर सकते हैं। वहां उन्होंने हत्या के प्रयास का मुकदमा दायर किया हुआ है। उन्होंने जेल से ही जेल अधिकारियों के खिलाफ धारा 307 के तहत मामला दर्ज कराया है, क्योंकि वे उन्हें जीवनरक्षक दवाएं देने से इनकार कर रहे हैं। आपके सामने मैं यह सब इसलिए याद कर रहा रहा हूं, क्योंकि यह सब मेरे साथ भी हो चुका है, फिर भी मैं किसी तरह बच गया। मुझे नहीं पता कि मैं कैसे बच गया। शायद इसी उम्मीद से खुद को बचा लिया कि एक दिन मैं वापस आ सकूंगा और फिर से मैं उन्हीं लोगों के लिए काम करता रहूंगा, जिनके लिए मैं अपने सभी दोस्तों और कॉमरेडों के साथ काम करता रहा हूं। मेरे ये सभी साथी, जो मेरे साथ काम करते रहे हैं, वे मेरी इन दस सालों की यातना के दौरान भी मेरे साथ खड़े रहे हैं।

एक और बात बताना चाह रहा हूं। इस मुकदमे में मेरे सह-अभियुक्तों में एक ऐसा इंसान था, जिसे इससे पहले न मैं जानता था, न वह मुझे जानता था। हम एक-दूसरे को तभी जान पाये, जब हमें दोषी ठहरा कर एक ही कोठरी में ठूंस दिया गया। लेकिन पाण्डु नरोटे नाम के उस इंसान की हिरासत के दौरान महज एक साधारण बुखार से मौत हो गयी। ऐसा कैसे हो सकता है?

आज के आधुनिक युग में, आधुनिक चिकित्सा के मौजूद होते हुए भी किसी की साधारण बुखार से मौत हो जाना कैसे संभव है? और दिलचस्प यह है कि जब हमें एक साथ लाकर एक ही कोठरी में ठूंस दिया गया था, उस समय, 7 मार्च 2017 को उस इंसान ने मुझसे पहला सवाल यह पूछा था कि जजमेंट का क्या अर्थ होता है? 

हमारे साथ क्या किया जा रहा है, उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उसे कानून क्या है, मुकदमा क्या है, अदालत क्या होती है, कुछ भी पता नहीं था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हर देश की सबसे आदिम जनजाति की पहचान किया है। वह हमारे देश की सबसे आदिम जनजाति का था। वह किसी भी शहर जैसी चीज को नहीं जानता था, वह गढ़चिरौली के अपने गांव से बाहर कभी नहीं गया था।

मेरी आंखों के सामने ही उसकी मौत हो गयी। जेल अधिकारियों से बार-बार कहने के बावजूद उसे तब तक अस्पताल नहीं ले जाया गया, जब तक कि उसकी आंखों से और पेशाब से भारी मात्रा में खून नहीं निकलने लगा, जब तक कि तय नहीं हो गया कि कुछ ही मिनटों में उसकी मौत हो जाएगी। जब साथी क़ैदियों ने शोर-शराबा शुरू कर दिया, तब जाकर उसे अस्पताल पहुंचाया गया। 

उसे मार दिया गया, यह एक राजकीय हत्या थी, आप यह नहीं कह सकते कि स्वाइन फ्लू या बुखार से उसकी मौत हुई थी। हमें नहीं पता क्योंकि अंतिम समय तक उसकी स्वाइन फ्लू की कोई ब्लड रिपोर्ट नहीं थी। मौत के बाद ही घोषित कर दिया गया कि उसकी मौत स्वाइन फ्लू से हुई है। हमें नहीं पता कि उसकी मृत्यु किस कारण से हुई।

मेरे कष्टों को संभवतः आप जानते हों, लेकिन एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर, सब जानते हैं कि मैंने अपने पूरे जीवन में सभी गरीबों के कष्टों को ही अपना कष्ट समझा है। और जब मुझे जेल में ठूंस दिया गया, तो लोगों ने मेरे कष्टों को अपने कष्टों के रूप में लिया। आप देखिए कि किस तरह पूरी प्रक्रिया ही उलट गयी।

एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में मुझे तो इन लोगों के कष्टों को अपना कष्ट मानना ही था, लेकिन देखिए कि किस तरह उन लोगों ने मेरे कष्ट को अपना कष्ट मान लिया। जेल की मेरी उस अण्डा सेल में व्हीलचेयर नहीं जा सकता था। उस कोठरी में अलग से शौचालय नहीं था। केवल एक छेद था जिसका इस्तेमाल शौचालय के रूप में होता था। लेकिन वहां तक बिना व्हीलचेयर के तो मैं जा नहीं सकता था। दो आदिवासी लड़के, एक पाण्डु नरोटे और उसके बाद एक दूसरा लड़का, हर बार मुझे सचमुच गोद में उठाकर शौचालय की सीट तक भी ले जाते रहे, और नहलाने के लिए भी ले जाते रहे। मैं अपनी व्हीलचेयर पर बैठकर खुद से कोठरी से बाहर भी नहीं निकल सकता था, तो मुलाक़ात कक्ष तक ले जाने के लिए, ऑनलाइन मुलाक़ात के लिए ले जाने के लिए, जेल के अस्पताल तक जाने के लिए, हर बार मुझे व्हीलचेयर से उतारने और फिर बैठाने के लिए मुझे दो लोग मदद करते थे। आप देख सकते हैं कि इतनी बड़ी जेल में सुविधाओं का यह हाल है कि एक रैंप तक नहीं बनाया गया है।

मैं बिना किसी की मदद के एक गिलास पानी तक नहीं पी सकता था, क्योंकि उस कोठरी के भीतर भी व्हीलचेयर नहीं चलती है। ऐसी हालत में कोई कितने दिन तक, कितने साल तक जिंदा रह सकता है? जब मुझे जेल में डाला गया था, उस समय तक बचपन की इस पोलियोग्रस्तता के अलावा मुझे कोई अन्य बीमारी नहीं थी। आज मैं

आपके सामने हूं। हालांकि जीवित हूं लेकिन मेरे शरीर के सारे अंग खराब हो रहे हैं। मैं आपको बस एक मिनट में बता देता हूं कि आज मैं किस तरह की चीजों का सामना कर रहा हूं। मेरा दिल आज मात्र 55% काम कर रहा है। मुझे नहीं मालूम कि मुझे कैसे यह बीमारी हो गयी। मुझे गंभीर ‘एचसीएम’ यानि हाइपरट्रॉपिक कार्डियोमायोपैथी हो गयी है। मेरे दिल का बायां हिस्सा केवल 55% काम कर रहा है और डॉक्टरों का कहना है कि अगर यह महज कुछ प्वाइंट और गिरा तो मैं बचूंगा नहीं। मुझे बार-बार बेहोशी के दौरे पड़ रहे हैं, लेकिन इसका कोई इलाज नहीं किया जा रहा है। उन्होंने कुछ टेस्ट भी कराये, मगर कोई इलाज नहीं किया। उन्होंने मुझे केवल दर्द निवारक दवाएं दीं, चार-पांच-छः तरह की केवल दर्द निवारक दवाएं।

आप जानते ही हैं कि 9 मई 2014 को जब मैं गिरफ्तार कर लिया गया, पुलिस ने मेरा बायां हाथ पकड़ कर घसीटा था। अब मैं अपना बायां हाथ नहीं उठा सकता। इन दस सालों के बाद भी आप यह सूजन देख सकते हैं। जब मैं यहां आया तो कॉमरेड राजा का पहला सवाल था कि आपके बायें हाथ में सूजन क्यों है? आपको बता दूं कि पुलिस हिरासत में मेरे साथ हुए दुर्व्यवहार और घसीटे जाने के कारण मेरी बांह की पांच मांसपेशियां और पूरा तंत्रिका तंत्र क्षतिग्रस्त हो गया है।

गिरफ्तारी के तुरंत बाद हिरासत में मुझे दिल्ली से नागपुर फ्लाइट से ले जाया गया और वहां से कार से अहेरी ले गये। इस काफिले में 2,000 कमांडो चल रहे थे। इस दौरान मेरी बांह खींचे जाने के कारण वह दिमाग से कंधों को जोड़ने वाला पूरा तंत्रिका तंत्र गर्दन के आसपास क्षतिग्रस्त हो गया। मेरे कंधे का यह हिस्सा भयंकर रूप से सूज गया था। अण्डर ट्रायल पीरियड में मैं दर्द से तड़पता रहा, लेकिन 9 महीने तक इसका कोई इलाज नहीं कराया गया। और 9 महीने बाद जब मुझे अस्पताल ले जाया गया तो वहां सरकारी डॉक्टरों ने बताया कि बहुत देर हो चुकी है।

अब हम तंत्रिका तंत्र और मांसपेशियों को पुनर्जीवित नहीं कर सकते। और जब मैं जमानत पर बाहर आया तो इसका इलाज शुरू हुआ, डॉक्टरों ने सर्जरी करने की योजना बनायी। लेकिन तभी मुझे सजा सुना दी गयी और फिर से मुझे जेल की उसी कोठरी में फेंक दिया गया। और तब से मैं इस पीड़ा को भोग रहा हूं। मेरे बाएं हाथ से लेकर बाएं पैर तक, पूरी तरह से पोलियोग्रस्त बाएं पैर तक, गोली लगने जैसा तेज दर्द होता है। मेरी मांसपेशियों में अकड़न, यानि स्पाज्म के दौरे पड़ते हैं, जो मुझे बिल्कुल पंगु बना देते हैं, लेकिन मुझे डॉक्टर को नहीं दिखाया जाता था। मेरी अण्डा सेल के उस तरफ अस्पताल है, लेकिन मुझे वहां नहीं ले जाया जाता, भले ही मैं कितनी ही तकलीफ क्यों न झेलूं। इसीलिए मैं अपनी तुलना पौराणिक सीता से कर रहा हूं। मेरे ऊपर भी उसी तरह संदेह किया गया, जैसे राम ने सीता पर संदेह किया था।

मुझे जो भोजन मिलता था, जिसे मैं खा सकता था, या नहीं खा सकता था, उसके कारण मुझे पित्ताशय की पथरी हो गयी और पित्ताशय में सिकुड़न भी आ गयी। फिर इसने मेरे अग्न्याशय, यानि पैंक्रियाज पर असर डाल दिया। अब मैं पित्ताशय की पथरी के साथ-साथ तीव्र-जीर्ण अग्नाशयशोथ यानि एक्यूट-क्रॉनिक पैंक्रियाइटिस से भी पीड़ित हो चुका हूं। अब न खाना खा सकता हूं, पचा सकता हूं। इस बीच एक एमआरआई में पता चला है कि मेरे मस्तिष्क में एक सिस्ट है और एक अन्य स्कैनिंग में पता चला है कि मेरे गुर्दो में भी सिस्ट है। गिरफ्तारी से पहले मैं हर साल मेडिकल चेकअप कराता था, मुझे पहले इनमें से कोई बीमारी नहीं थी। मैं बिल्कुल स्वस्थ था। मैंने कभी एक टैबलेट भी नहीं खाया। 

अगर कभी सिरदर्द जैसा कुछ होता भी था तो मेरी पत्नी कुछ घरेलू जड़ी-बूटी दे देती थी, मैं ठीक हो जाता था। मुझे कभी डॉक्टर के पास नहीं जाना पड़ता था।

सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों ने कई जांचे लिखी हैं। 4 साल पहले ही उन्होंने दिल की हॉल्टर जांच कराने को लिखा था। लेकिन आज तक यह जांच नहीं करायी गयी। एक अन्य डॉक्टर ने 7 साल पहले स्लीप अप्निया जांच कराने को लिखा था। उनके अनुसार सोते समय बीच-बीच में मेरी सांस रुक जाती है, जिसके चलते मैं ठीक से सो नहीं पाता हूं। 7 साल बीत गये, यह जांच भी नहीं करायी गयी। एक और डॉक्टर ने मेरी नसों और मांसपेशियों की मरम्मत के लिए सर्जरी कराने का निर्देश दिया था, ताकि मुझे दर्द से राहत मिल सके और हाथ थोड़ा-बहुत काम करने लगे। लेकिन इसकी कोई योजना भी नहीं बनायी गयी, और यहां तक कि इसके बारे में चर्चा तक नहीं की गयी। डॉक्टरों द्वारा सुझाये गये कई अन्य परीक्षण भी नहीं कराये गये।

तमाम गुंडे और गिरोहों के सरगना भी जेलों में बंद रहते हैं और उनको प्राथमिकता देकर प्राइवेट अस्पतालों में उनका इलाज कराया जाता है, जिस पर लाखों रुपये खर्च किये जाते हैं। लेकिन यही जेलें गरीब लोगों से भरी हुई हैं, जिनमें अनुसूचित जातियों, जनजातियों के लोग और अल्पसंख्यक शामिल हैं, जिन्हें कभी कोई इलाज नहीं मिलता। शायद मैं भी उनमें से ही एक हूं इसलिए मुझे भी इलाज नहीं मिला या शायद वो मुझे ही दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी मानते हैं।

मेरी पत्नी वसंता द्वारा भेजी गयी औषधियां तक मेरे पास पहुंचने नहीं दी जाती थीं। शुरू में बहुत मुश्किल होती थी। फिर मैंने 10 दिनों तक भूख हड़ताल किया। सभी सरकारी विभागों तक यह बात फैल गयी। संयुक्त राष्ट्रसंघ तक यह बात पहुंची। तब जाकर वे दवाएं पहुंचने दी गयीं। वसंता नियमित तौर पर मुझे दवाएं भेजती थीं, फिर भी मुझे 10 दिन- 15 दिन तक बिना दवाओं के रहना पड़ता था। परिवार द्वारा भेजी गयी दवाओं के बावजूद एक दिल के मरीज को भी दस-दस दिन बिना दवाओं के रखा जाता था। यह सब उस व्यक्ति के साथ हो रहा था जिसे आपका, मीडिया का समर्थन प्राप्त था। बेशक आपने इन सभी मुद्दों को उठाया, लेकिन फिर भी वे ऐसा करते रहे। उनके आत्मविश्वास की यह हद है कि वे जेल के भीतर की खबरों को बाहर नहीं आने देंगे। 

एक इंसान के रूप में मैं एक भावुक मुद्दे को आपसे साझा करना चाहता हूं। यह मेरी आखरी बात है, जिसका मैं उल्लेख करना चाहता हूं। 7 वर्षों के अनवरत कारावास और बाहर निकलने के लिए पिछले 3 दिनों के संघर्ष के कारण मैं बहुत थका हुआ महसूस कर रहा हूं। मेरे जेल में रहने के दौरान ही, 1 अगस्त 2020 को मेरी मां का निधन हो गया। मैं बचपन से ही विकलांग था। मेरी मां ने मेरी बहुत ज्यादा देखभाल की। वह मुझे गोद में उठाकर स्कूल ले जाती थी, कि मेरे बच्चे को शिक्षा मिलनी चाहिए। उसके जीवन का यही एकमात्र लक्ष्य था। उसकी मौत से पहले मुझे उससे मिलने से मना कर दिया गया था। उसकी मृत्यु के बाद भी मुझे वहां जाने और उसे देखने के लिए पेरोल नहीं दी गयी। मुझे उसके अंतिम संस्कार में शामिल होने, और अंतिम संस्कार के बाद के अंतिम समारोह में शामिल होने से भी जेल अधिकारियों, जेल विभाग, सरकार और अदालतों द्वारा वंचित कर दिया गया। इस देश में क्या ऐसा कोई अन्य अभियुक्त है, जिसे इस अधिकार से वंचित किया जाता है?

अगर आज मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ा रहा हूं, या 10 साल पहले तक पढ़ा रहा था, तो यह मेरी मां का सपना था, जो एक अनपढ़ ग्रामीण महिला थीं। आज आप देख सकते हैं, और एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में मैं भी देख सकता हूं कि देश भर में सभी गरीब से गरीब महिलाओं, आदिवासी और दलित महिलाओं की बस एक ही चाहत है कि मेरे बच्चे को शिक्षा मिले। भले ही हमें जमीन न मिले, हमें कुछ भी न मिले, लेकिन हम चाहती हैं कि हमारे बच्चे को शिक्षा मिले। यही सपना मेरी मां का भी था। क्या यह जरूरी था कि मां के अंतिम दिनों में भी मैं उसकी सेवा करने लायक नहीं साबित हुआ? उसकी मौत का केवल एक कारण था, कि मुझे इस मामले में फंसाया गया था और बिना तथ्यों के ही मुझे जेल में डाल दिया गया था। अपने आखरी लमहे तक वह बस यही कहती रही कि मुझे देखना चाहती है। वह सबसे मेरे बारे में ही पूछती रही। मुझे देखना ही उसकी एकमात्र इच्छा थी।

देखिए, राज्य लोगों की सेवा के लिए है, उन्हें दंडित करने के लिए और मानवता को कुचलने के लिए नहीं। एक समय था जब मानव प्रजातियों के विकास के इतिहास में सबको एक समाज के रूप में संगठित करने के लिए, उनको सेवाएं प्रदान करने के लिए, मानवता को एक राज्य की आवश्यकता थी, ताकि ऐसा समाज बनाया जा सके जो समस्याओं से मुक्त हो। लेकिन कालान्तर में निश्चित रूप से वही राज्य अब क्रूर और अत्याचारी बन गया है, और उत्पीड़न करने लगा है।

राज्य का निर्माण अव्यवस्था और अराजकता को रोकने के लिए लोगों के बीच एक अनुबंध से होता है, लेकिन वही राज्य आज खुद अव्यवस्था और अराजकता बन गया है और अब यह स्वयं ही मानवता को क्रूरता पूर्वक कुचल रहा है। जिस जेल से मैं अभी बाहर आया हूं, उसे 1500 लोगों के लिए बनाया गया था, लेकिन उसमें आज 3200 लोग ठुंसे पड़े हैं। वे बैठने की जगह के लिए, सोने की जगह के लिए और पीने के पानी तक के लिए आपस में कुत्तों की तरह लड़ रहे हैं। वहां कोई सुविधा नहीं है। वहां बैठने और सोने तक के लिए मात्र 6 फीट की जगह तक हर क़ैदी को उपलब्ध नहीं है।

जब एक कैदी को सोने तक के लिए जगह नहीं है तो वे सोने के लिए आपस में कुत्तों की तरह लड़ते हैं। अमानवीयता की यह हालत है। यह अमानवीयता केवल क़ैदियों के लिए नहीं है। यह अमानवीयता पूरे देश के लिए है। ये अमानवीय और मानवेतर परिस्थितियां हैं, जो इंसानों को आपस में कुत्तों की तरह लड़ने को मजबूर कर देती हैं। मुझे माफ करिएगा, मैं तुम्हारे सामने भावुक हो गया, आप मेरे भाई हैं। आपने मेरे परिवार की मदद किया है। आप भी मेरे परिवार का हिस्सा बन चुके हैं, इसीलिए मैंने यह सब आपके साथ साझा किया। बहुत- बहुत धन्यवाद!

(जीएन साईबाबा के अंग्रेजी प्रेस वार्ता का हिंदी रूपांतरण। यह रूपांतरण शैलेश ने किया।)

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