मी लॉर्ड, अपनी साख की तो चिंता कीजिए!

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दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली के अग्नि शमन विभाग ने जो स्पष्टीकरण दिए, उसके बाद इस आशंका का गहरा जाना स्वाभाविक है कि इस मामले की कोई निष्पक्ष एवं प्रभावी जांच नहीं होगी। 

  • सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि जस्टिस वर्मा के घर से संबंधित घटना के बारे में “गलत सूचनाएं और अफवाहें” फैलाई जा रही हैं। कोर्ट ने कहा कि जस्टिस वर्मा के दिल्ली से इलाहाबाद कोर्ट में हुए तबादले का संबंध उस कथित घटना से नहीं है। बल्कि तबादला प्रक्रिया पहले चल रही थी।

घटना के बारे में एक दिन पहले खबर छपी थी कि जस्टिस वर्मा के घर पर आग लग गई, जिसे बुझाने के लिए जब फायर ब्रिगेड के दस्ते पहुंचे, तो उनके घर पर नोटों की गड्डियां मिलीं। लगभग 15 करोड़ रुपये की नकदी वहां पाई गई। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक इसकी खबर मिलते ही सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने जस्टिस वर्मा का तबादला कर दिया।

  • दिल्ली के फायर विभाग ने शुक्रवार को जारी एक बयान में नोटों की गड्डियां मिलने का सिरे से खंडन कर दिया। कहा कि दमकल दस्तों को कोई नकदी नहीं मिली। दरअसल, पुलिस के संदेह की वजह से ये सारा विवाद खड़ा हुआ है।

मगर पुलिस के शक का क्या आधार था, यह फायर विभाग ने नहीं बताया। दिल्ली पुलिस की ओर से भी (इन पंक्तियों के लिखे जाने तक) कोई वक्तव्य इस बारे में नहीं आया है। 

खबर सनसनीखेज है। स्वाभाविक ही था कि यह तेजी से फैली और उसी तेजी से इस पर प्रतिक्रियाएं आने लगीं। उनके बीच ये दो प्रतिक्रियाएं खास ध्यान देने योग्य हैं, जो खुद न्यायपालिका से संबंधित हलकों से आई हैः

  • इलाहाबाद हाई कोर्ट की बार एसोसिएशन ने जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद भेजे जाने का विरोध किया। कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट कोई कूड़ेदान नहीं है, जहां बदनाम जजों को भेज दिया जाए।
  • एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल तिवारी ने कहा कि अगर इतने नोट किसी आम सरकारी अधिकारी के यहां पाए जाते, तो उसे सीधे जेल भेज दिया जाता। तो आखिर जस्टिस वर्मा के साथ अलग व्यवहार क्यों हो रहा है?
  • तिवारी ने कहा कि आगे जब वकील जस्टिस वर्मा के सामने किसी केस की पैरवी करेंगे, तो उनके मन में शक बना रहेगा कि कहीं “जज ने दूसरे पक्ष से पैसा तो नहीं खा लिया है।” मुवक्किल भी ऐसे संदेहों से भरे रहेंगे। इसलिए बार एसोसिएशन वर्मा का स्वागत नहीं होने देगी।
  • इसके अलावा उन्होंने एक बड़ा सवाल उठाया। कहा कि अगर न्यायपालिका इसी तरह भरोसा खोती रही, तो यह समाज में उथल-पुथल को आमंत्रण देना होगा। इसलिए कि न्याय प्रक्रिया पर लोगों का भरोसा ही नहीं रहा, तो फिर लोग खुद न्याय करने की तरफ आगे बढ़ सकते हैं।

(https://x.com/milindkhandekar/status/1903050143370449278)

रिटायर्ड जज न्यायमूर्ति एसएन धींगरा ने इस कथित घटना की चर्चा एक बड़े संदर्भ में की। कहा- 

  • न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है, यह आम जानकारी है। लंबे समय से ऐसा ही चल रहा है।
  • इस पर कार्रवाई होनी चाहिए, यह जजों को भी मालूम है, लेकिन भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।
  • भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा है, जिसका खामियाजा आम इंसान को भुगतना पड़ता है।
  • हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए कोई नियम नहीं हैं। जब नकदी पकड़े जाने का ऐसा मामला सामने आया, तो सुप्रीम कोर्ट को तुरंत एफआईआर दर्ज करने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए थी। ठीक उसी तरह जैसे किसी आम आम आदमी के खिलाफ एफआईआर दर्ज होती है, जज के खिलाफ भी होनी चाहिए और आगे की कार्रवाई शुरू की जानी चाहिए थी। यह काम सुप्रीम कोर्ट को करना चाहिए था। 

(https://x.com/ANI/status/1903029218562453580)

मगर अब जस्टिस वर्मा के मामले का सच क्या है, इस पर धुंध छा गई है। जबकि अपेक्षित यह था कि चूंकि शक पैदा हुआ है, तो मामले की निष्पक्ष, प्रभावी, एवं संपूर्ण जांच की पहल सुप्रीम कोर्ट को करता। पूरी न्यायपालिका को इस सिलसिले में एक प्राचीन कहावत को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए।

इस कहावत में स्त्री विरोधी पूर्वाग्रह की झलक मिल सकती है, लेकिन फिलहाल, इस प्रकरण में यह प्रासंगिक है। कहावत है कि सीजर की पत्नी को संदेह से ऊपर होना चाहिए (Caesar’s wife should be above suspicion)।  

कहावत का संदर्भ रोमन डिक्टेटर जूलियस सीजर से संबंधित एक घटना है। उसकी पत्नी पोम्पिया पर एक धार्मिक समारोह के दौरान एक घटना में गंभीर इल्जाम लग गए। आरोप के पक्ष में कोई ठोस सबूत नहीं था। इसके बावजूद सीजर ने यह कहते हुए पॉम्पिया को तलाक दे दिया कि ‘मेरी पत्नी को किसी तरह के शक के साये में नहीं रहना चाहिए’। तब से इस कहावत का जिक्र किया जाता रहा है, यह बताने के लिए कि जो किसी प्रमुख या रसूखदार हैसियत में हों या उनसे संबंधित हों, उन्हें हमेशा ऊंचे प्रतिमानों का पालन करना चाहिए। उन्हें ऐसी स्थितियों से बचना चाहिए, जिनसे उनके चरित्र पर संदेह खड़ा हो। उनकी साख अखंड बनी रहनी चाहिए। 

सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम और पूरी न्यायपालिका के लिए यह आत्म-निरीक्षण का क्षण है। उन्हें इस पर अवश्य आत्म-मंथन करना चाहिए कि क्या बिना पूरी विश्वसनीय जांच हुए जस्टिस वर्मा की साख बहाल होगी? और ऐसा नहीं हुआ, तो क्या इसका साया कॉलेजियम और पूरी न्यायपालिका पर नहीं पड़ेगा?

आज की सत्ताधारी पार्टी एवं उसकी विचारधारा से जुड़े मसलों पर न्यायपालिका के रुख ने पहले ही समाज के एक बड़े हिस्से में व्यग्रता पैदा कर रखी है। रिटायरमेंट के तुरंत बाद जजों द्वारा लाभ के पद स्वीकार करने की बढ़ी प्रवृत्ति ने पहले ही न्यायिक फैसलों के पीछे के प्रेरक कारणों पर अटकलों का बाजार गर्म कर रखा है। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर न्यायपालिका के रुख के बारे में जस्टिस धींगरा ने जो कहा, वैसी सोच रखने वाले लोगों की संख्या पहले से बढ़ती जा रही है। जजों के वर्ग चरित्र एवं उनके अ-निर्वाचित होने का उल्लेख कर हमेशा से न्यायपालिका के निर्णयों पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं।  

अब अगर रिश्वतखोरी के संदेह को बने रहने दिया गया, तो उसका कितना हानिकारक असर न्यायपालिका की साख पर पड़ेगा, इस संस्था से जुड़े तमाम लोगों को इसकी चिंता जरूर करनी चाहिए। और कुछ नहीं, तो अपनी साख के लिए ही, उन्हें ऐसा कुछ करने से बचना चाहिए, जिससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर जनता के बीच अविश्वास और बढ़ जाए। उन्हें यह अवश्य याद रखना चाहिए कि अक्सर सच से भी ज्यादा संदेह का साया साख के लिए हानिकारक होता है। 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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