अब गैर-बराबरी और सामंतवाद का भी महिमामंडन!

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देश में आर्थिक गैर-बराबरी पर छिड़ी, लेकिन गुमराह होती गई बहस में कूदते हुए मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक चुनाव सभा में टेक्नोक्रेट सैम पित्रोदा को संबोधित करते हुए कहा कि ‘यह अमेरिका नहीं, भारत है। भारत की संस्कृति, परंपरा और नैतिक मूल्य अमेरिका जैसे नहीं हैं। भारत, भारत है।’ (On Sam Pitroda’s US Remark, Shivraj Chouhan’s Lesson On ‘Indian Culture And Tradition’ (ndtv.com))

कांग्रेस के सलाहकार माने जाने वाले पित्रोदा चूंकि अमेरिका में रहते हैं और भारत में बढ़ती गैर-बराबरी की पृष्ठभूमि में उन्होंने अमेरिका में लगने वाले उत्तराधिकार कर का उल्लेख किया था, तो चौहान ने इस मुद्दे पर भारत और अमेरिका का फर्क उन्हें समझा दिया! उनका मंतव्य यही है कि भारत महान है, अमेरिका जो होगा सो होगा!

चौहान के बयान का यह बेलाग संदेश है कि भारत की संस्कृति और परंपरा गैर-बराबरी की है और यहां के नैतिक मूल्य इसका समर्थन करते हैं। यानी गैर-बराबरी वाजिब है! यहां जो हालात हैं, वे उचित हैं- उनमें बदलाव या सुधार के बारे में सोचना गैर-भारतीय है!

वैसे चौहान जिस विचारधारा से जुड़े हैं, उसके नजरिए से देखें, तो उनके बयान में कोई हैरत की बात नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना ही उस संस्कृति, परंपराओं और मूल्यों की रक्षा के लिए हुई थी, जिन्हें समता और न्याय की आधुनिक समझ से चुनौती मिल रही थी। संघ ने अपने पूरे इतिहास में पारंपरिक गैर-बराबरी, शोषण और सामाजिक निरंकुशताओं का बचाव किया है। कई बार ऐसा सीधे करने के बजाय इस विषय को सांप्रदायिक रंग देकर उसने बचाव की ढाल तैयार की है।

वर्तमान आम चुनाव के दौरान इस बहस को मुद्दा बनाने की शुरुआत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की। उन्होंने धन के पुनर्वितरण के गंभीर और व्यापक प्रश्न को सांप्रदायिक रंग देते हुए कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह हिंदुओं का धन छीनकर मुसलमानों में बांटने का इरादा रखती है। पिछले दस दिन में इस बात को वे कई बार अलग-अलग शब्दों में दोहरा चुके हैं। (गैर-बराबरी के मुद्दे पर गुमराह करने में जुटे मोदी | जनचौक (janchowk.com))

आज भारतीय समाज पर आरएसएस/भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक वर्चस्व इस हद तक कायम हो चुका है कि आधुनिक विवेक पर आक्रमण करने वाले उनके नेताओं के ऐसे बयानों पर भी विपक्ष और बौद्धिक समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा बचाव की मुद्रा में चला जाता है। नतीजा है कि ऐसे बयानों के पीछे मौजूद सोच और बहस को भटकाने की भाजपा की मंशा को बेनकाब करना संभव नहीं हो पाता। मसलन, बांसवाड़ा में मोदी के दिए बहुचर्चित भाषण के बाद से कांग्रेस पार्टी सफाई देते नहीं थक रही है।

उसका स्पष्टीकरण यह है कि कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणापत्र में कहीं भी उत्तराधिकार कर लगाने की बात नहीं की है। हास्यास्पद तो यह है कि सफाई देने के क्रम में कांग्रेस नेता उन भाजपा नेताओं के बयानों को प्रचारित करने की हद तक चले गए, जिन्होंने कभी उत्तराधिकार कर की बात की थी। साथ ही कांग्रेस का सीना चौड़ा करने की कोशिश में वे यह याद दिलाने में जुट गए कि ये दरअसल, उनके नेता राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए वेल्थ टैक्स को खत्म किया था।

कांग्रेस के करीबी माने जाने वाले भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी इस बहस में हस्तक्षेप किया है। उन्होंने कहा- समावेशी विकास (inclusive growth) से आर्थिक वृद्धि की दर तेज होगी, लेकिन ‘धनी लोगों पर टैक्स लगाना इसका समाधान नहीं है।’ राजन ने कहा कि हममें से जो लोग सफल नहीं हैं उन लोगों को ऊपर लाने की कोशिश करनी चाहिए, सफल लोगों को नीचे धकेलने की नहीं। (Raghuram Rajan on wealth distribution idea: ‘Let’s try and elevate, rather than bring the successful down’ (msn.com))। जबकि यह बात अपने-आप में बेतुकी है।

बहरहाल, इस बहस का सार क्या है? यही कि उत्तराधिकार कर की बात करना जैसे कोई पाप हो! इस ओर सोचना भी नहीं चाहिए। चूंकि आर्थिक गैर-बराबरी एक वास्तविक समस्या है, जो लगातार विकराल रूप लेती जा रही है, इसलिए विपक्ष में मौजूद पार्टी और उसके समर्थक बुद्धिजीवी उसे नजरअंदाज तो नहीं कर सकते, लेकिन उनका अपना वर्ग चरित्र उन्हें इसके कारणों और समाधान पर सोचने-बोलने की इजाजत भी नहीं देता।

यह बात और जाहिर हुई, जब कांग्रेस की तरफ से सफाई देते हुए पार्टी नेताओं सलमान सोज और अमिताभ दुबे ने एक लेख लिखा। इस लेख में फ्रेंच अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के हवाले से कहा गया कि यह समस्या महामारी बन गई है। लेख में कहा गया- कांग्रेस पार्टी की दलील है कि गैर-बराबरी की जड़ें बेरोजगारी, गतिरुद्ध वेतन, कमजोर निवेश, छोटे कारोबारियों के खिलाफ माहौल और असमान कर व्यवस्था में हैं।

बहरहाल, ‘बेरोजगारी, गतिरुद्ध वेतन, कमजोर निवेश, छोटे कारोबारियों के खिलाफ माहौल और असमान कर व्यवस्था’ का कारण क्या है, इस बारे में कांग्रेस नेताओं ने चुप रहना ही बेहतर समझा है। उन्होंने अपनी भाषा को इस तरह ढाला है, जिससे निष्कर्ष यह निकले कि इन सारी समस्याओं के लिए जिम्मेदार नरेंद्र मोदी सरकार है। यानी इन समस्याओं को गहराने में उन नीतियों का कोई योगदान नहीं है, जिन्हें 1991 में खुद कांग्रेस की पीवी नरसिंह राव सरकार ने लागू करना शुरू किया था। यानी कांग्रेस का समाधान यह है कि मतदाता मोदी सरकार को हरा कर सत्ता कांग्रेस को सौंप दें, तो सब ठीक हो जाएगा! स्पष्ट है, कांग्रेस में नीतियों पर कोई पुनर्विचार नहीं हुआ है।

इसलिए इस बहस का एक सार यह भी है कि आर्थिक नीतियों पर देश की लगभग सारी राजनीतिक पार्टियों के बीच कोई असहमति नहीं है। जबकि अगर थॉमस पिकेटी जैसे अर्थशास्त्री की बातों पर ही गौर करें- जो किसी भी रूप में कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट नहीं हैं- तो उसका सार यही निकलता है कि आज की विकराल गैर-बराबरी उन नीतियों का परिणाम है, जिन्हें ‘व़शिंगटन आम सहमति’ के तहत- यानी नव-उदारवाद के नाम पर- पिछले चार दशकों से दुनिया पर थोपा गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में इन नीतियों के विकल्प पर सोचने की कोई जरूरत महसूस नहीं की जा रही है।

राजनीतिक पार्टियों की मजबूरी क्या है, इसका कुछ अंदाजा हम लगा सकते हैं। आम जन भले इससे नावाकिफ हों, लेकिन वे पार्टियां जानती हैं कि अगर सत्ता में आना है, तो उसकी पहली शर्त देश के शासक वर्ग (जिसका आज अर्थ मुख्य रूप से मोनोपॉली कॉरपोरेट घरानों से ही हो गया है) का भरोसा जीतना जरूरी है। इसलिए वे ऐसी बातें नहीं कहना चाहतीं, जिससे ये तबका उनके विरुद्ध हो जाए। ये दीगर बात है कि इस कालखंड में यह तबका अपने राजनीतिक औजार के रूप में भाजपा का चयन कर चुका है। भाजपा के पीछे इस वर्ग की पूरी ताकत लगी हुई है।

बहरहाल, भाजपा ने विपक्ष को सिर्फ आर्थिक मुद्दों पर बचाव का रुख अपनाने को मजबूर नहीं किया है। आश्चर्यजनक यह है कि सामंतवाद के इतिहास पर भी वह कांग्रेस को अपनी सोच के पीछे चलने को मजबूर कर रही है। प्रसंग कांग्रेस नेता राहुल गांधी का एक बयान है। पिछले दिसंबर में नागपुर में आयोजित ‘हम तैयार हैं’ रैली में उन्होंने कहा था- ‘भाजपा और आरएसएस देश को आजादी के पहले के गुलामी वाले दौर में ले जाना चाहते हैं। भाजपा की विचारधारा राजा-महाराजाओं की विचारधारा है, जो किसी की नहीं सुनते थे। अगर वे किसी की जमीन छीनना चाहते थे, तो ऐसा करके ही रहते थे।’

प्रधानमंत्री मोदी ने अब आकर इसे मुद्दा बनाया है। उन्होंने इसे सांप्रदायिक रंग दिया है। कांग्रेस के ‘शहजादे’ पर उन्होंने आरोप लगाया कि उन्होंने राजा-महाराजाओं का अपमान किया है, जबकि उन्हें नवाबों के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं हुई है। मोदी यहीं नहीं रुके। उन्होंने अतीत के कई राजाओं का नाम लेकर उनकी दिल खोलकर तारीफ भी की। (On Rahul Gandhi’s ‘Raja, Maharaja’ Remark, PM Modi Says ‘Shehzada Didn’t Utter Single Word On…’ | Times Now (timesnownews.com))

वैसे इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। भाजपा (अपने पुराने संस्करण जनसंघ के दिनों से लेकर) हमेशा राजवंशों की प्रशंसक रही है। आजादी के बाद राजा-महाराजाओं की पसंदीदा पार्टी जनसंघ ही थी। भाजपा अपनी विचारधारा में सामंतवाद-पूंजीवाद की समर्थक है।

लेकिन कांग्रेस के नेता भी आज के दौर में खुल कर सामंतवाद का समर्थन करें, तो क्या कहा जाएगा! आखिर राहुल गांधी की बात में गलत क्या है? इसके बावजूद उनकी पार्टी इस मुद्दे पर सफाई देने के लिए सामने आई। कहा कि मोदी राहुल गांधी के बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं। (Congress Alleges PM Modi ‘Twisting’ Rahul Gandhi’s ‘Raja, Maharaja’ Remark To ‘Ignite Communal Prejudices’ (msn.com))

कांग्रेस नेता शक्ति सिंह गोहिल तो राजा-महाराजाओं को देशभक्त बताने की हद तक चले गए। यह भी कह डाला कि आजादी के बाद राजा-महाराजाओं ने अपनी रियासतों का स्वेच्छा से भारतीय गणतंत्र में विलय कर देशभक्ति का परिचय दिया था। इस तरह एक झटके में गोहिल ने भारत के एकीकरण में सरदार पटेल के ऐतिहासिक योगदान की कथा को किसी कूड़ेदान में डाल दिया। (ANI on X: “#WATCH | Gujarat Congress President Shaktisinh Gohil says, “The PM who is from the BJP said this in the Parliament that the Rajas and Maharajas had a close relationship with the Britishers who looted the country. The Rajas and Maharajas fought against the Britishers on the appeal… https://t.co/SxNgFi0q83” / X (twitter.com))

बेशक, मोदी ने राहुल गांधी के बयान को सांप्रदायिक रंग देकर उसे तोड़ा-मरोड़ा है। मगर यह उनके अपने अंदाज के अनुरूप ही है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या जिस रूप में राहुल गांधी ने ये बातें कही थीं, क्या कांग्रेस को उसके पक्ष में मजबूती से खड़ा नहीं होना चाहिए?

यहां ये तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि पहले आरएसएस-भाजपा ने धर्मनिरपेक्षता शब्द की साख धूमिल करने में सफलता पाई, फिर सभी पार्टियों को मुसलमान शब्द और समुदाय पर चुप रहने को मजबूर किया, और अब वह गैर-बराबरी और सामंती इतिहास पर भी विपक्षी पार्टियों को बचाव की मुद्रा में डाल रही है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि इस तरह के वैचारिक समर्पण के बाद विपक्ष कैसे उन संवैधानिक उसूलों की रक्षा करेगा, जिन्हें बचाने के नाम पर वह 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ रहा है?

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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