चुनाव आयोग के वजूद पर मोदी सरकार का हमला

नई दिल्ली। संसद के विशेष सत्र की घोषणा के समय ही विपक्षी दलों ने सरकार की नीयत पर सवाल उठाए थे। विपक्ष आशंका व्यक्त कर रहा था कि मोदी सरकार इस विशेष सत्र में ऐसा कुछ कर सकती है, जो देश और संविधान के खिलाफ होगा। क्योंकि विशेष सत्र की घोषणा के समय सरकार ने एजेंडा सार्वजनिक नहीं किया था। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर आपत्ति जताई थी कि एजेंडा घोषित किए बिना विशेष सत्र की घोषणा कर दी गई है। ऐसे में विशेष सत्र क्यों बुलाया जा रहा है और सत्र के दौरान किन मुद्दों पर चर्चा होगी, सदन के अधिकांश सदस्य अनजान हैं।

लेकिन जैसे-जैसे विशेष सत्र शुरू होने की तिथि नजदीक आ रही है, सरकार के इरादे एक-एक कर सामने आ रहे हैं। पहले सरकार ने आधा-अधूरा एजेंडा घोषित किया। अब इस बात की चर्चा है कि मोदी सरकार विशेष सत्र में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) विधेयक, 2023, पारित करा सकती है। दरअसल, इस विधेयक को 10 अगस्त को राज्यसभा में पेश किया गया था और 18 सितंबर से शुरू होने वाले विशेष सत्र में चर्चा के लिए सूचीबद्ध किया गया है। यह विधेयक चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था पर राजनीतिक हमला है।

वेतन-भत्ता नहीं अधिकारों पर चलेगा डंडा

मोदी सरकार का यह विधेयक चुनाव आयुक्त के वेतन और पद में संशोधन का प्रस्ताव करता है। विधेयक में मुख्य चुनाव आयुक्त और दो अन्य चुनाव आयुक्तों के पद को कैबिनेट सचिव के बराबर किया जाना प्रस्तावित है। अभी चुनाव आयुक्त को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के बराबर वेतन मिलता है। चुनाव आयोग (चुनाव आयुक्तों की सेवा की शर्तें और संचालन) अधिनियम, 1991 में तीन चुनाव आयुक्त का वेतन और सेवा शर्तों में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के बराबर हैं।

चुनाव आयुक्त के सेवा शर्तों में बदलाव से उनपर बहुत अधिक वित्तीय प्रभाव नहीं पड़ेगा। क्योंकि शीर्ष अदालत के न्यायाधीश और कैबिनेट सचिव का मूल वेतन लगभग समान है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अवकाश प्राप्त करने के बाद कुछ अधिक लाभ के हकदार होते हैं। शीर्ष अदालत के रिटायर्ड जजों को आजीवन एक ड्राइवर और घरेलू काम के लिए सहायक मिलता है। सवाल यहां चुनाव आयुक्तों के वेतन का नहीं है। मोदी सरकार की असली मंशा चुनाव आयोग को सीमित करके उसके महत्व को कम करना है। जिससे वह अपनी मनमानी चला सकें।

सरकार के इस इरादे से सत्ता प्रतिष्ठान, नौकरशाही और विपक्षी दलों में बेचैनी है। यह सारी कवायद चुनाव आयुक्तों को यह अहसास कराने के लिए है कि वह भी बाकी नौकरशाहों के समान ही हैं। यह सब उनके चुनाव संबंधी अधिकारों की कटौती और सरकार की मनमानी की दिशा में उठाया गया कदम है।

चुनाव आयोग संवैधानिक संस्था है

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है। चुनाव आयोग और चुनाव आयुक्त को संवैधानिक अधिकार मिले हैं। लेकिन कैबिनेट सचिव या राज्यों के मुख्य सचिव के पद संवैधानिक नहीं वैधानिक है। उनको कानूनी कार्य करने होते हैं और चुनाव आयोग को संवैधानिक कार्य करने होते हैं। चुनाव आयोग को चुनाव संबंधी अधिकांश मामलों में निर्णय करने का पूरा अधिकार है, चुनाव के वक्त चुनाव आयोग के दिशा-निर्देश को मानने के लिए नौकरशाही बाध्य होती है।

चुनाव आयोग को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री, सांसद और विधायक के चुनाव को संचालित करना होता है। यदि कैबिनेट सचिव के बराबर हो जायेगा तो प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों के जुड़े विवाद के समय वह सरकार के निर्देश का इंतजार करता दिखेगा।

मोदी सरकार का यह विधेयक यदि पास होता है तो यह चुनाव आयोग के अधिकारों को तो न्यून कर ही देगा, साथ ही यह कैबिनेट और नौकरशाही के सामने चुनाव आयुक्तों को कमजोर कर देगा। ऐसे में चुनाव आयोग को भविष्य में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि “चुनाव आयुक्तों को कैबिनेट सचिव के बराबर करने का मतलब है कि चुनाव आयुक्त का कद राज्य मंत्री से भी नीचे होगा। ऐसे में चुनाव आयोग चुनाव के दौरान आदर्श चुनाव संहिता और अन्य कानूनी उल्लंघनों के लिए एक केंद्रीय मंत्री को कैसे अनुशासित करेगा।”

चुनाव आयोग अधिकारियों को बैठक के लिए कैसे बुलाती है

चुनाव आयुक्त वर्तमान में जब किसी सरकारी अधिकारी-जैसे केंद्र में कानून सचिव या कैबिनेट सचिव या किसी राज्य के मुख्य सचिव-को बैठक के लिए बुलाते हैं, या किसी चूक या उनके निर्देश की जानबूझकर अवहेलना के संबंध में उनका स्पष्टीकरण मांगते हैं, तो उनका आदेश ऐसा माना जाता है कि यह जैसे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने स्पष्टीकरण मांगा है। क्योंकि कैबिनेट सचिव, मुख्य सचिव उनके समकक्ष नहीं होता है। लेकिन विधेयक पास हो जाने के बाद जब चुनाव आयुक्त कैबिनेट सचिव या मुख्य सचिव के बराबर हो जायेगा, तो चुनाव आयोग का नियंत्रण स्वत: कमजोर पड़ जायेगा।

चुनाव आयोग के पास क्या अधिकार है, यह उसके सरकारी पत्रों से ही प्रतिबिंबित होता है। चुनाव आयोग राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और कानून मंत्री को संबोधित करते हुए पत्र लिखता रहा है।

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति और उनके अधिकारों की कटौती का विधेयक पास हो जाता है तो एक और विवाद खड़ा होगा। सीईसी को केवल सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के समान तरीके से ही हटाया जा सकता है। यानि चुनाव आयुक्त को हटाने के लिए संसद में महाभियोग लाना पड़ता है। हालांकि, व्यवहार में सीईसी की सेवा शर्तें कैबिनेट सचिव के अनुरूप होती हैं

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने बदलाव पर उठाए सवाल

चुनाव आयुक्तों के सेवा शर्तों में बदलाव को लेकर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी ने कहा कि “दुनिया के आधे देशों में चुनाव आयुक्त के रूप में न्यायाधीश हैं। हम चुनावों में विश्व गुरु हैं, पिछले 10 वर्षों में 108 देशों ने हमसे सीखने के लिए अपने चुनाव आयुक्तों को भेजा। चुनाव आयुक्तों की ग्रेडिंग करके हम क्या हासिल कर रहे हैं।”

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी कहते हैं कि सिर्फ भारत ही नहीं कई विकासशील देशों में चुनाव आयुक्त या सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश हैं या उनके समकक्ष होते हैं। चुनाव आयोग को कैबिनेट सचिव के बराबर करना एक भूल साबित हो सकती है।

कुरैशी ने कहा कि “पिछले कुछ वर्षों में, सरकार ने इसी तरह सीआईसी (मुख्य सूचना आयुक्त) और सीवीसी (मुख्य सतर्कता आयुक्त) का वेतन शीर्ष अदालत के न्यायाधीश के बजाय कैबिनेट सचिव के बराबर कर दिया है। अंतर यह है कि सीवीसी और सीआईसी चुनाव आयोग की तरह संवैधानिक निकाय नहीं हैं। चुनाव आयोग की न्यायाधीश से समकक्षता संविधान में ही निहित है क्योंकि यह कहता है कि सीईसी को केवल महाभियोग के माध्यम से हटाया जा सकता है। ”

एक अन्य पूर्व सीईसी ने कहा कि “प्रस्तावित विधेयक में वेतन अलग नहीं हो सकता है, लेकिन जो अलग है वह यह है कि ईसी को किसके बराबर माना जा रहा है। संविधान के तहत न्यायाधीशों को एक स्वतंत्र अस्तित्व दिया गया है क्योंकि उन्हें उन मामलों का फैसला करना होता है जिनमें सरकार, प्रधानमंत्री और मंत्री शामिल होते हैं। उसी प्रकार की स्वतंत्रता चुनाव आयोग के लिए भी आवश्यक है। यह चुनाव आयोग के स्वतंत्र चरित्र के बारे में गलत संदेश भेज रहा है।”

2 मार्च, 2023 के अपने फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारत के चुनाव आयोग में नियुक्तियों को नियंत्रित करने वाले केंद्र सरकार के कानून की अनुपस्थिति में, ऐसी नियुक्तियां एक समिति की सिफारिशों के आधार पर की जानी चाहिए। इसमें कहा गया था कि इस समिति में प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता शामिल होंगे।

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। बहुभाषी औऱ बहुसंस्कृति वाले देश में पारदर्शी चुनाव कराना बहुत चुनौती का काम होता है। लेकिन चुनाव आयोग ने जिस प्रकार इस चुनौती को स्वीकार किया और सारे दलों में इस संस्था को लेकर विश्वास का भाव रहा है, वह नए विधेयक के पास होने के बाद शायद ही बच पाए।

(प्रदीप सिंह जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।)

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