कल प्रधानमंत्री मोदी ने कनाडा में हिंदुओं और सिखों के बीच हुई झड़प पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की है। उन्होंने इसे न केवल हिंदुओं पर हमला करार दिया है बल्कि कनाडाई सरकार से उनके लिए न्याय की गुहार लगायी है। प्रधानमंत्री की स्थिति को समझा जा सकता है और एक देश के राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर अपने देश के बाहर बसे नागरिकों को लेकर उनका चिंतित होना भी स्वाभाविक है। इस मामले में सिख फोरम ने भी हिंसा की निंदा की है और कनाडाई सरकार से उसके लिए जिम्मेदार लोगों को सजा देने की मांग की है। लेकिन यहां सवाल एक दूसरा है।
अगर कोई राष्ट्राध्यक्ष एक जगह घटी किसी घटना की निंदा करता है और दूसरी जगह उसी तरह की घटना घटती है तो उस पर उसका रुख क्या होना चाहिए? स्वाभाविक है उसकी भी उसको निंदा करनी चाहिए और अगर घटना उसके अपने देश में हो तो उसके लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ किसी भी कीमत पर कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा होने की जगह राष्ट्राध्यक्ष न केवल चुप रहे बल्कि और आगे बढ़कर ऐसे बयान और भाषण देना शुरू कर दे जो आग को और भड़काती हो। तो क्या ऐसे राष्ट्राध्यक्ष को बाहर की किसी ऐसी घटना पर बोलने का नैतिक हक है?
इस देश के भीतर रोजाना कोई न कोई छोटा या बड़ा बहराइच प्रायोजित किया जा रहा है। कहीं किसी मुसलमान के घर पर चढ़ कर भगवा फहराया जा रहा है तो कहीं किसी मस्जिद पर इस घटना को अंजाम दिया जा रहा है। कई जगहों पर हजारों की तादाद में एकत्रित हिंदुओं की भीड़ का एक हिस्सा मुसलमानों की मस्जिद के सामने डांस कर रहा है। तो बाकी लोग मस्जिद पर चढ़कर तोड़फोड़ कर रहे होते हैं। कई चर्चों में भी इसी तरह की तस्वीरें देखी गयी हैं।
इन ज्यादातर मामलों में पुलिस और प्रशासन मौन रहता है। या तो वह भीड़ के साथ होता है या फिर हिंसा होने के बाद घटनास्थल पर पहुंचता है। बाद में हिंसा में शामिल होने के नाम पर पीड़ित मुसलमानों के ही खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी जाती है। इस तरह से मुसलमानों को दोहरी मार का सामना करना पड़ रहा है। पहले हिंसक हिंदुओं की भीड़ से निपटना और फिर किसी उकसावे या फिर भड़कावे के चलते हिंसा हो जाने पर पुलिसकर्मियों के उत्पीड़न और उनकी कानूनी कार्रवाइयों का सामना करना। इस तरह की दर्जनों घटनाएं रोजाना सोशल मीडिया पर वायरल रहती हैं।
भारत सरकार की खुफिया एजेंसियां तो रोजाना इन घटनाओं की पीएमओ क रिपोर्ट करती हैं। क्या आपने कभी पीएम मोदी को इन घटनाओं का जिक्र करते देखा? उसकी निंदा करते अखबारों में पढ़ा? उसका संज्ञान लेकर संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री या फिर प्रशासन को निर्देश देते सुना? गृहमंत्रालय की कोई टीम कभी किसी घटना की जांच करने गयी? इसकी कभी कोई सूचना आपको मिली? कभी नहीं मिली होगी। और मिलेगी भी नहीं।
क्योंकि केंद्र की पीएम मोदी सरकार ने अब खुलेआम देश में सांप्रदायिक हिंसा फैलाने का अभियान छेड़ दिया है। और सब कुछ उसकी मर्जी और आरएसएस की निगरानी में हो रहा है। और इतना ही नहीं अब तो पीएम मोदी खुद उसकी अपने तरीके से अगुआई में जुट गए हैं। झारखंड चुनाव में उनके भाषण इसकी खुली तश्दीक करते हैं। इसी कड़ी में कल पीएम मोदी लाज, शर्म और हया की सारी सीमाएं पार कर गए। उन्हें न तो प्रधानमंत्री पद की गरिमा का ख्याल रहा। और न ही उसके मान और सम्मान का। कोई प्रधानमंत्री के पद पर रहते इस स्तर तक कैसे गिर सकता है? यह एक बड़ा सवाल है जो देश के सभ्य नागरिकों को परेशान कर रहा है।
चौराहे पर खड़ा किसी गली का पार्षद भी जिस भाषा का इस्तेमाल करने से परहेज करेगा। ड्राइम रूम में बैठा परिवार आपस में बातचीत में जिन लफ्जों से बचेगा। पीएम मोदी झारखंड की अपनी चुनावी सभाओं में उसे खुले मंच से हजारों-हजार लोगों के सामने बोल रहे हैं। घुसपैठ को पीएम मोदी और बीजेपी ने झारखंड चुनावों का केंद्रीय एजेंडा बना रखा है। और इस कड़ी में वह मुसलमानों के खिलाफ कोई भी जहर उगलने से बाज नहीं आ रहे हैं।
फेस सेविंग के लिए नाम घुसपैठिया होता है लेकिन सब लोग जानते हैं कि निशाने पर उनके आम मुसलमान हैं। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि ये आपकी रोटी छीन रहे हैं। ये आपकी बेटी छीन रहे हैं और आपकी माटी को भी हड़प रहे हैं। अब इससे नीचे भला कोई क्या गिर सकता है? इसके बाद भी बोलने और कहने के लिए कुछ बचता है?
इससे एक बात ज़रूर हो रही है। पिछले सत्तर सालों की राजनीति में समाज के व्यवहार और भाषा का जो एक सभ्य स्तर था उसे गाली-गलौच के इस स्तर पर लाकर पीएम मोदी ने खड़ा कर दिया है। लेकिन इससे समाज का जो नुकसान हो रहा है उसकी तत्काल कोई भरपाई नहीं है। दरअसल पीएम मोदी अपनी कुर्सी और सत्ता की लालच में बिल्कुल अंधे हो गए हैं। और एक सभ्य और बनते हुए सुंदर समाज को असभ्यता के पाताल में गोता लगाने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री भला क्यों इस अधोगति को प्राप्त हुए? इसका भी आकलन करना जरूरी है। दरअसल दस सालों के शासन के दौरान केंद्र सरकार का जो रवैया रहा है उसमें अब जनता को जानने-समझने के लिए कुछ बचा नहीं है। जनता भी यह समझ चुकी है कि यह एक नाकाम सरकार है जो सारे मोर्चों पर फेल हो चुकी है। उसके पास उसे देने के लिए जुमलों के सिवा कुछ नहीं है। उल्टे वह किसी न किसी तरीके से जनता का ही खून चूसने पर उतारू है जिसका बड़ा हिस्सा वह अपने चहेते कारपोरेट घरानों को दे रही है। ऐसे में अगर चुनाव के दौरान कोई नई घोषणा भी बीजेपी करती है तो उस पर जनता विश्वास नहीं करेगी बल्कि उसे उठाकर बीजेपी के जुमलों की ही टोकरी में फेंक देगी।
ऐसे में बीजेपी और आरएसएस अपने नंगे रूप में आ गए हैं। और सांप्रदायिकता के रथ पर सवार होकर देश और समाज में न केवल हिंसा भड़का रहे हैं बल्कि उसमें नफरत और जहर का पूरा विष घोल देने के लिए तैयार हैं। पूरा संघ गिरोह इसी एक सूत्री अभियान में जुट गया है। अभी तक जो कुछ लोक-लाज और मर्यादा थी पीएम मोदी ने झारखंड के चुनावों में उसे भी उतार फेंका है।
झारखंड का यह पहला चुनाव है जिसमें बीजेपी सांप्रदायिकता को केंद्रीय एजेंडा बनाने की कोशिश कर रही है। सूबे को बने 24 साल हो गए अभी तक बीजेपी कभी इसकी हिम्मत नहीं कर सकी थी। आदिवासियों के लिए बने अलग राज्य में आदिवासियों का ही एजेंडा फोर-फ्रंट पर हुआ करता था। चुनावों में इसी बात पर चर्चा होती थी कि आदिवासियों को कितना मिला और उन्होंने कितना खोया। सरकारों के बनने-बिगड़ने का पैमाना भी उसी से तय होता था। लेकिन बीजेपी इस बार पूरा पाशा ही पलट देने की कोशिश में जुट गयी है।
अगर बीजेपी अपनी इस मुहिम में कामयाब हो गयी तो जनता के बुनियादी मुद्दे हमेशा-हमेशा के लिए हाशिये पर चले जाएंगे और फिर मौजूदा ही नहीं बल्कि भविष्य में भी बीजेपी के लिए हिंदू-मुसलमान कर चुनाव जीतना बेहद आसान हो जाएगा। और फिर सूबे के प्राकृतिक संसाधनों पर कारपोरेट घरानों के कब्जे का जो अभियान शुरू होगा देश में उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। तस्वीर कुछ ऐसी बनेगी जिसमें एक तरफ जनता आपस में लड़ रही होगी और दूसरी तरफ कारपोरेट घराने उसके संसाधनों पर कब्जा कर रहे होंगे। इस दौरान न तो जनता कुछ समझ पाएगी और न ही कुछ समझने लायक बचेगी। नफरत और घृणा की नींद से जब वह जागेगी तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। उसका इतना कुछ चला गया होगा जिसकी किसी के लिए भरपाई कर पाना मुश्किल होगा।
जबकि सच्चाई यह है कि झारखंड में घुसपैठ न तो इतनी बड़ी समस्या है और न ही वह किसी रूप में किसी हिस्से को परेशान कर रहा है। बीजेपी तो उत्तराखंड तक में मुसलमानों के खिलाफ अभियान चलाए हुए है जहां ठीक से मुसलमानों की आबादी 2 फीसदी भी नहीं हैं। सूबे में वह उन्हें सबसे बड़े खतरे के तौर पर पेश कर रही है। इसी तरह से उसने देश में खतरे का एक ऐसा हौव्वा पैदा कर दिया है जो न तो वास्तविक है और न ही उसका जमीनी सच्चाई से कोई लेना-देना है।
लेकिन ह्वाट्सएपिया संदेशों के जरिये न केवल लोगों के दिमागों का अपहरण कर लिया गया है और उसकी इस तरह से प्रोग्रामिंग कर दी गयी है कि कहीं अकेला खड़ा मुसलमान भी उनके लिए किसी भीमकाय राक्षस से कम नहीं लगता है। गाजियाबाद की मेट्रो सोसाइटी तक में यह बीमारी अगर घुस गयी है। और वहां किसी मुसलमान का अकेले बेधड़क प्रवेश पाना मुश्किल है। तो ऐसे में दूसरे छोटे शहरों, कस्बों और देहाती इलाकों की स्थिति क्या होगी इसको समझना कठिन नहीं है। जहां चेतना का स्तर न केवल नीचा है बल्कि किसी के लिए उस भोली-भाली जनता को बरगलाना भी बहुत आसान है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)
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