टीकाकरण ने मोदी के राष्ट्रवाद में पलीता लगा दिया

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मोदी सरकार जब सत्ता में आई तो उसने राष्ट्रवाद का एक नया आख्यान रचने की कोशिश की ।पिछले साल जब कोरोना ने दस्तक दी तो मोदी सरकार ने थाली बजाकर और मोमबत्तियां जलाकर इसी राष्ट्रवाद को मजबूत बनाने की कोशिश की और यह संदेश देने का प्रयास किया कि उन्होंने कोरोना काल  में राष्ट्र को एकजुट किया है। भले ही यह नकली और थोथा  राष्ट्रवाद निकला और इसका प्रतीक जल्दी ही ढह गया। मोदी सरकार ने जब 16 जनवरी को टीकाकरण अभियान की राष्ट्रव्यापी शुरुआत की तो भी उन्होंने यह संदेश देने का प्रयास किया कि वह राष्ट्र का नेतृत्व कर रहे हैं। टीकाकरण के दूसरे अभियान और तीसरे अभियान में 45 वर्ष से अधिक तथा 18 वर्ष से अधिक लोगों को टीका लगाने का कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा की लेकिन 1 मई के बाद उनका यह कार्यक्रम ध्वस्त होने लगा और लोग टीके की तलाश में इधर उधर भागने लगे। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि जब हरियाणा और उत्तर प्रदेश में टीके  नहीं मिले तो  लोग भाग भाग कर दिल्ली में टीके  लेने लगे और टीके के अभाव में दिल्ली सरकार को भी अपने कई टीकाकरण केंद्र बंद करने पड़े । दरअसल दूसरी लहर में अपनी विफलताओं के कारण मोदी सरकार ने सारी जिम्मेदारी और राज्य सरकारों को सौंप दी चाहे वह लॉकडाउन का मामला हो टीकाकरण का। केंद्र ने अब इस पूरे अभियान से  अपना पल्ला झाड़ लिया और अब उससे कहा कि राज्य सरकार ग्लोबल टेंडर के जरिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से टीके खरीदे।यानी टीके के मामले में केंद्र की जिम्मेदारी नहीं।

मनीष सिसोदिया ने  टीके के लिए इस ग्लोबल टेंडर का विरोध किया है और कहां कि राज्य द्वारा ग्लोबल टेंडर करना राष्ट्र की अवधारणा के खिलाफ है। जब कभी देश में  संकट का दौर शुरू होता है तो भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने एक राष्ट्र के रूप में उपस्थित होता है  और वह मदद मांगता  है ,ना कि वह  राज्यों को खुद उपस्थित होने के लिए कहता है। मोदी सरकार को चाहिए था कि वह ग्लोबल टेंडर खुद ही निकालती लेकिन  उसने यह जिम्मेदारी राज्यों को सौंप दी। यह लोकतांत्रिक कदम नहीं बल्कि गैर जिम्मेदारान कदम है।केंद्र ने  राज्यों को ग्लोबल टेंडर निकालने की बात कहकर टीके की  कीमत को लेकर  प्राइस वार को बढ़ा दिया है एवम राज्यों के बीच  अनावश्यक दवाब पैदा  किया है जिससे राज्यों के बीच टीका प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा बढ़ जाएगी। जो राज अधिक मुंह मांगी कीमत पर टीका लेने की स्थिति में होगा उसे ही  वह टीका मिलेगा ।

जाहिर है टीके के लिए बोली लगेगी तो  टीका भी महंगा हो जाएगा। जो लोग मोदी सरकार के राष्ट्रवाद की वर्षों से दुहाई दे रहे थे उन्हें इस खोखले राष्ट्रवाद  को समझना चाहिए।लेकिन वे अब चुप है, खामोश है। वे कुछ नहीं बोल रहे हैं ।क्या आपको यह नकली  राष्ट्रवाद दिखाई नहीं देता है? क्या उनको यह नहीं लगता कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने भारत को एक  राष्ट्र के रूप में जाना चाहिए था लेकिन मोदी सरकार ने बड़ी चालाकी से अपनी जिम्मेदारियों से बचकर अपनी जिम्मेदारी राज्यों के कंधे पर डाल दी है ताकि अगर टीका नही मिले तो इसका ठीकरा राज्यों के सर पर फूटे न कि  केंद्र के सर पर।

भाजपा शासित  सरकारों ने भी टीका नहीं मिलने की शिकायत मोदी सरकार के सामने रखी है पर एक 1 मई से कई राज्य टीके के कार्यक्रम चला नहीं पाए  है और जिन राज्यों में  टीकाकरण कार्यक्रम चल भी रहा है वहां उसकी रफ्तार इतनी धीमी है कि अगर यही गति रही तो अगले वर्ष से पहले हम टीकाकरण नहीं कर पाएंगे। अगर  इस बीच कोई  तीसरी या  चौथी लहर भी आ गई तो देश का क्या हाल होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है लेकिन मोदी सरकार को इससे क्या फर्क पड़ता है। वह जिस राष्ट्रवाद की नींव  पर खड़ी थी उसका राष्ट्रवाद अब भहराकर गिर गया है क्योंकि वह नकली और फरेबी राष्ट्रवाद था।उसका भ्रम और पाखंड भी उजागर हो गया है ।अब जनता को पता चल गया है कि मोदी सरकार को जनता की चिंता नहीं है एक अनुमान के अनुसार 50 हजार करोड़ रुपए टीकाकरण में लगेंगे ।यह सरकार के लिए बड़ी राशि नहीं।दो दो लाख करोड़ रुपए की छूट  तो सरकार कॉरपोरेट को  टैक्स में दे देती हैं। एक डेढ़ लाख करोड़ रुपए तो बकाया कर होंगे जो सरकार समय पर वसूल नही पाती।देश में चुनाव कराने पर 60 हजार करोड़ रुपए खर्च होते है।इसके अलावा देश में अथाह काला धन हैं। मंदिरों में इतनी रकम तो हर साल दान में आती है लेकिन केंद्र  सरकार को  राष्ट्र की चिंता नहीं है। यह कैसा  राष्ट्रवाद है जिसमें राष्ट्र  के नागरिक की कोई पीड़ा  नहीं है । यह केवल शब्दों पर खड़ा झूठा राष्ट्रवाद है ।यह जुमलेबाजी का राष्ट्रवाद है ।इसमें राष्ट्र के लोगों की जान बचाने  भी चिंता नहीं है ।

अगर चिंता होती तो मोदी सरकार एक अध्यादेश जारी कर कई कंपनियों को टीका कारण का अधिकार देती और  उत्पादन युद्ध स्तर पर होता लेकिन उसकी चिंता  अपने नागरिकों की बजाय अंतरराष्ट्रीय समुदाय   की  थी और उसने 92  देशों को 6:30 करोड़ टीके दिए ।यह उसने बड़ी भूल की । उसे पहले अपने देश के लोगों को टीका लगाना चाहिए था लेकिन उसने दुनिया के अन्य देशों को टीका  देना शुरू कर दिया जबकि दुनिया के अन्य  देश में पहले अपने यहां  टीकाकरण कार्यक्रम पूरा कर रहे हैं। अमेरिका जापान फ्रांस आदि ने सबसे पहले अपनी जनता को टीका देने का कार्यक्रम किया है ।उन्होंने टीका एक्सपोर्ट नहीं किया तो आखिर मोदी सरकार ने इतनी तत्परता से दुनिया के 92 देशों को टीके क्यों दिए। इसके पीछे मोदी सरकार की क्या मंशा थी ?क्या प्रधानमंत्री मोदी अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि बनाने के लिए ऐसा कर रहे थे? 

क्या वह सोच रहे थे कि उनकी इस पहल कदमी से उनकी ऐसी छवि बनेगी कि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल जाएगा और वह दुनिया में अपना डंका पीट  लेंगे तथा अगला चुनाव इसके बलबूते पर लड़कर जीत लेंगे लेकिन उनकी यह चाल उनके गले की फांस बन गई है ।पूरी दुनिया में मोदी सरकार की  थू थू हो रही है।पूरी दुनिया चाह रही की भारत के अधिक से अधिक  लोग जल्द टीका लगाए क्योंकि भारत में कोरना  के तीसरे वेरिएंट से विश्व के लिए खतरा हो गया है।लेकिन देशवासियों के लिए बेहतर या हुआ कि टीकाकरण ने मोदी को बुरी तरह एक्सपोज कर दिया और उनके  राष्ट्रवाद में पलीता लग चुका है। जनता को समझना चाहिए इस राष्ट्रवाद की बुनियादी ही झूठ पर टिकी है।

(विमल कुमार वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं।)

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