Friday, March 29, 2024

पीएम मोदी ने किया सरकारी जमीनों को पूंजीपतियों को सौंपने का फैसला

चुनाव-2022 की जीत और हार के बीच में एक खबर ऐसी भी आई जो चर्चा से बाहर रह गई। जबकि इसका असर देश की अर्थव्यवस्था पर लंबे समय तक देखा जायेगा। 9 मार्च, 2022 को कैबिनेट ने सरकारी जमीनों को बेचने के लिए नेशनल लैंड मोनेटाईजेशन कार्पोरेशन बनाने की अनुमति दे दी। इसका काम रेलवे से लेकर रक्षा मंत्रालय की कथित अतिरिक्त जमीनों को बेचने और सेंट्रल पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज और सरकार से जुड़ी अन्य ऐजेंसियों के अतिरिक्त मकानों आदि को रूपये में बदलना होगा। सार्वजनिक उद्यमों को सक्षम बनाने, बेचने आदि के नाम पर यह प्रक्रिया पहले से ही चल रही है। लेकिन, सरकार की नजर में यह काम ठीक हो पा नहीं रहा था, इसलिए कुछ और सक्षम व्यवस्था की गई है। यह नेशनल लैंड मोनेटाइजेशन कार्पोरेशन वित्तमंत्रालय के अंतर्गत काम करेगा लेकिन इसकी अपनी आर्थिक संरचना होगी।

जिन मुख्य क्षेत्रों की जमीन और एसेट बेचने की तैयारी है उसमें रेलवे, रक्षा और टेलीकम्युनिकेशन क्षेत्र हैं। कथित नाॅन कोर सेक्टर के अंतर्गत आने वाले एमटीएनल, बीएसएनएल, बीपीसीएल, बीईएमएल, एचएमटी के पास प्राईम लोकेशन पर न सिर्फ जमीनें हैं बल्कि उनके भवन और संरचनागत ढांचा है। इन कंपनियों को सक्षम बनाने के नाम पर इसके शेयर बेचे गये, फिर निजी भागीदारी खोली गई, इसके बाद इनमें काम करने वाले कर्मचारियों को बड़े पैमाने पर छांटा, निकाला और रिटायर किया गया और फिर इसका संचालन निजी प्रबंधकों के हाथ सौंप दिया गया। अब इसकी पूरी संरचनागत ढांचा ही नहीं बल्कि इसका अस्तित्व ही खत्म कर देने की ओर रास्ता बढ़ा दिया गया है। और यह सबकुछ निरन्तर बदलते तर्कों के साथ किया गया। अब इसके लिए एक नया नाम दिया गया है मानेटाईजेशन यानी रूपयाकरण यानी पैसा बनाने की प्रक्रिया।

इसी तरह रेलवे और रक्षा मंत्रालय की जमीनें हैं। यह कहा जा रहा है कि जो जमीन कार्यवाहियों यानी जो प्रयोग से बाहर हैं उसे बेचा जायेगा। लेकिन, इन दोनों ही क्षेत्रों निजीकरण के शिकार हो चुके हैं। रेल, रेलवे स्टेशन, टिकट बिक्री, माल ढुलाई, रख-रखाव आदि को निजीकरण के हवाले किया जा चुका है। इसलिए यहां यह कहना कि सिर्फ अतिरिक्त जमीनें ही बेची जायेंगी, से बात स्पष्ट नहीं होती है। शहरों में रेलवे की विशाल जमीनों के एक हिस्से में स्लम बसे हुए हैं जहां लाखों कामगार लोग अपनी जिंदगी बसर कर रहे हैं। क्या उन्हें ऑपरेशनल जमीन के अंतर्गत माना जायेगा?

पिछले कुछ सालों में दिल्ली में ही रेलवे के किनारे बसे रेलवे झुग्गियों को उजाड़ने के लिए सिर्फ प्रशासन ही नहीं न्यायालय भी आदेश पारित करने में आगे रहे। यदि सरकार इन जमीनों को बेचती है तब खरीददार और उस जमीन पर बसे लोगों के बीच आये विवाद से सरकार खुद को अलग कर लेगी। ऐसी ही स्थिति रेलवे की अतिरिक्त जमीनों पर लगाये जंगलों की भी रहेगी। बड़े पैमाने पर इनकी कटाई की संभावना इंकार नहीं किया जा सकता है। इसके साथ साथ यदि हम रेलवे की अपनी विशाल काॅलोनियां रही हैं। कर्मचारियों की नियुक्ति में गिरावट और निजीकरण इन काॅलोनियों को बिल्डरों के हाथ में नहीं पहुंचेगा, इसे कैसे इंकार किया जा सकता है।

ऐसी स्थिति रक्षा मंत्रालय की है। यह रेलवे की तरह ही एक इंटिग्रेटेड व्यवस्था है। इसमें काॅलोनियों से लेकर रक्षा गतिविधि और रक्षा उत्पादन तक एक साथ जुड़े होते हैं। विशाल कैंटोन्मेंट एरिया देश के हर बड़े शहर के सामानान्तर एक शहर होते हैं। इस मंत्रालय के पास 17.96 लाख एकड़ जमीन है। 62 कैंटोनमेंट का कुल क्षेत्रफल 1.6 लाख एकड़ में बसा हुआ है। बाकी जमीनें इसके बाहर हैं। आप सोच रहे होंगे, यह जमीनें कहां हैं। इन अतिरिक्त जमीनों का एक बड़ा हिस्सा चांदमारी यानी बंदूक संचालन और रक्षा प्रैक्टिस के लिए हैं। बहुत सी जमीनें रणनीतिक क्षेत्र के नाम पर रखा गया।

यदि हम रेलवे, रक्षा, सिंचाई इन तीन विभागों के विकास को अंग्रेजों के समय से देखना शुरू करें तब इन तीनों के बीच के गहरे संबंध को ठीक से समझ पायेंगे और इनकी जमीनों के बढ़ते आकार को भी देख पायेंगे। जैसे, पंजाब को पश्चिमी सीमा को सुरक्षित रखने के लिए अंग्रेजों ने जब मुख्य सैन्य ठिकाना बनाया तब बड़े पैमाने पर जमीनें कब्जा की गई, भर्ती के लिए नये रेजीमेंट बनाये गये। भोजन आपूर्ति के लिए पुरानी चारागहों और पशुपालन व्यवस्था को खत्म किया गया। खेतों को सिंचाई के लिए कैनाल यानी नहरों के जाल से भर दिया गया।

सिंचाई विभाग ने बड़े पैमाने पर जमीनें कब्जा की और उसका पुनर्वितरण किया। इस तरह कैनाल काॅलोनियों का जन्म हुआ। रेलवे इनके बीच नसों की तरह फैला हुआ था। यह औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का एक माॅडल था। यह माॅडल बाद के दिनों में चलता। पैटर्न यही था। भारत के जिस भी हिस्से में सिंचाई विभाग, रेलवे और रक्षामंत्रालय गया विशाल जमीनों को अपने कब्जे में करता गया। आज भी गांवों में, चाहे वे आदिवासी क्षेत्र हो या मैदान वहां इन संरचनाओं में उजड़ गये लोगों की दर्दनाक कहानियां सुनने को मिल सकती है।

यह सबकुछ देश की रक्षा, सुरक्षा, विकास की दावेदारी के साथ हुआ था। अब इन्हीं तर्कों के साथ इसे निजी हाथों में बेच देने की तरफ बढ़ा जा रहा है। निश्चत यह एक गंभीर मसला है। यह सही है कि राज्य संप्रभु होने का दावा करता है जबकि सच्चाई यही रहती है कि वह प्रभुत्वशाली वर्ग की सेवा करता है। यह एकदम सही है वह जनता की सेवा का दावा तो करता है लेकिन असल  में वह प्रभुत्वशाली वर्ग और संपत्तिशाली वर्ग की सेवा करता है।

(लेख- जयंत कुमार)

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