ईवीएम की गिनती को वीवीपैट से सत्यापित कराने की मांग एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गयी है। पूरे देश में चाहे विपक्ष हो या आम आदमी हर किसी के मन मस्तिष्क में ईवीएम की शुचिता का सवाल है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की इस पर धारणा ‘अत्यधिक आदर्शवादी’ प्रतीत होती है। सुप्रीम कोर्ट के सामने वर्ष 2019 के चुनावों में 370 से ज्यादा लोकसभा सीटों के वोट काउंट में अंतर का मामला लंबित है और चुनाव आयोग के पास के पास कोई जवाब नहीं है। ऐसे में ईवीएम की गिनती को वीवीपैट से सत्यापित कराने में यदि मतगणना में दो-तीन दिन लग भी जाएं तो नागरिकों को यह भरोसा तो रहेगा कि चुनाव निष्पक्ष हुए हैं, इजरायली हैकर्स की मदद से इन्हें मैनेज नहीं किया गया है, ईवीएम मशीनें बदली नहीं गयी हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने एनजीओ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की ईवीएम की गिनती को वीवीपैट से सत्यापित कराने की मांग वाली याचिका पर चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। आयोग को जवाब दाखिल करने के लिए तीन हफ्ते का वक्त दिया गया है। याचिका में मांग की गई है कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों और मतदाता-सत्यापन योग्य पेपर, ऑडिट ट्रेल इकाइयों की गिनती को एक-दूसरे के साथ मिलान किया जाना चाहिए।
वर्तमान में, केवल लगभग 2% ईवीएम की गिनती का वीवीपैट से मिलान किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनाव आयोग को आवश्यक मैचों की संख्या तय करने में जनशक्ति जैसे कारकों को ध्यान में रखना चाहिए। इसी तरह की याचिकाएं 2019 से लंबित हैं और अगली सुनवाई में इन पर एक साथ विचार किया जाएगा।
याचिका में चुनाव आयोग को सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत चुनाव आयोग (2013) मामले में जारी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तात्पर्य और उद्देश्य को पूर्ण रूप से लागू करने का निर्देश देने की मांग की गई है। हालांकि, एन चंद्रबाबू नायडू बनाम भारत सरकार (2019) मामले में चुनाव के आखिरी समय शुरू हुई कार्रवाई और चुनाव आयोग की बताई गई मैन पावर की उपलब्धता सहित बुनियादी ढांचे की कठिनाइयों को इंगित करने पर सुप्रीम कोर्ट ने हर विधानसभा क्षेत्र के पांच मतदान केंद्रों में वीवीपैट की गिनती करने का निर्देश दिया था।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की याचिका में यह घोषणा करने की मांग की गई थी कि प्रत्येक मतदाता को यह सत्यापित करने का मौलिक अधिकार है कि उसका वोट ‘डालने के रूप में दर्ज किया गया है’ और ‘अभिलेखित’ के रूप में गिना गया। जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की खंडपीठ के समक्ष वकील प्रशांत भूषण एनजीओ की ओर से पेश हुए। शुरुआत में ही, जस्टिस खन्ना ने वकील से पूछा, “मिस्टर भूषण, क्या हम ज़रूरत से ज़्यादा शक नहीं कर रहे हैं?”
इस पर प्रशांत भूषण ने दलील दी कि ‘कभी-कभी दर्ज वोट और वोटों की गिनती मेल नहीं खाती है, क्योंकि केवल कुछ वीवीपैट का मिलान ईवीएम की वोटों की गिनती से किया जा रहा है’। भूषण ने कहा, “मैं एक बात से सहमत हूं कि कभी-कभी हम जरूरत से ज्यादा शक करते हैं। मैं खुद कहता रहा हूं कि यह विचार कि ईवीएम को हैक किया जा सकता है, सही नहीं हो सकता है। लेकिन ऐसे तीन तरीके हैं जिनसे ईवीएम सही गिनती या मतदान को प्रतिबिंबित नहीं कर सकती है।”
उन्होंने कहा कि प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में पांच बेतरतीब ढंग से चुने गए मतदान केंद्रों में केवल इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की गिनती को मतदाता-सत्यापन योग्य पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) रिकॉर्ड के साथ मिलान किया गया था, भले ही ईवीएम और वीवीपैट रिकॉर्ड के बीच विसंगति के हजारों उदाहरण थे।
उन्होंने समझाया, “तीन अलग-अलग रिकॉर्ड हैं। ईवीएम, वीवीपैट और एक रजिस्टर जिसमें लोगों को हस्ताक्षर करना होता है। तीनों को आदर्श रूप से मेल खाना चाहिए। लेकिन, यह पाया गया है कि रजिस्टर और ईवीएम के बीच भारी विसंगति है।”
जस्टिस खन्ना ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “मैं इसे समझा सकता हूं। कभी-कभी, कोई व्यक्ति रजिस्टर पर हस्ताक्षर करता है लेकिन जब वह अंदर जाता है, तो बीप के बाद बटन नहीं दबाता है। अब तो डिस्प्ले बोर्ड भी है, अगर आपने वोट दिया है तो संख्या बढ़ जाती है। ऐसा भी होता है कि कई मतदान केंद्र हो सकते हैं। इसलिए, जब बड़ी भीड़ होती है, तो एक व्यक्ति बूथ भरने में व्यस्त हो सकता है। यह हो सकता है। मुझे लगता है कि हम कुछ ज़्यादा ही शक कर रहे हैं।”
जस्टिस त्रिवेदी ने वकील से कहा कि ‘भारत का चुनाव आयोग मतदान प्रणाली को किसी भी छेड़छाड़ के प्रयास के प्रति अधिक अभेद्य बनाने के लिए कदम उठा रहा है। जब मैं जस्टिस चंद्रचूड़ की पीठ का हिस्सा थी, हम इस विषय पर एक याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। चुनाव आयोग ने हमें तब यही बताया था।’ आगे कहा, “केवल लगभग दो प्रतिशत ईवीएम के रिकॉर्ड को वीवीपैट रिकॉर्ड के विरुद्ध क्रॉस-सत्यापित किया जाता है। यह लगभग 4000 वीवीपैट या 20 लाख वोट हैं।“
भूषण ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अधिक ईवीएम के डेटा टैली करने की आवश्यकता है। इसके जवाब में, जस्टिस खन्ना ने बताया कि चुनाव आयोग जनशक्ति आवश्यकताओं और अन्य कारकों द्वारा सीमित था। वकील ने पीठ को यह भी बताया कि एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने कॉमन कॉज के साथ मिलकर 2019 में सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था और उसी साल हुए 17वें लोकसभा चुनावों में कथित विसंगतियों की जांच की मांग की थी।
उस याचिका में प्रार्थना की गई थी कि ईवीएम की गिनती को रजिस्टर के रिकॉर्ड के साथ मिलान किया जाए, अब हम इसे वीवीपैट के साथ क्रॉस-सत्यापित करने के लिए कह रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर नोटिस जारी किया और इसे तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा दायर एक समान याचिका के साथ टैग करने का निर्देश दिया, जिसमें 2019 के चुनावों में मतदाता मतदान और अंतिम वोटों की गिनती से संबंधित विवरण प्रकाशित करने की मांग की गई थी। जस्टिस खन्ना ने संक्षिप्त सुनवाई के अंत में अंततः कहा कि हम इसमें नोटिस जारी नहीं कर रहे हैं, लेकिन इस याचिका की एक प्रति भारत के चुनाव आयोग के स्थायी वकील को दें।
पीठ ने कहा कि ‘चुनाव आयोग के लिए नामित/स्थायी वकील को एक उन्नत प्रति दी जाए। हमारा ध्यान एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एंड अन्य बनाम भारत का चुनाव आयोग और अन्य में पारित 13 दिसंबर, 2019 के एक आदेश की ओर आकर्षित होता है, जिसमें नोटिस जारी किया गया था और रिट याचिका को 2019 की रिट याचिका (सिविल) संख्या 1389 के साथ टैग करने का निर्देश दिया गया था। तीन सप्ताह के बाद फिर से सूचीबद्ध करें।’
प्रशांत भूषण के माध्यम से दायर वर्तमान याचिका में न केवल यह घोषणा करने की मांग की गई है कि यह सत्यापित करना प्रत्येक मतदाता का मौलिक अधिकार है कि उनका वोट ‘डालने के रूप में दर्ज किया गया है’ और ‘रिकॉर्ड के रूप में गिना गया’ है, बल्कि उचित परिवर्तनों को प्रभावित करने के निर्देश भी दिए गए हैं।
इस अधिकार को लागू करने और सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत चुनाव आयोग में 2013 के फैसले के उद्देश्य और उद्देश्य को पूर्ण प्रभाव देने के लिए, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए ‘पेपर ट्रेल’ को एक अनिवार्य आवश्यकता माना था और ईसीआई वीवीपीएटी तंत्र शुरू करने का निर्देश दिया था। दूसरे शब्दों में, याचिका में तर्क दिया गया है कि प्रत्येक मतदाता को यह सत्यापित करने में सक्षम होना चाहिए कि उनका वोट ‘डाल दिया गया’ के रूप में दर्ज किया गया है और उनका वोट ‘रिकॉर्ड के रूप में गिना गया है’।
इसमें कहा गया है कि मतदाता की यह पुष्टि करने की आवश्यकता कि उनका वोट ‘डालने के रूप में दर्ज किया गया है’ कुछ हद तक पूरी हो जाती है, जब ईवीएम पर बटन दबाने के बाद मतदाता को यह सत्यापित करने के लिए एक पारदर्शी विंडो के माध्यम से वीवीपैट पर्ची लगभग सात सेकंड के लिए प्रदर्शित होती है। उसका वोट ‘मतपेटी’ में गिरने से पहले आंतरिक रूप से मुद्रित वीवीपैट पर्ची पर ‘डाल दिया गया’ के रूप में दर्ज किया गया है।
हालांकि, इसमें कहा गया है कि कानून में ‘पूर्ण शून्य’ मौजूद है क्योंकि चुनाव आयोग ने मतदाताओं को यह सत्यापित करने के लिए कोई प्रक्रिया प्रदान नहीं की है कि उनका वोट ‘रिकॉर्ड के रूप में गिना गया’ है जो मतदाता सत्यापन का एक अनिवार्य हिस्सा है।
याचिका में तर्क दिया गया है कि प्रचलित प्रक्रिया जिसके माध्यम से ईसीआई केवल सभी ईवीएम में इलेक्ट्रॉनिक रूप से दर्ज वोटों की गिनती करता है और प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में केवल 5 यादृच्छिक रूप से चयनित मतदान केंद्रों में वीवीपैट के साथ संबंधित ईवीएम को क्रॉस-सत्यापित करता है, दोषपूर्ण है।
याचिका में कहा गया है कि ईवीएम में संग्रहीत गिनती स्वाभाविक रूप से किसी भी कारण से वीवीपैट में परिलक्षित गिनती के साथ भिन्नता के लिए खुली होती है, जैसे कि ईसीआई द्वारा निर्धारित क्या करें और क्या न करें के जटिल क्रम में वास्तविक मानवीय त्रुटियां, जिसमें कई व्यक्तियों को शामिल किया जाना है।
यक्ष प्रश्न यह है कि सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं चाहता की वीवीपैट की सारी पर्चियों को गिना जाए? क्या धांधली को उसके संज्ञान में न लेने के कारण बढ़ावा मिल रहा है? चुनावी प्रक्रिया में जब लगभग तीन महीने से सारे सरकारी काम मंद पड़ जाते हैं तो गिनती में दो-तीन दिन लग जाएं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है?
गौरतलब है कि देश में चुनावों में इस्तेमाल होने वाली करीब 19 लाख ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) गायब हैं। यह आरोप कर्नाटक के वरिष्ठ कांग्रेस नेता और विधायक एच के पाटिल ने लगाया था। उन्होंने कर्नाटक विधानसभा के तत्कालीन स्पीकर विश्वेश्वर हेगड़े कागेरी से मुलाकात कर सुप्रीम कोर्ट के जज से इस मामले की स्वतंत्र जांच की मांग की थी।
एच के पाटिल ने स्पीकर को 2,750 पन्नों का दस्तावेज भी सौंपा था जिसमें आरटीआई के जरिए चुनाव आयोग, ईवीएम बनाने वाली कंपनियों से हासिल किए गए जवाब शामिल थे। इन दस्तावेजों से सामने आया था कि ईवीएम बनाने वाली कंपनियों ने जितनी मशीनें बनाकर चुनाव आयोग को सौंपी थीं उनमें से करीब 19 लाख मशीनों का कोई अता-पता नहीं है। इस मामले में कोर्ट का भी दरवाजा खटखटाया जा चुका है।
(जे.पी.सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)
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