Sunday, April 28, 2024

शहीद भगत सिंह का लेख: करतार सिंह सराभा की रग-रग में समाया था क्रांति का जज्बा

(शहीद करतार सिंह सराभा वो बहादुर क्रांतिकारी थे, जिनसे शहीद-ए-आज़म भगत सिंह भी हद दर्जे तक मुतास्सिर थे। वे हर दम उनकी तस्वीर अपने पास रखते थे और कहा करते थे, ‘यह मेरा गुरु, साथी व भाई है’। करतार सिंह की शहादत पर भगत सिंह ने उन्हें अपनी ख़िराजे अक़ीदत पेश करते हुए, एक मज़मून भी लिखा। जो उस वक़्त ‘चांद’ के ‘फांसी अंक’ में नवंबर, 1928 में शाया हुआ था। इस अहमतरीन मज़मून से शहीद करतार सिंह सराभा की आला शख़्सियत और उनके इंक़लाबी कारनामों पर रौशनी पड़ती है। क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा के शहादत दिवस पर पेश है, दूसरे अज़ीम क्रांतिकारी भगत सिंह का वह पूरा आलेख..)

रणचंडी के इस परम भक्त, विद्रोही करतार सिंह की आयु अभी 20 वर्ष की भी नहीं हुई थी कि जब उन्होंने स्वतंत्रता देवी की बलिवेदी पर अपना बलिदान दे दिया। आंधी की तरह वह अचानक कहीं से आए, अग्नि प्रज्वलित की और सपनों में पड़ी रणचंडी को जगाने की कोशिश की। विद्रोह का यज्ञ रचा और आख़िर वह स्वयं इसमें भस्म हो गए। वे क्या थे, किस दुनिया से अचानक आए और झट कहां चले गए, हम कुछ भी न जान सके।

19 वर्ष की आयु में ही उन्होंने इतने काम कर दिखाए कि सोच कर हैरानी होती है। इतनी जुरअत, इतना आत्मविश्वास, इतना आत्मत्याग और ऐसी लगन बहुत कम देखने को मिलती है। भारतवर्ष में इन गिने-चुने नेताओं में ऐसे इंसान करतार सिंह का नाम सूची में सबसे ऊपर है। उनकी रग-रग में क्रांति का जज़्बा समाया हुआ था। उनकी जिंदगी का एक ही लक्ष्य, एक ही इच्छा और एक ही आशा, जो भी था-क्रांति थी, इसलिए उन्होंने ज़िंदगी में पांव रखा और आख़िर इसीलिए इस दुनिया से कूच कर गए।

आपका जन्म 1896 में गांव सराभा, जिला लुधियाना में हुआ था। आप माता-पिता के इकलौते बेटे थे। अभी इनकी आयु बहुत कम थी कि पिताजी का देहावसान हो गया। परंतु आपके दादा ने बहुत प्रयत्न से आपको पाला। नवीं कक्षा पढ़ने के बाद आप अपने चाचा के यहां चले गए। वहां उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास की और कॉलेज में पढ़ने लगे। यह 1910-11 के दिन थे। इधर आपको स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम के तंग दायरे से बाहर की बहुत-सी पुस्तक पढ़ने का अवसर मिला।

यह आंदोलन का ज़माना था। इस वातावरण में रहकर आपकी देशप्रेम की भावना पल्लवित हुई। इसके बाद आपकी अमेरिका जाने की इच्छा हुई। घरवालों ने उनका कोई विरोध नहीं किया। आपको अमेरिका भेज दिया गया। सन् 1912 में आप सानफ्रांसिस्को के बंदरगाह पर पहुंचे। आज़ाद देश में पहुंचकर क़दम-क़दम पर आपके कोमल हृदय पर चोट पड़ने लगी। इन गोरों की ज़बान से Damn Hindu (तुच्छ हिंदू) और Black man (काला आदमी) आदि सुनते ही वे पागल हो उठते थे।

उनको क़दम-क़दम पर देश की इज़्ज़त व सम्मान ख़तरे में नज़र आने लगा। घर की याद आने पर ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ विवश भारत सामने आ जाता। उनका कोमल दिल धीरे-धीरे सख़्त होने लगा और देश की आज़ादी के लिए ज़िंदगी क़ुर्बान करने का निश्चय दृढ़ होता गया। उनके दिल पर उस समय क्या गुज़रती थी, यह हम कैसे समझ सकते हैं?

यह असंभव था कि वे चैन से रह पाते। हर समय उनके सामने यह प्रश्न उठने लगा कि यदि शांति से काम न चला तो देश आज़ाद किस तरह होगा? फिर बिना अधिक सोचे उन्होंने भारतीय मज़दूरों का संगठन शुरू कर दिया। उनमें आज़ादी की भावना उभरने लगी। हर मज़दूर के पास घंटों बैठकर वे समझाने लगे कि अपमान से भरी ग़ुलामी की जिंदगी से तो मौत हज़ार दर्जा अच्छी है। काम शुरू होने पर और लोग भी उनसे आ मिले। मई, 1912 में इन लोगों की एक ख़ास बैठक हुई। इसमें कुछ चुनिंदा हिंदुस्तानी शामिल हुए।

सभी ने देश की आज़ादी के लिए तन, मन, धन न्योछावर करने का प्रण लिया। इन्हीं दिनों पंजाब के जलावतन देशभक्त भगवानसिंह वहां पहुंचे। धड़ाधड़ जलसे होने लगे, उपदेश होने लगे। काम से काम चलता गया। मैदान तैयार हो गया। फिर अख़बार की ज़रूरत महसूस होने लगी। ‘ग़दर’ नामक अख़बार निकाला गया। इसका प्रथम अंक नवंबर, 1913 में निकाला गया। इसके संपादकीय विभाग में करतार सिंह भी थे। आपकी क़लम में अथाह जोश था। संपादकीय विभाग के लोग अख़बार को हैंड प्रेस पर छापते थे। करतार सिंह क्रांति-पसंद मतवाले नौजवान थे। प्रेस चलाते हुए थक जाने पर वे गीत गाया करते थे-

सेवा देश दी जिंदड़िए बड़ी औखी,

गल्लां करनीआं ढेर सुखल्लीयां ने।

जिन्ना देशसेवा विच पैर पाया

उन्नां लक्ख मुसीबतां झल्लियांने।

(देश-सेवा करनी बहुत मुश्किल है, जबकि बातें करना बहुत आसान है। जिन्होंने देश-सेवा के रास्ते पर कदम उठा लिया वे लाख मुसीबतें झेलते हैं।)

करतार सिंह जिस लगन से परिश्रम करते थे, उससे सभी की हिम्मत बढ़ जाती थी। भारत को किस तरह आज़ाद कराया जाए, यह किसी और को पता चले या नहीं, और किसी ने इस सवाल पर सोचा हो या नहीं, लेकिन करतार सिंह ने इस सवाल पर बहुत कुछ सोच रखा था। इसी दौरान आप न्यूयॉर्क में विमान कंपनी में भर्ती हो गए और वहीं दिल लगाकर काम सीखने लगे। सितंबर, 1914 में कामागाटामारू जहाज को अत्याचारी गोरे साम्राज्यवादियों के हाथ से अवर्णनीय यातनाएं झेलने पर वैसे ही लौटना पड़ा।

तब हमारे करतार सिंह क्रांतिप्रिय गुप्ता और एक अमेरिकी अराजकतावादी जैक को साथ लेकर जापान आए और कोबे में बाबा गुरदित्त सिंह जी से मिलकर सब बातचीत की। युगांतर आश्रम, सानफ्रांसिस्को के ग़दर प्रेस में ‘ग़दर’ और ‘ग़दर की गूंज’ और अन्य बहुत-सी पुस्तकें छापकर बांटी जाती रहीं। दिनों दिन प्रचार बढ़ता गया। जोश बढ़ता गया।

फरवरी, 1914 में स्टाकटन के पब्लिक जलसे में आज़ादी का झंडा लहराया गया और आज़ादी और बराबरी के नाम पर क़समें खाई गई। इस जलसे के मुख्य वक्ताओं में करतार सिंह भी थे। सभी ने घोषणा की कि वह अपने ख़ून-पसीने की कमाई एक कर देश की आज़ादी के संघर्ष में लगा देंगे। इसी तरह दिन गुज़रते रहे। अचानक यूरोप में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने की ख़बर आई। वे ख़ुशी से फूले नहीं समाते थे। एकदम सभी गाने लगे,

चलो चलें देश के लिए युद्ध करने

यही आख़िरी वचन व फरमान हो गए।

करतार सिंह ने देश लौटने का ज़ोरों से प्रचार किया। फिर स्वयं जहाज़ पर सवार होकर कोलंबो (श्रीलंका) पहुंच गए। इन दिनों अमेरिका से पंजाब आने वाले प्रायः ‘डिफ़ेंस ऑफ इंडिया कानून’ (डीआईआर) की पकड़ में आ जाते थे। बहुत कम सही-सलामत पहुंच पाते थे। करतार सिंह सही-सलामत आ गए। बड़े ज़ोरों से काम शुरू हुआ। संगठन की कमी थी, लेकिन किसी तरह वह पूरी की गई।

दिसंबर, 1914 में मराठा नौजवान विष्णु गणेश पिंगले भी आ गए। इनकी कोशिश से शचीन्द्रनाथ सान्याल और रासबिहारी पंजाब आए। करतार सिंह हर समय हर जगह पहुंचते। आज मोगा में गुप्त मीटिंग है, आप वहां भी हैं। कल लाहौर के विद्यार्थियों में प्रचार हो रहा है, आप फिर प्रथम पंक्ति में हैं। अगले दिन फ़िरोज़पुर छावनी के सैनिकों से गठजोड़ हो रहा है। फिर हथियारों के लिए कलकत्ता जा रहे हैं। रुपये की कमी का प्रश्न उठने पर आपने डाका डालने की सलाह दी। डकैती का नाम सुनते ही बहुत-से लोग स्तंभित रह गए, लेकिन आपने कह दिया कि,

 “कोई भय नहीं है। भाई परमानंद भी डकैती से सहमत हैं। उनसे पुष्टि करवाने की ज़िम्मेदारी आप पर डाली गई।”

अगले दिन बगैर उनसे मिले ही कह दिया,

“पूछ आया हूं, वे सहमत हैं। वे यह सहन नहीं कर सकते थे कि केवल रुपये की कमी से विद्रोह की तैयारी में देरी हो।”

एक दिन वे डकैती डालने एक गांव गए। करतार सिंह नेता थे। डकैती चल रही थी। घर में एक बेहद ख़ूबसूरत लड़की भी थी। उसे देखकर एक पापी आत्मा का मन डोल गया। उसने ज़बरदस्ती लड़की का हाथ पकड़ लिया। लड़की ने घबराकर शोर मचा दिया। करतार सिंह एकदम रिवॉल्वर तानकर उसके नज़दीक पहुंच गए और उस आदमी के माथे पर पिस्तौल रखकर उसे निहत्था कर दिया। फिर कड़ककर बोले,

“पापी! तेरा अपराध बहुत गंभीर है। तुम्हें सज़ा-ए-मौत मिलनी चाहिए, लेकिन हालात की मजबूरी से तुम्हें माफ़ किया जाता है। फ़ौरन इस लड़की के पांवों में गिरकर माफ़ी मांग कि हे बहन! मुझे माफ़ कर दो। और फिर इसकी माता जी के पैर छूकर कह कि माता जी, मैं इस पतन के लिए माफ़ी चाहता हूं। यदि वे तुम्हें माफ़ कर दें, तो तुम्हें ज़िंदा छोड़ दिया जाएगा। वरना गोली से उड़ा दिया जाएगा।”

उसने ऐसा ही किया। बात अभी ज़्यादा नहीं बढ़ी थी। यह देखकर मां-बेटी की आंखें भर आईं! मां ने करतार सिंह को प्यार भरे लहजे में कहा, “बेटा! ऐसे धर्मात्मा और सुशील नौजवान होकर आप इस काम में किस तरह शामिल हुए?”

करतार सिंह का भी दिल भर आया और कहा,

”मां जी! रुपये के लालच में हमने यह काम शुरू नहीं किया। अपना सब कुछ दांव पर लगाकर डकैती डालने आए हैं। हथियार खरीदने के लिए रुपये की ज़रूरत है। वह कहां से लाएं? मां जी, इसी महान काम के लिए आज इस काम पर मजबूर हुए हैं।”

इस समय पर यह दृश्य बड़ा दर्दनाक था। मां ने फिर कहा,

 “इस लड़की की शादी करनी है। इसके लिए कुछ छोड़ जाओ तो अच्छा है।”

इसके बाद उन्होंने अपना सारा धन मां के सामने रख दिया और कहा, “जितना चाहें ले लें।”

कुछ पैसा रखकर, मां ने बाक़ी सारा रुपया करतार सिंह की झोली में डाल दिया और आशीर्वाद दिया,

 “जाओ बेटा, तुम्हें सफलता मिले।”

डकैती जैसे भयानक काम में शामिल होकर भी करतार सिंह का दिल कितना भावनामय, पवित्र व विशाल था, यह इस घटना से ज़ाहिर है। फरवरी, 1915 में विद्रोह की तैयारी थी। पहले सप्ताह आप पिंगले और दूसरे दो-तीन साथियों के साथ आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ व अन्य कई स्थानों पर गए और विद्रोह के लिए उनसे मेल-मिलाप कर आए। आख़िर वह दिन क़रीब आने लगा, जिसका बड़ी देर से इंतज़ार हो रहा था।

21 फरवरी, 1915 भारत में विद्रोह का दिन नियत हुआ था। इसी के अनुसार तैयारी हो रही थी, लेकिन इसी समय उनकी आशाओं के वृक्ष की जड़ में बैठा एक चूहा उसे कुतर रहा था। चार-पांच दिन पहले संदेह हुआ कि किरपाल सिंह की ग़द्दारी से सब ध्वस्त हो जाएगा। इसी आशंका से करतार सिंह ने रासबिहारी बोस से विद्रोह की तारीख़ 21 की बजाय 19 फरवरी करने के लिए कहा।

ऐसा होने पर भी इसकी भनक किरपाल सिंह को मिल गई। इस क्रांतिकारी दल में एक ग़द्दार का होना कितने ख़तरनाक परिणाम का कारण बना। रासबिहारी और करतार सिंह भी कोई उचित प्रबंध नहीं होने से अपना भेद छिपा नहीं पाए। इसका कारण भारत के दुर्भाग्य के सिवाय और क्या हो सकता है?

करतार सिंह पिछले फ़ैसले के अनुसार पचास-साठ साथियों के साथ फ़िरोज़पुर जा पहुंचे। अपने साथी सैनिक हवलदार से मिले और विद्रोह की बात की। लेकिन किरपाल सिंह ने तो पहले ही सारा मामला बिगाड़ दिया था। हिंदुस्तानी सिपाही निहत्थे कर दिए गए। धड़ाधड़ गिरफ़्तारियां होने लगीं। हवलदार ने सहायता करने से इंकार कर दिया। करतार सिंह की कोशिश असफल रही। निराश हो वो लाहौर आए।

पंजाब-भर में गिरफ़्तारियों का चक्कर तेज़ हो गया। अब साथी भी टूटने लगे। ऐसी स्थिति में रासबिहारी बोस मायूस होकर लाहौर के एक मकान में लेटे हुए थे। करतार सिंह भी वहीं आकर एक चारपाई पर दूसरी ओर मुंह फेर लेट गए। परस्पर कोई बात नहीं की, लेकिन चुपचाप ही एक-दूसरे के दिल की हालत समझ गए। इनकी हालत का अनुमान हम क्या लगा सकते हैं?

दरे-तदवीर पर सर फोड़ना शेवः रहा अपना

वसीले हाथ ही ना आए किस्मत आज़माई के

(हमारा काम भाग्य के दर पर सर फोड़ना ही रहा, लेकिन भाग्य आज़माने के साधन ही हाथ नहीं आए।)

उनकी तो यही ख़्वाहिश थी कि कहीं लड़ाई हो और वे अपने देश के लिए लड़ते-लड़ते प्राण दे दें। फिर सरगोधा के नज़दीक चक्क नंबर पांच में आ गए। फिर विद्रोह की चर्चा छेड़ दी। वहां पकड़े गए। ज़ंजीरों में जकड़े गए। निर्भीक विद्रोही करतार सिंह को लाहौर स्टेशन पर लाया गया। पुलिस कप्तान से कहा,

“मिस्टर टॉमकिन, कुछ ख़ाना तो लाइए।”

वह कितना मस्तमौला था। गिरफ़्तारी के समय वे बहुत ख़ुश थे। प्रायः कहा करते थे,

“वीरता और हिम्मत से मरने पर मुझे विद्रोही की उपाधि देना। कोई याद करे तो विद्रोही करतार सिंह कहकर याद करे।”

मुक़दमा चला। उस समय करतार सिंह की आयु कुल साढ़े अठारह वर्ष थी। सबसे कम आयु के अपराधी आप ही थे लेकिन जज ने इनके संबंध में यह लिखा,

“वह इन अपराधियों में, सबसे ख़तरनाक अपराधियों में एक है। अमेरिका की यात्रा के दौरान और फिर भारत में इस षड्यंत्र का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जिसमें उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका न निभाई हो।”

एक दिन आपके बयान देने की बारी आई। आपने सब कुछ मान लिया। आप क्रांतिकारी बयान देते रहे। जज कलम दांतों के नीचे दबाए देखता रहा। एक शब्द न लिखा। बाद में इतना कहा,

“करतार सिंह, अभी आपका बयान लिखा नहीं गया। आप सोच-समझ कर बयान दें। आप जानते हैं कि आपके बयान का क्या परिणाम हो सकता है?”

देखने वाले कहते हैं कि जज के इन शब्दों पर करतार सिंह ने बड़ी मस्तानी अदा से केवल इतना कहा,

“फांसी ही तो चढ़ा देंगे, और क्या? हम इससे नहीं डरते।”

इस दिन अदालत की कार्रवाई समाप्त हो गई। अगले दिन फिर करतार सिंह का अदालत में बयान शुरू हुआ। पहले दिन जजों का कुछ ऐसा विचार था कि करतार सिंह भाई परमानंद के इशारे पर ऐसा बयान दें रहे हैं, लेकिन वह विद्रोही करतार सिंह के दिल की गहराइयों में नहीं उतर सकते थे। करतार सिंह का बयान अधिक ज़ोरदार, अधिक जोशीला और पहले दिन की तरह ही इक़बालिया था। आख़िर में आपने कहा,

“अपराध के लिए मुझे उम्रकैद की सज़ा मिलेगी या फांसी। लेकिन मैं फांसी को प्राथमिकता दूंगा। ताकि फिर जन्म लेकर–जब तक हिंदुस्तान आज़ाद नहीं हो, तब तक बार-बार जन्म लेकर फांसी पर लटकता रहूंगा। यही मेरी अंतिम इच्छा है।”

आपकी वीरता से जज बहुत प्रभावित हुए, लेकिन उन्होंने विशाल दिलवाले दुश्मन की तरह आपकी वीरता को वीरता न कहकर बेशर्मी के शब्दों में याद किया। करतार सिंह को सिर्फ़ गालियां ही नहीं, मौत की सज़ा भी मिली। आपने मुस्कराते हुए जजों को धन्यवाद दिया। करतार सिंह फांसी की कोठरी में क़ैद थे। आपके दादा ने आकर कहा,

“करतार सिंह, जिनके लिए मर रहे हो, वे तुम्हें गालियां देते हैं। तुम्हारे मरने से देश को कुछ लाभ होगा, ऐसा भी दिखाई नहीं देता।”

 करतार सिंह ने बहुत धीमे से पूछा,

 “दादा जी, फलां रिश्तेदार कहां है?”

“प्लेग से मर गया।”

“फलां कहां है?”

“हैजे से मर गया।”

“तो क्या आप चाहते हैं कि करतार सिंह महीनों बिस्तर पर पड़ा रहे और पीड़ा से दुखी किसी रोग से मरे! क्या उस मौत से यह मौत हज़ार गुना अच्छी नहीं?”

दादा चुप हो गए। आज फिर सवाल उठता है कि उनके मरने से क्या लाभ हुआ? वह किसलिए मरे? इसका जवाब बिलकुल स्पष्ट है। देश के लिए मरे। उनका आदर्श ही देश सेवा के लिए लड़ते हुए मरना था। वे इससे ज़्यादा कुछ नहीं चाहते थे।

चमन-ज़ार-ए-मोहब्ब्बत में उसी ने बाग़बानी की

कि जिस ने अपनी मेहनत को ही मेहनत का समर जाना।

नहीं होता है मुहताज-ए-नुमाइश फ़ैज़ शबनम का

अंधेरी रात में मोती लुटा जाती है गुलशन में।

डेढ़ साल तक मुक़दमा चला। 16 नवंबर, 1915 का दिन था, जब उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। उस दिन भी वे हमेशा की तरह ख़ुश थे। इनका वज़न दस पौंड बढ़ गया था। ‘भारत माता की जय’ कहते हुए वे फांसी के तख़्ते पर झूल गए।

(शहीद भगत सिंह का लेख, प्रस्तुति- ज़ाहिद ख़ान)

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