Saturday, April 27, 2024

लंदन यात्रा: लोकतंत्र में प्रधानमंत्रियों के ठिकानों की अपनी अपनी अदाएं !

“भय मुक्त होकर राजसत्ता से सत्य कहो। डरो नहीं।” देश में विदेशी सत्ता के विरुद्ध भारतीयों के लिए यह सन्देश महात्मा गांधी का था। लेकिन, आज ये चंद शब्द मेरे कानों में उस अश्वेत के गूंज रहे हैं जिन्हें वह लंदन में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के सरकारी निवास स्थान- 10 डाउनिंग स्ट्रीट पर लाउड स्पीकर लगाकर बुलंद आवाज़ में सत्ताधीशों को सुना रहा था। उसके लम्बे लम्बे वाक्यों में क्राइस्ट, गांधी, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला जैसे प्रतिरोध के प्रतीक पुंज नाम भी बीच बीच में गुंजित होते रहते थे। वह ब्लैक चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था “speak up truth to the power, do’t terrorise the poor, apply wisdom… “।

सुरक्षा का कोई झमेला नहीं था। सुरक्षा के लिए पुलिस का कोई भव्य तामझाम नहीं था। लोगबाग आ-जा रहे थे। वाहनों का शोर शराबा था… और प्रधानमंत्री निवास खामोश था। उनके सामान्य दरवाज़े के सामने चंदेक पुलिसवाले ज़रूर मौज़ूद थे। वे आपसी गपशप में मशगूल थे, बग़ैर इसकी परवाह किये कि ब्लैक और दूसरे लोग क्या बोल रहे हैं। कुछ भीड़ ज़मा है। कुछ दूरी पर एक-दो पुलिस -कारें स्थाई भाव से ज़रूर तैनात हैं। लेकिन ब्लैक और दूसरों की आवाज़ को दबा कोई नहीं रहा है। सब कुछ सामान्य गति चल रहा है।

यह दृश्य 11 अगस्त, 2023 का है। मैं इसे देख कर अचम्भित हूं। मैं लन्दन या विकसित देशों का नागरिक नहीं हूं। मैं ठहरा ठेठ दिल्ली निवासी जिसे आये-दिन वीवीआईपी (अति विशिष्टजन) यानी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि की आवा-गमन सुविधा के लिए ट्रैफिक जाम को बरबस झेलना पड़ता है। जब भारतीय प्रधानमंत्री के निवास के तामझाम की तरफ ध्यान जाता है तब सत्ता की सिरहन मेरे नागरिक अस्तित्व को झकझोरने लगती है।

भारतीय गणराज्य के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति के भव्य भवन की तरफ ‘मैं आम नागरिक’ झांक भी नहीं सकता। अब तो उसके परिसर के गलियारों से गुजर भी नहीं सकता। बहूत दूर से ही आम नागरिक को रोक लिया जाता है। एक वक़्त था जब उसके परिसर से आम लोग और उनके वाहन गुजरा करते थे। दिल्ली में प्रधानमन्त्री -निवास के सामने से जाने वाला मार्ग किसी समय 7 रेस कोर्स रोड के रूप में प्रसिद्ध था। अब यह ‘लोक कल्याण मार्ग’ के नाम से जाना जाता है। जब आम नागरिक इस मार्ग से गुजरता है तब उसका सामना प्रधानमंत्री की सुरक्षा बंदोबस्त की आक्रांत करने वाली भव्यता से होता है। रास्ते भर विशेष सुरक्षा दस्ते तैनात मिलेंगे। ऊंची निगरानी- चौकी दिखाई देगी। अनेक सुरक्षा घेरों में बंद प्रधानमंत्री का मूल निवास होगा।

हैरत तो तब होती है जब संसद, विधायक, राज्यपाल, महापौर, नगर पार्षद जैसे जनप्रतिनिधि भी अंगरक्षकों से घिरे दिखाई देते हैं। अब तो इस शान के अपवाद सरपंच भी नहीं रहे। वे भी शहरी विशिष्ट नेताओं के विद्रूप बनने लगे हैं। अपनी कारों पर झंडे लगाने लगे हैं। भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया के देशों के सत्ताधीशों का यह आम चरित्र है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका जैसे देशों की राजधानियों के निजी अनुभव हैं। वहां के शासकों की जीवन शैली भी भारतीयों से अलहदा नहीं है। इसके विपरीत विकसित पूंजीवादी देशों के शासकों का व्यवहार या उनकी जीवन शैली भिन्न है। वे निर्वाचित ओहदे को अपने सर पर बैठा कर नहीं रखते हैं। अपने पद से हटने के बाद वे आम नागरिक हो जाते हैं। अपने पुराने व्यवसाय पर लौट जाते हैं। उन्हें आम आदमी के समान बाज़ार से खरीद दारी करते हुए, सिनेमा हाल में पिक्चर देखते हुए, सड़कों पर वाहन चलाते हुए देखा जा सकता है।

इस स्थल पर मुझे 1985 की यात्रा की एक मीडिया घटना याद आ रही है। अकसर हमारे अखबार और चैनल नेताओं के भाषणों से भरे रहते हैं। भारत में विदेशी विशिष्टजनों की यात्राएं प्रथम पृष्ठ पर रहती हैं। हमें यह भी विश्वास दिलाया जाता है कि जब भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य कोई मंत्री लंदन, पेरिस, वाशिंगटन की यात्राएं करते हैं तो वे वहां के मीडिया की सुर्ख़ियों में होते हैं। मेरे अनुभव ऐसे नहीं हैं। यह नितांत भ्रम है। हुआ यह कि 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की राजकीय यात्रा की प्रेस पार्टी के सदस्य के रूप में लंदन गया हुआ था। हमारे विमान को विशिष्टजनों के एयरपोर्ट पर उतारा गया। राजीव गांधी की अगवानी के लिए पहुंची उस समय की प्रधानमंत्री मैगी थैचर अपने दो पालतू श्वानों के साथ अठखेलियां कर रहीं थीं।

हम लोग विमान की खिड़की में से देख रहे थे। विमान से नीचे उतरने के लिए अभी सीढ़ियां नहीं लगी थीं, कुछ तकनीकी झमेला था। खैर, दस मिनट के बाद राजीव गांधी विमान से उतरे। तब तक श्रीमती थैचर अपने श्वानों से लाड़ -प्यार जताती रहीं। मैंने सोचा था कि अगले दिन लंदन के दैनिकों में राजीव-मैगी स्वागत जोरदार ढंग से छाया रहेगा क्योंकि दिमाग में दिल्ली के अखबारों का कवरेज जो मौजूद था। पर लन्दन के अखबारों में ऐसा कुछ नहीं था। लेकिन, था ज़रूर दैनिकों के मुख्य पृष्ठों पर और वह था ‘मैगी -श्वान दुलार’ दृश्य। इस संबंध में मैंने स्थानीय लोगों से अपनी उत्सुकता ज़ाहिर की।

उन लोगों की दृष्टि में श्वान के साथ प्रधानमंत्री का खेलना एक महत्वपूर्ण घटना है। राष्ट्राध्यक्षों -शासनाध्यक्षों का स्वागत और मैगी थैचर के भाषण सामान्य घटना है। इसलिए स्वागत -अवसर सुर्ख़ियों में नहीं था। यही दृश्य न्यूयोर्क, पेरिस आदि में देखने को मिला। हमारे यहां का मीडिया ‘नेता उपासक’ रहता है क्योंकि वह राजसत्ता का प्रतीक है। यह मानसिकता हम लोगों को ‘प्रजा मानसिकता’से चिपकाये रखती है, और एक स्वतंत्र देश के चेतनशील व लोकतांत्रिक नागरिक बनने के मार्ग में चट्टान बन कर हमेशा खड़ी रहती है।

अलबत्ता, किसी बड़े चिंतक ने यह कहा था कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली जैसे विकसित पूंजीवादी देशों के शासकों का लोकतांत्रिक चाल -चलन -चेहरा अपने देशों की सरहदों तक ही सीमित रहता है। पिछड़े व अर्धविकसित देशों के साथ उनका रवैया नितांत भिन्न है; वह साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, वर्चस्ववादी,अधिनायकवादी रहता है। वे एशिया, अफ्रीका और लातिन देशों को अपनी ध्रुव सत्ता के अधीन ही देखना पसंद करते हैं। दूसरे शब्दों में, पूंजीवादी देशों के शासकों की लोकतांत्रिकता सार्विक नहीं है। वह चरमराष्ट्रवादी और असमानता व विषमतावादी है।

लेकिन पिछड़े देशों के शासक अपने ही नागरिकों के साथ लोकतांत्रिक व्यवहार के पाबन्द नहीं हैं। उनका व्यवहार उपनिवेशी शासकों की शैली में सना हुआ रहता है। जनता का प्रतिनिधि होने के बावजूद जनता से दूर ‘सुरक्षा घेरे’ से जनता के साथ संवाद करना एक विकसित लोकतंत्र का प्रतीक नहीं हो सकता। भारत समेत पिछड़े देशों के शासकों में लोकतंत्र के चोले में राजसी काया की बास उठती-सी लगती है।

मैं वापस ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के निवास स्थान-10 डाउनिंग स्ट्रीट पर लौटता हूं। ब्लैक को देख कर मुझमें बैठा भूला-बिसरा एक्टिविस्ट जाग उठता है। मैं भी उसके साथ अपना हाथ ऊंचा करके सुर-में-सुर मिलाता हूं : स्पीक अप ट्रुथ टू द पावर। मैं यह भूल जाता हूं कि लंदन में मैं एक पर्यटक के रूप में हूं। पत्नी मधु और पुत्री मनस्विता मुझे रोकती हैं। लेकिन, मैं सत्ता से प्रतिरोध की आवाज़ को गुंजित करके ही रहता हूं। पास खड़े कुछ लोग भी ऐसा ही करते हैं।

इस अवसर पर एक दिलचस्प घटना याद आ गयी। यह वाक़्या 1989 की यात्रा का है। मैं उपराष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा की यात्रा को कवर करने के लिए लंदन गया हुआ था। एक रोज़ तत्कालीन राजकुमार प्रिन्स चार्ल्स के साथ भोज में हम पत्रकार निमंत्रित थे। लेकिन, एक शर्त के साथ कि आगंतुक थ्री पीस सूट-बूट में आएंगे। मेरे पास सामान्य या कैसुअल गर्म वस्त्र थे। मैंने जीवन में टाई कभी नहीं लगाई। बचपन में ज़रूर नैक टाई लगाई थी। अब प्रिंस चार्ल्स के साथ भोज के लिए टाई बांधू, मुझे नामंजूर है। वैसे साथी पत्रकार और होटल मैनेजर मेरे लिए टाई की व्यवस्था भी कर रहे थे। साथी पत्रकारों ने काफी समझाया और इस दुर्लभ अवसर को नहीं गंवाने के लिए कहते रहे।

उपराष्ट्रपति के निजी सचिव एसएस सोहनी ने कुछ नाराज़गी भी ज़ाहिर की। मुझे बतलाया गया कि प्रिंस के साथ भोज के लिए अग्रिम बुकिंग की जाती है। एक एक अतिथि सौ -सौ पाउंड तक खर्च करता है। मेरा सबको सिर्फ इतना ही कहना था, ‘जब एक अर्धनग्न फ़क़ीर अपने देसी वस्त्रों में 1930 में गोलमेज़ सम्मलेन में शामिल हो कर देश को आज़ाद करा सकता है, तब मैं राजभोज को तो छोड़ ही सकता हूं।’ अपने राम फिर किसी ढाबे में पहुंचे और दस -पंद्रह पाउंड देकर ठेठ देसी ‘तंदूरी भोज’ जमाया। मुझे लौटने पर एक ही वाक्य सुनने को मिला, ‘जोशी, आपने एक ऐतिहासिक अवसर को खो दिया। चार्ल्स ब्रिटेन के भावी किंग हैं।’ वर्तमान में चार्ल्स इंग्लैंड के ‘किंग’ हैं।

मुझे याद आये शिकागो के प्रदर्शन के दृश्य। हुआ यह था कि 2022 में मैं शिकागो -यात्रा पर था। छोटी पुत्री त्रीना साथ थी। उस रोज़ शिकागो के मुख्य मार्गों से हिज़ाब और ईरान की धार्मिक तानाशाही के विरुद्ध जुलूस निकल रहा था। हज़ारों प्रतिरोधी जुलूस में थे। मैं खुद को रोक नहीं सका और कुछ दूर उसमें शामिल हो गया। मेरी दृष्टि में, अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध प्रतिरोध और न्याय व सत्य की हिमायत में आवाज़ सार्विक होती हैं, और स्थानीयता या राष्ट्रीयता से आज़ाद रहती हैं।

पिछले दिनों फिलस्तीनियों पर इजराइल के हिंसक जुल्म के विरुद्ध आवाज़ें दुनिया भर में गूंजी। भारत को छोड़ कर। इस विश्वव्यापी प्रतिरोध में मानवता की रक्षा की अंतर्धारा बह रही थी जिसे राष्ट्रों की सरहदों से बांधा नहीं जा सकता। इसी भावना से मैं उस दुबली-पतली अश्वेत काया के साथ ताल -से-ताल मिलाने लगा था। परिणाम की चिंता किये बगैर। यदि दिल्ली में ऐसा किया होता तो मैं सींखचों के पीछे होता। पहली बात तो यह है कि मैं मुख्य प्रधानमंत्री निवास पहुंच ही नहीं पाता। इतना ही नहीं, लोक कल्याण मार्ग के किसी चौराहे पर भी कोई नारा लगाता तो भी पुलिस द्वारा धर लिया जाता। प्रधानमंत्री की बात छोड़िए, किसी राज्यपाल या मुख्यमंत्री के निवास पर भी पहुंचना माउंट एवेरेस्ट पर चढ़ने के समान है। एक समय था जब दिल्ली में प्रधानमंत्री के निवास के ठीक सामने से बसें जाया करती थीं। आम नागरिक गुजरा करते थे। वह दौर पांचवें, छठे, सातवें और आठवें दशक का था। तब प्रधानमंत्री थे नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी। लेकिन, अब वैसे दौर का लौटना नामुमकिन है।

(अलबत्ता 10 डाउनिंग स्ट्रीट पर खड़े खड़े मुझमें गर्व करवटें लेने लगा। एक वक़्त था जब श्वेत शासक हम हि न्दुस्तानियों को हुकूमत के लिए नाकारा समझा करते थे। श्वेत नस्ल रंगभेद की उपासक थी। एशिया, अफ्रीका, लातिनी जनजातियों को ‘ वाइट मेनस बर्डन’ माना जाता था। श्वेत शासक मानकर चलते थे कि इस धरा पर वे ही सर्वश्रेष्ठ नस्ल हैं। रंग नस्ल की मानवता उन पर एक बोझ है। श्वेत लोग ही दीगर नस्ल के लोगों को सभ्य, सुसंस्क़ृत और विकसित करेंगे।

श्वेत जाति का यह अंहकार नया नहीं है। इसे 16 वीं सदी के अंग्रेजी साहित्य में भी देखा जा सकता है। विश्व प्रसिद्ध नाट्यकार विलियम शेक्सपियर का एक नाटक है: टेम्पेस्ट। इस नाटक का कथानक नस्ली दम्भ और साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों की नुमाईश है। नाटक का मुख्यपात्र प्रोस्पेरो एक टापू में पहुंच कर वहां के निवासियों पर शासन करने की कोशिश करता है। स्थानीय निवासी कैलिबान प्रोस्पेरो को ललकारता है और कहता है कि क्या तुम मुझे गुलाम बना कर सभ्य बनाना चाहते हो? तुम मेरी संस्कृति को दोयम दर्ज़े की समझते हो? उसे नष्ट करना चाहते हो? इसी दंभ से लैस हो कर इटली का नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस पन्द्रवीं सदी में भारत को खोजने के लिए निकला अमेरिका पहुंचा था। वहां पहुंच कर मूलनिवासियों, जिन्हें आमतौर पर ‘रेड इंडियन’ के नास से जाना जाता है, को ईसाई धर्म के माध्यम से सभ्य बनाने की कोशिश में उन्हें भविष्य में साम्राज्यवादी योजना का शिकार बना डालता है। स्पेन और अन्य श्वेत देश वहां की संस्कृति और प्राकृतिक सम्पदा पर चौतरफा डाका मारते हैं।

श्वेतों का यही सिलसिला ऑस्ट्रेलियान, न्यूजीलैंड, एशिया, अफ्रीका में चलता है। श्वेतों का 18 वीं और 19 वीं सदी में ‘दास व्यापार’ चरम पर होता है। बीसवीं सदी में भी स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और अन्य नस्ली मानवता को निम्न या दो पैरों वाला जानवर समझा जाता था। इस सदी में भी आस्ट्रेलिया के श्वेत शासक वहां के मूलनिवासियों को दोयम दर्ज़े के इंसान समझते हैं। उनकी ज़मीन पर ज़मे हुए हैं, लेकिन उन्हें ‘फर्स्ट नेशन’ का दर्ज़ा देने के लिए तैयार नहीं हैं। पिछले दशकों में वहां के मूलनिवासियों पर अख़बार पढ़ने और रेडियो सुनने पर भी पाबंदियां थीं। हमारे पूर्व शासकों को ही ले लें। ब्रिटेन के तेज-तर्रार पूर्व प्रधानमंत्री विंन्स्टन चर्चिल महात्मा गांधी समेत भारतीयों की खिल्ली उड़ाया करते थे। भारतीयों को शासन के ‘नाकाबिल’ समझते थे। वक़्त की विडंबना देखिये, आज़ वही मूल अश्वेत नस्ल का ऋषि सुनक पूर्व साम्राज्यवादी शासक देश ब्रिटेन का प्रधानमंत्री है। अब कब्र में चर्चिल की आत्मा श्वेत ब्रिटेनवासियों को धिक्कार रही होगी या प्रशंसा कर रही होगी, मैं नहीं जानता। लेकिन मैं श्वेतों के लोकतान्त्रिक परिवर्तन व उदारता की प्रशंसा ज़रूर करूंगा।

हम भारत में आज भी सोनिया गांधी को ‘इटली’ से नत्थी करके उनकी और उनकी संतानों की हंसी उड़ाते हैं। हम कितने सिकुड़ते जा रहे हैं। सभ्यता की दृष्टि से हमारा कितना ‘बौनीकरण’ होता जा रहा है। यह भय में लिपटी चिंता है। यध्यपि, प्रधानमंत्री सुनक का परिवार बज़रिये अफ्रीका होते हुए इंग्लैंड पहुंचा था। लेकिन, वर्तमान में उनकी पहचान ‘भारतीय मूल’ की ही है। यह किसी भी भारतीय के लिए गर्व की बात है कि ऐतिहासिक नस्ली पूर्वाग्रहों की पृष्ठभूमि के बावजूद अश्वेत नस्ल का प्रतिनिधि ऐसे श्वेत देश का शासक है जिसके साम्राज्य में अस्त होना सूरज ने कभी नहीं जाना था। पाकिस्तानी मूल का व्यक्ति भी लंदन का ‘मेयर’ रह चुका है। इस सदी में इस उपलब्धि के गर्व की एक लहर दौड़ जाती है मन-मस्तिष्क में। मैं इस अनुभूति के साथ आगे चल पड़ता हूं।)

मैंने यह भी देखा कि 10 -डाउनिंग स्ट्रीट से कुछ दूर चौराहे पर एक अधेड़ नागरिक ने अपने शरीर के आगे-पीछे पोस्टर बांध रखे हैं। पोस्टरों पर प्लास्टिक विरोधी नारे लिखे हुए हैं। हाथों में भी प्लास्टिक विरोधी झण्डे हैं। पर्चे भी उसकी जेबों में ठुसे हुए हैं। यह श्वेत व्यक्ति लोगों को प्लास्टिक के वर्तमान और भावी खतरों के प्रति सचेत कर रहा था। लोग उसे बड़े ध्यान से सुन भी रहे थे। पूछने पर उसने बताया कि वह रोज़ाना सेंट्रल लंदन के विभिन्न इलाकों के चौराहों पर खड़े हो कर प्लास्टिक के गंभीर खतरों से लोगों को आगाह करता हूं। साहित्य वितरित करता हूं। मानव सभ्यता के लिए प्लास्टिक खतरनाक है। उसकी तख्तियों पर लिखा हुआ था : प्लास्टिक मनुष्य का शत्रु है,ध्यान रखें, 100% पॉलिएस्टर 100% लैंडफिल, प्लास्टिक बेकाबू हो चुका है, प्लास्टिक के साथ जीने की कीमत प्रदूषण- संकट है।’

सेंट्रल लंदन, लंदन का हृदय स्थल है। चार-पांच किलो मीटर के दायरे में पिकाडिली सर्कस, ट्राफलगर स्क्वायर, ब्रिटिश म्यूजियम, मार्क्स मेमोरियल, वेस्टमिनिस्टर, पांच सितारा होटल, थिएटर, बकिंघम महल और भी अनेक ऐतिहासिक ईमारतें व म्यूजियम हैं। यह क्षेत्र अपनी भव्यता व विविधता के लिए प्रसिद्ध है। एक से एक आलीशान होटलें हैं। ऐसे थिएटर हैं जिसमें सालों से एक ही मूवी चलती आ रही है। याद आया, मुम्बई के मराठा मंदिर में भी ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ भी कई वर्षों से चलती आ रही है। नाट्यगृह भी हैं, जहां एक ही नाटक का प्रदर्शन महीनों होता रहता है। अच्छी खासी आबादी है नाटक दर्शकों की।

ग्यारह अगस्त की सुबह हम लोग फ्लीट कस्बे से लंदन के वॉटरलू स्टेशन पर उतरे थे। यह करीब पौने दो सौ बरस पुराना स्टेशन है। 1848 से लेकर इस सदी तक इसका विस्तार होता रहा है। आधुनिकीकरण का सिलसिला आज भी ज़ारी है। इसकी तुलना कुछ कुछ मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनल, कोलकाता के हावड़ा और दिल्ली के ओल्ड दिल्ली स्टेशन से की जा सकती है। लेकिन, यह विशाल है। शुरू में इसका नाम सेंट्रल लंदन था। आज वॉटरलू स्टेशन।

मैं इस स्टेशन पर पहली दफा 1983 में उतरा था। रात का समय था। मैं स्वामी अग्निवेश और सांसद इंद्रवेश के साथ था। हम तीनों anti -slavery society के निमंत्रण पर यहां आये हुए थे। तब यह स्टेशन आज जैसा नहीं लगा था। लेकिन, अब तो इसका नया अवतार अस्तित्व में आ चुका है। बीस से अधिक इसके प्लेटफॉर्म हैं। सबर्ब ट्रेने यहां से आती -जाती हैं। इसके अलावा, भूमिगत ट्यूब ट्रेनों की अनेक लाइनें भी इस स्टेशन से जुड़ी हुई हैं। जबर्दस्त भीड़ रहती है। यदि आपकी आधुनिक संचार टेक्नोलॉजी के साथ दोस्ती नहीं है तो स्टेशन में आप की हालत ‘बुत’ जैसी हो जाएगी। सब कुछ यांत्रिक है। अलबत्ता, संकट में आपकी सहायता के लिए स्टेशनकर्मी मिल जायेंगे। वैसे, लंदन शहर बेदर्दीला नहीं लगा। निसंकोच आप किसी भी नागरिक से मदद ले सकते हैं। आपसे अंग्रेजी का काम चलाऊ ज्ञान अपेक्षित है।

स्टेशन से बाहर निकले तो स्वादिष्ट व्यंजनों की अनेक थड़ियों का झुण्ड दिखाई दिया। इसे देख कर दिल्ली हाट की याद आ गई। ऐसी थड़ियों के झुण्ड मुंबई के जूह बीच और चौपाटी पर भी मिल जाएंगे। अच्छा लगा जब समोसा -कचोरी के साथ पीज़ा भी खाने को मिला। कई भारतियों ने यहां चाट -पकोड़ी के खोमचे लगा रखे हैं। वैसे दुनिया जहान के व्यंजन मिलेंगे। पेट-पूजा के बाद कुछ पैदल चले तो विशाल व गगनचुम्बी ‘ दी लंदन आई’ दिखाई दी। यह टेम्स नदी के दक्षिणी क्षेत्र में स्थित है। यह भव्य गोलाकार ‘फेरिस व्हील ‘ है जिसमें बैठ कर एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंच कर 40 किलो मीटर का दृश्य देख सकते हैं। बशर्ते कि उस दिन आकाश बिल्कुल नीला रहे। इस चक्राकार की आरामदायक कुर्सियों पर बैठ कर लंदन के नयनाभिराम दृश्य का आनंद ले सकते हैं।

वर्ष 2000 में स्थापित यह आई विश्व भर में आकर्षण का केंद्र है। इसमें सवारी करने के लिए देशी -विदेशी पर्यटकों की लम्बी कतार लगी रहती है। इसकी यात्रा तनिक महंगी है। आधे घंटे की सवारी के लिए करीब 30 से लेकर 48 पौण्ड तक का टिकट है। लेकिन, 130 मीटर की ऊंचाई पर पहुंच कर लंदन की विविधतापूर्ण भव्यता को अपनी आंखों में आप क़ैद कर सकते हैं। लेकिन, इससे पहले टिकिट के लिए लम्बी कतार का हिस्सा बनना पड़ेगा। हमारे साथ बातें कर रहे कुछ दक्षिण भारतीय कतार में खड़े होने के लिए उतावले हो रहे हैं। वे आगे बढ़ गए हैं और हम पुल को पार करते हुए सेंट्रल लंदन की तरफ जा रहे हैं। पुल से गुजरते हुए पटरी पर पसरी हुई एक महिला दिखाई दी जिसने अपने सामने चादर फैला रखी थी। पहरावे से शायद किसी अरब देश से विस्थापित महिला लग रही थी। लोग उसकी चादर पर सिक्के व नोट डाल रहे थे। उसने अपने मुंह को ढक रखा था। लेकिन बीच बीच में वह कुछ बुदबुदाती जाती थी। मुझे यह दृश्य कचोटने वाला लगा। इससे पहले 1985 और 1989 में भी इधर से गुजर चुका हूं। ऐसा दिखाई नहीं दिया था।

शाम को वॉटरलू से फ्लीट के लिए ट्रैन पकड़ने से पहले उदर-अग्नि को कुछ शांत करने की इच्छा हुई। थक कर चूर हो चुके थे। सो एक स्टाल पर पहुंचे। रोचक अनुभव हुआ। सामने एक स्टाल दिखाई दी। सब कुछ शाकाहारी था। एक अकेला ही युवक स्टाल को देख रहा था। पच्चीस- तीस के बीच का वह रहा होगा। हमें देख कर वह गुजराती लहजे के साथ हिंदी में बतियाने लगा। वह गुजराती मूल का था। मेरी जिज्ञासा बढ़ी। पूछने से पता चला कि वह लंदन में करीब एक दशक से रह रहा है। राजकोट का रहनेवाला है। शायद वैभव नाम बता रहा था। जब हमने बताया कि हम दिल्ली से हैं तो उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कुछ उत्सुकता जगी। वह मोदी जी के संबंध में हमारे विचार जानना चाहता था। हमने बेबाकी के साथ अपनी संक्षिप्त प्रतिक्रिया दे डाली। वह फेर में पड़ गया। उसे मेरे शब्दों पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह कहने लगा, ‘ सर! क्या बात है आपके विचार और मेरे पिताजी के विचार मिलते- जुलते हैं। वे भी मोदी जी की आलोचना करते रहते हैं। वे उन्हें झूठा, फेंकू और अहंकारी मानते हैं। मैं तो ऐसा नहीं मानता। दोनों में टकराव होता रहता है’। मैंने चंद मिंटी चर्चा को विराम लगाते हुए उसके पिता के विचारों का समर्थन कर दिया। वह कुछ दुखी लगा। फिर उसने इतना ही कहा, ’ सर! सबके अपने अपने विचार होते हैं। मैं तो मोदी को पसंद करता हूं।’

‘तुम ठीक कह रहे हो। इसे ही लोकतंत्र कहते हैं। एक दूसरे के विरोधी विचारों का सम्मान करना चाहिए।’ यह कहते हुए हम लोग ट्रैन पकड़ने के लिए प्लेटफॉर्म की ओर दौड़े। फ्लीट टाउन जो लौटना था। पौन घंटे का सफर था। ट्रैन में एक दिलचस्प वाक़या हो गया।

हुआ यह कि एक अधेड़ युवक अपने पुत्र के साथ बैठा हुआ था। भारतीय लग रहा था। मिलीजुली भाषा थी उसकी। वह अपने पुत्र से इंग्लिश, हिंदी, उड़िया और तेलुगू में बतिया रहा था। जब उसका ध्यान हमारी तरफ गया तो वह अपनी स्वाभाविक उत्सुकता से पूछ बैठा, ‘ क्या आप इंडिया से हैं ?’ हमने इसकी पुष्टि की और मूल निवास स्थान दिल्ली बता दिया। तब उसकी दिलचस्पी और बढ़ी। चर्चा का रुख प्रधानमंत्री की ओर मुड़ना ही था। वह कहने लगा, ‘देखिए हम तो कई सालों से इंग्लैंड में रह रहे हैं। प्लम्बर का काम करते हैं। उड़ीसा के रहनेवाले हैं। पत्नी हैदराबाद की है। अब तो यहीं बस गए हैं, लेकिन इंडिया की पूरी खबर रखते हैं। व्हाट्स ऐप और टीवी से सब कुछ पता चलता रहता है। मीडिया ने सब कुछ आसान कर दिया है। मोदी जी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। विकास के साथ साथ हिन्दू धर्म की रक्षा भी कर रहे हैं। इंडिया में हिन्दू धर्म खतरे में है। आप मानते हैं ना ?’। मैंने असहमति व्यक्त की और कहा कि ‘ मैं और मेरा परिवार हिन्दू है। अस्सी बरस का हूं। भारत में रहता हूं। मुझे तो हिन्दू धर्म कभी भी संकट में नहीं लगा। हम लोग मंदिर जाते हैं। बल्कि, पिछले कुछ सालों में छोटे-मोटे मंदिरों की आबादी बढ़ गई है। अब तो अयोध्या में रामजन्म भूमि मंदिर भी बन रहा है।’

मुझे बीच में रोकते हुए कहने लगा, ‘ वह मंदिर तो मोदी जी की वजह से बन रहा है। कांग्रेस तो मुसलमानों के साथ रही है। उसने बनने नहीं दिया।’ सहयात्री की बात को काटते हुए मैंने बताया, ’कांग्रेस प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ही बाबरी मस्जिद का ताला खुल वाया था। रामलला की मूर्ति की पूजा करवाई थी। 1992 में दूसरे कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव के समय ही बाबरी मस्जिद को कारसेवकों ने तोड़ डाला था। हिन्दू धर्म संकट में कहां है? मुझे तो यह फलता -फूलता दिखाई देता है।’

उसने मेरे विचारों का जोशीले स्वरों में प्रतिवाद किया और कहने लगा, ’ लगता है आप सेक्युलर हैं। आप लोगों के कारण ही हिन्दू धर्म और हिंदुत्व संकटों से घिरे हुए हैं। मोदी जी इन संकटों से लड़ रहे हैं।’ इस व्यक्ति ऊंचे स्वरों ने पास बैठे श्वेत सहयात्रियों को भी चौंका दिया। सभी लोग हमारी तरफ देखने लगे। यह अर्द्ध हैदराबादी भाई ‘अंधभक्त’ लग रहा था। लेकिन अंत में उसने ईमानदारी के साथ यह भी स्वीकार किया, ‘क्या बात है, मेरी पत्नी भी आपकी भाषा बोलती है। हम दोनों के बीच इस बात पर तनाव बना रहता है। वह भी आपकी तरह सेक्युलर है। हिन्दू धर्म को सेकुलरों से बचाने की ज़रुरत है। लेकिन, मैं अपनी पत्नी के विचारों का सम्मान भी करता हूं।’ ‘इसे ही कहते हैं सच्ची डेमोक्रेसी’, यह कहते हुए मैंने विवाद पर विराम लगाया। उसका स्टेशन आ चुका था। दोनों पिता-पुत्र मुस्कराते हुए उतर गए।

वॉटरलू स्टेशन पर हमसे एक बड़ी भूल हो गई। हड़बड़ी में हमने गलत ट्रैन पकड़ ली। पास बैठी एक महिला ने हमारा ध्यान दिलाया। हम लोग चिंतित हो गए। चिंतित देख कर महिला कहने लगी, ’don’t worry। आप लोग मेरे साथ अगले स्टेशन पर उतर जाइये। आप लोग मेरे माता -पिता के समान हैं। मैं ओरिजनली गुजरात से हूं, लेकिन अफ्रीका के केन्या देश से माइग्रेट करके मेरा परिवार इंग्लैंड में बस गया है।’

महिला अंग्रेजी मिश्रित हिंदी बोल रही थी। उसने अपना नाम शायद सुनीता बताया था। उसके साथ उसके दो जुड़वां पुत्र भी थे। वे सिर्फ इंग्लिश ही समझ सकते थे। अगले स्टेशन पर हम सभी उतर गए। न जाने सुनीता को क्या सूझा। वह कहने लगी , ‘अंकल, मेरी कार बाहर कार पार्किंग में है। मैं आप सभी को फ्लीट छोड़ देती हूं। आप लोगों को देख कर मुझे अपने माता-पिता की याद आ गई है। पापा की डेथ हो गई, मम्मी साथ में रहती हैं। दूसरी ट्रेन पकड़ने में आप लोगों को तकलीफ होगी। चलिए मेरे साथ।’

स्टेशन से बाहर निकल कर सुनीता की कार में सवार हो गए। बीस मिनट की ड्राइव के बाद हम लोग फ्लीट में अपने रिश्तेदार के घर के सामने थे। सुनीता ने मोदी जी का बिल्कुल ही नाम नहीं लिया। रात हो चुकी थी। हम लोगों से विदा लेते हुए सुनीता ने सिर्फ इतना ही कहा, ’मम्मी हिंदी खूब जानती हैं और कहानी भी लिखती हैं। गुड नाईट!’ कार स्टार्ट हुई और वे तीनों प्राणी आंखों से ओझल हो गए।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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