Thursday, March 30, 2023

नंदीग्राम: अर्धसत्य के पार

महेंद्र मिश्र
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सोनाचुरा जलपाई (नंदीग्राम)। नंदीग्राम के मुख्य बाजार से 14 किमी दूर स्थित भांगाबेड़ा को 2007 की घटनाओं का एपिसेंटर कहा जा सकता है। इसी के पास स्थित है सोनाचुरा जलपाई गांव। सालिम ग्रुप के प्रस्तावित केमिकल प्रोजेक्ट के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ हुई तमाम घटनाओं का यह केंद्र था। तकरीबन 250 परिवारों के इस गांव में 1000 मतदाता हैं। सभी जगहों की तरह चुनावों के यहां भी पोस्टर लगे हैं। देखने में जिंदगी बेहद सामान्य लगती है। लेकिन पूरा गांव मानो एक सुषुप्त ज्वालामुखी के शीर्ष पर स्थित है। और अपने भीतर आग का एक समंदर बैठा रखा है। बस एकबारगी 2007 का जिक्र करने भर की देर है पूरा गुबार लावे की शक्ल में फूटकर बाहर आने लगता है। और फिर भावनाओं के जोर का जो मलवा निकलता है उसमें कोई भी बह जाने के लिए अभिशप्त है। सड़क के किनारे बसे इस गांव की मुख्य गली में नंगे बदन बैठे 34 वर्षीय मदन मोहन पाईक के लिए यह निजी तौर पर किसी मौत के दरिया को पार करने से कम नहीं था। मदन मोहन पाईक के पास महज एक एकड़ जमीन है। जमीन अधिग्रहण के बारे में पूछने पर वो बताते हैं कि “ न प्रशासन के किसी अधिकारी से बातचीत हुई। न कोई लिखित समझौता हुआ। न ही किसी कागज पर हस्ताक्षर कराया गया। न ही सरकार की तरफ से कोई मुआयना करने आया, न ही सालिम ग्रुप की तरफ से कुछ ऐसा किया गया।” उन्होंने आगे कहा कि “हां अफवाह ज़रूर आयी और अपने साथ किसानों को बहा ले गयी।”

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मदन मोहन का कहना है कि गांव के लोगों को दो तरह से आंदोलन में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया। जिनके पास जमीनें थीं उनको जमीन जाने का डर दिखाया गया और जिनके पास नहीं थी उन्हें डराया धमकाया गया। उन्होंने बताया कि “टीएमसी के लोगों ने बाकायदा हम लोगों को धमकी दी कि आंदोलन में नहीं शामिल होने पर मार दिया जाएगा।”

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जहां तक जमीन का मसला है तो ज्यादातर परिवारों के पास एक से ढाई बीघा जमीन है। इसमें तकरीबन 20 परिवार ऐसे हैं जिनके पास कोई जमीन नहीं है। यानी वो भूमिहीन हैं। उनका पेट दूसरों की जमीनों को कूत पर लेकर खेती करने या फिर मजदूरी करने से चलता है। लिहाजा पूरा गांव दो हिस्सों में बंटा है। एक वह जिसके पास अपनी जमीन है दूसरा भूमिहीन या फिर दूसरों की जमीन कूत पर लेने वाला किसान। 

47 वर्षीय पंचानन दास उसी श्रेणी में आते हैं। उन्होंने गांव के ही एक किसान की एक बीघा जमीन कूत पर ले रखी है। जिसके बदले में उन्हें जमीन मालिक को सालाना 5 हजार रुपये देने पड़ते हैं। 

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और फिर देखते ही देखते भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति (बीयूपीसी) का गठन हो गया। और इसी के साथ हुआ आंदोलन में माओवादियों का प्रवेश। पंचानन का कहना था कि माओवादियों को टीएमसी के लोग ही लेकर आए थे। और उन्होंने डर दिखाकर लोगों को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी। यहां यह बताना जरूरी होगा कि इन पंक्तियों के लेखक को मदन मोहन उस जगह पर भी लेकर गए जहां किशन जी समेत तमाम माओवादी झाड़ियों में घर बना कर उस दौरान रह रहे थे। सड़क के बिल्कुल किनारे स्थित इस क्षेत्र में आज भी वो झाड़ियां मौजूद हैं। उनका कहना है कि उस समय वो बेहद सघन थीं। और फिर इसी के साथ इलाके में टीएमसी का झंडा बुलंद हो गया। 

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झाड़ियां, जहां माओवादी छिपते थे।

4 मार्च, 2007 की घटना का जिक्र आते ही लोगों के शरीर में सिहरन दौड़ पड़ती है। इस दिन हजारों की संख्या में इकट्ठा लोगों पर पुलिस ने गोली चलायी थी जिसमें 14 लोगों की मौत हो गयी थी। मरने वाले लोगों में सोनाचुरा जलपाई गांव की 40 वर्षीय सुप्रिया जाना भी शामिल थीं।

लेकिन इस कांड को लेकर भी गांव में कोई एक राय नहीं है। प्रतिमा दास इसको संदेह के नजरिये से देखती हैं। उनका कहना है कि गोली पुलिस ने चलायी या फिर आंदोलनकारियों के बीच से चली यह बता पाना मुश्किल है। इस बात की पूरी आशंका है कि अपनों का भेष धारण कर आए लोगों की साजिशों का गांव वाले शिकार हो गए। 

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गांव के लोगों की आशंकाओं को बल मुख्यमंत्री और इलाके से विधानसभा की प्रत्याशी ममता बनर्जी के उस बयान से भी मिल जाता है जिसमें उन्होंने स्थानीय स्तर पर घटी सभी तत्कालीन घटनाओं के लिए शुभेंदु अधिकारी को जिम्मेदार ठहराया है। और कहा है कि उस समय जो कुछ भी हुआ था उसके लिए शुभेंदु अधिकारी जिम्मेदार हैं। लेकिन गांव वालों का कहना है कि इस बात को ममता बनर्जी अब क्यों बोल रही हैं? इससे पहले तो वह खुद भी पुलिस और प्रशासन को ही मुख्य तौर पर सारी घटनाओं के लिए जिम्मेदार मान रही थीं। या तो ममता बनर्जी तब सही थीं या फिर आज सही हैं। दोनों एक साथ तो सच नहीं हो सकता है? ऐसा मदन मोहन ने फोन पर इन पंक्तियों के लेखक के साथ बातचीत में कहा।

उनका कहना है कि अगर शुभेंदु अधिकारी जिम्मेदार हैं तो वही तो उस समय टीएमसी के नेता भी थे। ऐसे में ममता बनर्जी अपनी जिम्मेदारी से कैसे बच सकती हैं? उन्होंने इस सिलसिले में इलाके के तीन और टीएमसी नेताओं खोकुनसीट, आबू ताहिर शेख और सूफियान का जिक्र किया जो इस आंदोलन का स्थानीय स्तर पर अगुआई कर रहे थे। मदन मोहन ने सवालिया अंदाज में पूछा कि ममता इनको कैसे अपने से अलग कर सकती हैं।

इस पूरी बातचीत के दौरान गांव वाले बार-बार सीपीएम नेताओं के उन बयानों का जिक्र कर रहे थे जिसमें उनका कहना था कि गांव वाले नहीं चाहेंगे तो उनकी जमीन नहीं ली जाएगी।

बहरहाल आज जबकि इस घटना को 13 साल बीत गए हैं। और सूबे में सत्ता बदल गयी है। और लोग एक ऐसी स्थिति में आ गए हैं कि पूरी घटनाओं और उसके नतीजों तथा भविष्य की वंचित संभावनाओं पर ठंडे दिमाग से विचार कर सकें। इस स्थिति में गांव में अब सालिम ग्रुप के केमिकल प्रोजेक्ट के पक्ष में एक मजबूत हवा दिखती है। और उसे चूके हुए एक मौके के तौर पर देखा जाता है। ज्यादातर लोगों का कहना था कि रोजगार गांव ही नहीं बल्कि इलाके का बड़ा सवाल बना हुआ है। ऐसे में इस तरह का कोई उपक्रम इलाके के लोगों का यह संकट हल कर सकता था।

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आय के साधन के नाम पर लोगों के पास एक से डेढ़ बीघा तक की जमीनें हैं जिनसे न तो परिवार का पेट पाला जा सकता है और न ही कोई दूसरा काम हो सकता है। ऐसे में हर परिवार के लिए खेती से अलग रोजगार वक्त की जरूरत बन गयी है। इस मामले में उन परिवारों की हालत और बदतर हो जाती है जिनके पास अपनी कोई जमीन नहीं है। और उनके पास कूत पर खेती करने या फिर बाहर जाकर रोटी कमाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता है। आलम यह है कि कूत पर खेती के बाद भी उन्हें कुछ महीनों के लिए बाहर जाकर काम करना पड़ता है। प्रतिमा दास पति के साथ कुछ महीनों के लिए ओड़िशा चली जाती हैं और वहां बालू-सीमेंट का काम करके कुछ पैसे कमा लेती हैं और उसी से फिर उनके परिवार का गुजारा होता है।

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मारे गए किसानों की याद में बनी शहीद मीनार।

ऊपर से कोढ़ में खाज मनरेगा का जमीन पर लागू न हो पाना है। गांव वालों ने बताया कि सोनाचुरा जलपाई गांव में मनरेगा योजना के तहत एक भी काम नहीं हुआ है। लेकिन ऐसा नहीं है कि योजना चल नहीं रही है। वह कागजों पर फर्राटे से दौड़ रही है। लोगों के पास जॉब कार्ड हैं लेकिन काम नहीं है। हरिपदा ने बताया कि मनरेगा का सारा पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जा रहा है। सूबे में सत्तारूढ़ पार्टी के लोग एजेंट बनकर सारा पैसा हड़प जा रहे हैं। मनरेगा में भ्रष्टाचार का मोडस आपरेंडी यह है कि अपने चहेतों को जॉब कार्ड बनाया जाता है और फिर उनको कुछ पैसे देकर उनके हस्ताक्षर हासिल कर लिए जाते हैं और फिर बाकी पैसे सत्तारूढ़ पार्टी के स्थानीय नेताओं की जेब में चले जाते हैं।

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इस पूरे प्रकरण का इस्तेमाल सीपीएम के खिलाफ गुस्सा भड़काने में किया गया। जमीन पर इसे सीपीएम नेताओं और कार्यकर्ताओं के यहां चाय पीने की मनाही से लेकर शादी-विवाह के बायकाट तक ले जाया गया। और यह कई जगहों पर सीपीएम नेताओं के ऊपर हमले में तब्दील हो गया। यह अनायास नहीं है कि सीपीएम के नंदीग्राम स्थित दफ्तर पर चार-चार बार हमले किए गए। दो बार उसे जलाने की कोशिश की गयी। यह बात खुद इलाके से सीपीएम प्रत्याशी मीनाक्षी मुखर्जी ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया। और फिर सत्ता में आने के बाद टीएमसी ने इस हमले को संगठित रूप से तेज कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि ज्यादातर सीपीएम के स्थानीय नेता प्रतिरोध करने की जगह इलाकों से भाग खड़े हुए। ऐसे में कार्यकर्ताओं के पास समर्पण करने या फिर किसी दूसरी पार्टी के संरक्षण में जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। 2019 के लोकसभा चुनाव में वोटों और सीटों के तौर पर मिली बीजेपी को बढ़त इसी का नतीजा थी। जिसमें आम तौर पर माना जाता है कि सीपीएम का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी के प्रत्याशियों के लिए वोट किया। और खुद सीपीएम का वोट घटकर 7 फीसदी रह गया। 

स्थानीय स्तर पर यह लड़ाई और विद्रूप हो गयी। खुद सोनाचुरा जलपाई में सीपीएम कार्यकर्ताओं को अपनी जान बचाने के लिए हरजाने देने पड़े। अपना नाम न छापने की शर्त पर कुछ लोगों ने इसका खुलासा भी किया। एक शख्स ने 50 हजार, एक दूसरे ने 10 हजार और एक तीसरे शख्स ने 2 हजार रुपये हरजाने के तौर पर टीएमसी नेताओं को दिए थे।

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अब सीपीएम इन सब सच्चाइयों के सहारे इलाके में फिर से अपना रास्ता बनाने में जुट गयी है। उसका कहना है कि वह पहले से ही इन सारी बातों को कह रही थी लेकिन उसकी कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। लेकिन अब जबकि लोगों को हकीकत पता चल रही है तो लोग अपनी गलतियों का अहसास कर रहे हैं। चुनाव के दौरान सीपीएम प्रत्याशी के पक्ष में सहानुभूतिपूर्ण रुझान इसका स्पष्ट संकेत है। जहां तक रही भूमि अधिग्रहण और उसके खतरों की बात तो इस बात में कोई शक नहीं कि वह किसानों के सामने मौजूद था। क्योंकि नंदीग्राम से पहले सिंगूर हो चुका था। जिसमें टाटा की नैनो के लिए पश्चिम बंगाल सरकार ने तकरीबन 1000 एकड़ जमीन अधिग्रहण की घोषणा की थी। जिसमें तमाम विरोधों के बावजूद तकरीबन 600 एकड़ उसने हासिल भी कर लिए थे। और उस पर निर्माण कार्य भी शुरू हो गया था।

(सोनाचुरा जलपाई, नंदीग्राम से महेंद्र मिश्र की रिपोर्ट।)

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