जीत के जश्न और हार की समीक्षा के बीच जनादेश का संदेश

Estimated read time 1 min read

साधारण लोगों के लिए न तो राजनीतिक दलों की ‘जीत के जश्न’ में कोई दिलचस्पी होती है और न ‘हार की समीक्षा’ में कोई खास भागीदारी होती है। दिल्ली विधानसभा के चुनाव का परिणाम आ गया है। परिणाम भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में गया है। कांग्रेस की स्थिति में बदलाव की उम्मीद पर पानी फिर चुका है।

आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के खाते में हार आई है। चुनाव में भागीदार राजनीतिक दलों का अपना-अपना विश्लेषण होगा। इसके अतिरिक्त नागरिक समाज का भी अपना विश्लेषण होना चाहिए। चुनावी लोकतंत्र में होता यह है कि किसी-न-किसी राजनीतिक दल को सत्ता मिल जाती है।

जनता का जीवन में सभ्य और बेहतर जीवनयापन शैली की आमद के सपने जमीन पर उतरने के अंतहीन इंतजार में  ‘दृढ़ता’ से बना रहता है। बहरहाल, भाजपा दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीत चुकी है, अब नागरिक समाज को चाय-चकल्लस के साथ आगे की बात सोचनी चाहिए।

लगातार दो बार से दिल्ली विधानसभा में लगभग अपराजेय बहुमत के साथ सत्ता में बनी रही, जनता के हिस्सा में मुख्य रूप से उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच के टकराव की कहानियां आती रही। हल्के मिजाज से कहा जा सकता है कि कोविड के मारक असर में आम आदमी पार्टी बुरी तरह से पड़ गई।

असल में कोविड के बाद लिकर की दुकान और लिकर घोटाला  के आरोप ने इंडिया अगेनस्ट करप्शन के आंदोलन के साथ दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतकर दिल्ली की सत्ता के शिखर तक पहुंची आम आदमी पार्टी के इस तरह से जाने का संकेत अतिमहत्वपूर्ण है। आम आदमी पार्टी की हार में छिपे संकेत को पढ़ा जाना चाहिए। 

आम आदमी पार्टी इंडिया गठबंधन में शामिल दल है। लेकिन हमेशा उसने ऐसी राजनीतिक पहल करने में कभी झिझकी नहीं जिससे इंडिया गठबंधन के साथी कांग्रेस की राजनीति पर घातक असर हो और भारतीय जनता पार्टी को बढ़त हासिल होने की स्थिति साफ-साफ दिखे, गुजरात, हरियाणा आदि के चुनाव नतीजों को इस समय जरूर याद किया जायेगा।

इस बार भी दिल्ली विधानसभा का चुनाव जब आया तब आम आदमी पार्टी अपनी नकली लड़ाई प्रत्यक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी से और असली एवं अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस के खिलाफ कर रही थी।

आम आदमी पार्टी को इंडिया गठबंधन के अन्य साथी घटक दल के नेताओं जैसे ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, शरद पवार ने आम आदमी पार्टी का इधर-उधर से समर्थन किया और कांग्रेस को सलाह देते रहे। कहते हैं कि एमके स्टालिन की सलाह पर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव प्रचार की डोर ढीली छोड़ दी।

राहुल गांधी ने भले ही कांग्रेस के चुनाव प्रचार को ढीला छोड़ दिया लेकिन अरविंद केजरीवाल राहुल गांधी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने में कोई ढिलाई नहीं बरती, इंडिया गठबंधन के साथी अरविंद केजरीवाल को राहुल गांधी के भारत की राजनीति में होने के महत्व का एहसास न करा पाये। 

असल में इंडिया गठबंधन के घटक दल के नेताओं को यह याद नहीं रहा कि वह किस तरह से लोकसभा के चुनाव के बाद राजनीतिक डर के वातावरण से बाहर निकलकर थोड़ी-सी राहत की सांस हासिल कर पाई।

इंडिया गठबंधन के भीतर बने रहकर कांग्रेस को अलग-थलग करते हुए तीसरा मोर्चा की संभावनाओं को टटोल रहे थे, उसका राजनीतिक खामियाजा आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को भोगना पड़ेगा। लेकिन यह राजनीतिक खामियाजा सिर्फ आम आदमी पार्टी तक सीमित रह जायेगी, ऐसा सोचना बड़ी भूल  होगी। 

राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता की चुनावी राजनीति में इस हार का क्या असर पड़ेगा, यह देखा जाना चाहिए। इसका संकेत बिहार विधानसभा के चुनाव में इंडिया गठबंधन की चुनावी रणनीतियों से मिल सकता है। कहना जरूरी है कि धीरे-धीरे भारत की राजनीति बहु-दलीय से द्वि-दलीय होने की तरफ से बढ़ रही है।

इसमें शुभ के संकेत हैं या अशुभ के? यह लाख टके का सवाल है। भारत की बनावट में नागरिक-हित के लिए संघात्मक ढांचा का अक्षत रहना अधिक जरूरी है। इस दृष्टि से भारत की राजनीति में द्वि-दलीय व्यवस्था का चलन हानिकर हो सकता है। द्वि-दलीय व्यवस्था के अंतर्गत क्षेत्रीय अस्मिता के सम्मान को बचाना बहुत मुश्किल होगा।

क्या कांग्रेस क्षेत्रीय अस्मिता को सम्मान दे पायेगी, यह भी लाख टके का सवाल है। यह कहना जरूरी है कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक विचारधारा में क्षेत्रीय अस्मिता के लिए कोई सम्मान नहीं है। तो फिर! असल में भारत की बनावट के मनमाफिक संघात्मक ढांचा ही पड़ता है। इस दृष्टि से देखने पर कांग्रेस की विचारधारा के महत्व को फिर से समझना जरूरी होगा।  

सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय और सांस्कृतिक एवं राजनीतिक न्याय के लिए कांग्रेस को अपने अंदर सर्वसत्तावादी राजनीति के खिलाफ सुदृढ़ रूप से सर्वस्तरीय और सुव्यवस्थित जगह सुनिश्चित करनी होगी, पारस्परिक सहानुभूति और सहकार की राजनीति के मर्म का ध्यान रखना होगा।

कांग्रेस-जन यह सब कितना कर पायेंगे कहना मुश्किल है। लेकिन इस बात की आशा जरूर की जा सकती है कि राहुल गांधी यह सब कर पायेंगे और कांग्रेस को इसके लिए तैयार कर पायेंगे। कांग्रेस को अपने अंदर समाजवादी राजनीति और वामपंथ की विचारधारात्मक मूल्य-बोध के साथ ताल-मेल बैठाने पर गहराई से सोचना होगा। राजनीति में साथियों के साथ गलत इरादों से व्यवहार करने से ईमानदारी से बचना होगा। 

भारत को बचाने की राजनीतिक लड़ाई में चतुराई का महत्व तो बना रहेगा लेकिन राजनीतिक ‘चालाकियों और धूर्तताओं’ से बचना होगा। राजनीतिक धूर्तों और धूर्त नेताओं को पहचानना होगा, राजनीतिक सफाई से बचना होगा।

इस समय तो इंतजार है कि आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा के चुनाव का विश्लेषण कैसे करते हैं और अगला राजनीतिक सबक क्या लेते हैं, इस का इंतजार करना होगा। इंडिया गठबंधन के नेताओं के राजनीतिक बयानों का भी इंतजार करना होगा। 

मीडिया में इस तरह की खबरें आ रही है कि दिल्ली सचिवालय को सुरक्षा कारणों से घेरे में ले लिया गया है। किससे सुरक्षा, किस घात से सुरक्षा! समझना भी बहुत मुश्किल नहीं है, कहना भी मुश्किल नहीं है। मुश्किल है समय के बदलते तथ्य और तेवर के साथ इससे निकलते बहुस्तरीय संकेतों को ठीक से पढ़ना। इस चुनाव नतीजे के वृहत्तर राजनीतिक असर को बहुत गंभीरता से देखा जाना चाहिए। 

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)  

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author