मणिपुर पर मोदी नहीं अमेरिकी राजदूत बोले!

मणिपुर पर भले ही देश को पीएम मोदी की चुप्पी तोड़ने का इंतजार हो। लेकिन भारत स्थित अमेरिका के राजदूत एरिक गार्सेटी ने ज़रूर अपना मुंह खोल दिया है। उन्होंने इसके लिए बाकायदा कोलकाता की यात्रा कर वहां एक प्रेस कांफ्रेंस की। इस देश के भीतर सब कुछ उल्टा पुल्टा हो रहा है। जिसकी इस मामले में सीधे जिम्मेदारी और जवाबदेही है और जिसके बयान की जरूरत है वह चुप है। और जिसको इस मामले में किसी तरह के हस्तक्षेप से बचना चाहिए वह खुल कर बोल रहा है।

यह मामला उसके बोलने तक सीमित नहीं है बल्कि वह इसमें खुली दखल का प्रस्ताव दे रहा है। यह मोदी का नया भारत है। जिसमें विदेशियों और उनके राजनियकों को हस्तक्षेप की खुली छूट है। जबकि राजनयिकों और राजदूतों के मामले में यह सामान्य अंतरराष्ट्रीय मान्य सिद्धांत है कि वह किसी भी देश के घरेलू मामलों में दख़ल नहीं देगा। क्योंकि यह देश की संप्रभुता के खिलाफ जाता है। लेकिन अमेरिकी राजदूत ने इसकी न्यूनतम मान्यताओं और शर्तों का भी पालन करना जरूरी नहीं समझा। ऐसा नहीं है कि एरिक गार्सेटी को इसके बारे में पता नहीं है। या वो इतने भोले हैं कि कहां बोला जाना चाहिए और कहां नहीं इसकी उन्हें समझ नहीं है। 

वह पूरे होशो-हवास में थे और इसके लिए उन्होंने अलग से सिद्धांत भी गढ़ लिया। उनका कहना था कि यह रणनीतिक नहीं बल्कि एक मानवीय मामला है और उसी नजरिये से वह बात रख रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने मणिपुर में क्या-क्या संभावनाएं हैं और किस तरह से अमेरिका उसमें मदद कर सकता है इसको विस्तार से रखा और इस क्रम में निवेश का प्रस्ताव तक दे डाला। इसके साथ ही उन्होंने यह जिक्र कर डाला कि इस इलाके की सीमा कई दूसरे देशों की सीमा से जुड़ती है और संवेदनशील है। अब कोई पूछ सकता है कि फिर इसमें आपकी यानि अमेरिका की क्या भूमिका बनती है? क्या आप एक और देश के तौर पर वहां प्रवेश करना चाहते हैं? या फिर भारत सरकार के साथ आपकी कोई अंडरस्टैंडिंग बनी है जिसके तहत आप इस तरह का बयान जारी कर रहे हैं? क्योंकि अभी तक इस पर भारत सरकार की तरफ से कोई बयान नहीं आया है।

और विदेश मामलों के प्रवक्ता अरिंदम बागची से जब पत्रकारों ने इस पर प्रतिक्रिया मांगी तो उन्होंने यह कह कर मामले को टाल दिया कि इसकी उनको कोई जानकारी नहीं है। बहरहाल इतने बड़े देश का राजदूत एक इलाके की यात्रा कर रहा है और बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी बात कह रहा है और वह भी इतने संवेदनशील मसले पर लेकिन उसकी विदेश विभाग को जानकारी न हो या समझ पाना किसी के लिए मुश्किल है। बहरहाल ऊपर जिसकी बात हो रही थी उसकी आशंका इसलिए बन जाती है कि अमेरिकी दौरे में अपने स्वागत के बदले पीएम मोदी ने अमेरिका को बहुत कुछ ऐसा दे दिया जिसकी उसे भी उम्मीद नहीं रही होगी। मसलन उसने अपने रणनीतिक संबंधों को आगे बढ़ाने के क्रम में सामरिक स्तर पर नेवी के साथ जो समझौता किया है वह भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को अलविदा कहने जैसा है। 

इसके तहत अमेरिका के लड़ाकू विमानों को भारतीय नौसेना के अड्डों पर ईंधन भरने से लेकर उनके कल पुर्जे ठीक करने तथा उनके रख-रखाव की गारंटी का समझौता हुआ है। ड्रोन दूसरे देशों के मुकाबले 10 गुना कीमत पर खरीद कर मोदी ने संकट से जूझ रहे अमेरिका को बड़ी राहत दे दी है। जबकि इसमें किसी तरह की कोई टेक्नालाजी का ट्रांसफर नहीं होना है जिसका देश में हल्ला मचाया जा रहा था। और अब जिस तरह से अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने मणिपुर के मामले में हस्तक्षेप किया है उससे इस बात की आशंका बलवती हो जाती है कि इसकी छूट भारत सरकार उन्हें दी होगी। और इससे आगे क्या पता मोदी सरकार उनके जरिये नार्थ-ईस्ट में चीन के खिलाफ कोई मोर्चा खोलना चाह रही हो। वैसे भी अमेरिका चीन के खिलाफ भारत को खड़ा करने की हरचंद कोशिश में है और इस दौर में अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों की प्रगाढ़ता में वह प्राथमिक पहलू बना हुआ है।

किसी राजदूत का किसी देश के घरेलू मामले में हस्तक्षेप कितना बड़ा मामला होता है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब कभी खाड़ी के देशों का संगठन ओपेक या फिर कोई और कश्मीर के मसले पर भारत के खिलाफ बोलता है तो भारत सरकार पूरी दुनिया में वितंडा खड़ा कर देती है। लेकिन एक शख्स भारत के भीतर ही रहकर भारत के मामले में बोल रहा है लेकिन उस पर सरकार की प्रतिक्रिया तक नहीं आती है। इसको किस रूप में देखा जाए और इसका कैसे आकलन किया जाए यह एक बड़ा विषय है। लेकिन इससे एक बात के संकेत ज़रूर मिल रहे हैं कि भारत की विदेश नीति में स्वतंत्रता अब इतिहास का शब्द होने जा रहा है। 

वैसे भी बीजेपी और आरएसएस को विदेशी सत्ता से कोई परहेज नहीं रहा है। आजादी की लड़ाई से आरएसएस ने खुद को दूर रखा और पूरा संगठन इस बात की तैयारी में लगा हुआ था कि आजादी मिलने के बाद कैसे उसे हिंदू राष्ट्र में बदला जाएगा। भले ही उसके लिए पूरे समाज और देश को नफरत था घृणा की आग में झोंक देना पड़े। आरएसएस की वह तैयारी इस समय रंग ला रही है। और पूरा देश उसके रास्ते पर चल कर एक जहरीले तालाब में तब्दील हो गया है। और हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब भी देश में किसी सांप्रदायिक उन्माद की जरूरत पड़ती थी तो संघी जमात हमेशा ब्रिटिशर्स की सेवा में खड़ी रहती थी। लिहाजा दोनों शक्तियों के बीच एक किस्म का ‘पेशेवराना’ रिश्ता था। और एक बार फिर अगर इस तरह के किसी गठजोड़ में जाने का उसे मौका मिलता है तो भला उसे क्या परहेज होगा? वैसे भी आरएसएस जानता है कि बगैर अमेरिका का उसके सिर पर हाथ रखे उसका विश्व गुरू बनना मुश्किल है।

(जनचौक के फाउंडर एडिटर हैं।) 

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