2016 में नोटबंदी के बाद से ही भारत की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी चुकी थी। उसके बाद जीएसटी शासन और 2020 में कोविड महामारी के प्रकोप ने छोटे और मझोले उद्योग-धंधों और परंपरागत व्यवसाय की कमर पूरी तरह से तोड़ दी। जीएसटी रेजीम ने भारत के संघीय ढाँचे को पूरी तरह से बदलकर रख दिया है, और राज्य सरकारें अब ज्यादा से ज्यादा केंद्र सरकार की दया पर निर्भर होती जा रही हैं।
सत्ता के केंद्रीयकरण से देश के संसाधनों को भी चंद मुट्ठीभर धन्नासेठों के हवाले करने की प्रक्रिया को तेजी मिली। आज जब देश आर्थिक रूप से ब्रेकडाउन की स्थिति में है, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की दूसरी पारी का सबसे ज्यादा कुप्रभाव भारतीय व्यापार और अनिवासी भारतीयों से हर साल मिलने वाले रेमिटेंस पर पड़ सकता है, तो आज उन बुद्धिजीवियों को भी सोचने को मजबूर होना पड़ रहा है, जिन्होंने पिछले दस वर्षों के दौरान इस पर ध्यान देना जरुरी नहीं समझा।
अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस के नियमित स्तंभकार, प्रताप भानु मेहता ने भी आज के अपने लेख में उन सभी जरुरी मुद्दों को उठाया है, जिसे पिछले 7-8 वर्षों से लगातार उठाने की दरकार थी। लेकिन चूँकि वे नीतिगत मुद्दों सहित कई बार विभिन्न ज्वलंत मुद्दों से जुड़े पहलुओं पर लिखते हैं, और भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा पर लिखना उनकी प्राथमिकता में नहीं हो सकता, इसलिए न लिखा हो।
सोशल मीडिया में भी पीबी मेहता के आज के लेख को काफी सराहा जा रहा है। अपने लेख की शुरुआत में ही प्रकाश भानु मेहता लिखते हैं कि भारत इतना विशाल देश है कि उसकी वजह से ही यह विश्व के लिए प्रासंगिक हो जाता है। लेकिन वैश्विक मंचों पर भारत के आगमन की घोषणा पूरे जोर-शोर से की जाती है, खासकर हमारे अपने नेताओं के द्वारा। लेकिन इस प्रचार के चश्मे को परे हटाकर देखते हैं तो भारत असल में तेजी से अप्रासंगिक होने के जोखिम की ओर बढ़ रहा है, एक ऐसा अगंभीर देश जो खुद के बनाये मिथक का शिकार है।
मेहता आगे कहते हैं कि यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि वैश्विक चेतना में भारत कितना अप्रासंगिक है। हम एक फील-गुड नैरेटिव के चंगुल में इस कदर घिर चुके हैं कि हम अपनी अप्रासंगिकता के पैमाने को माप तक नहीं सकते। सर्विसेज के निर्यात को भारत की सफलता की कहानी कहा जा सकता है, जिसमें हमारा औसत शेष विश्व से अधिक है। लेकिन इस सबके बावजूद भारत अभी भी सेवाओं के वैश्विक व्यापार के मात्र 4.6% हिस्से पर काबिज है। वस्तुओं के निर्यात में बढ़ोत्तरी हुई है, लेकिन अभी भी यह वैश्विक व्यापार के 2% से कम है।
मेहता बताते हैं कि दिसंबर 2024 में, प्रेस इन्फोर्मेशन ब्यूरो ने गर्व के साथ घोषणा की थी कि भारत की एफडीआई यात्रा 2000 के बाद से 1 ट्रिलियन डॉलर के उल्लेखनीय मील के पत्थर तक पहुंच चुकी है। लेकिन वैश्विक एफडीआई में भारत की हिस्सेदारी आनुपातिक रूप से 2.5 प्रतिशत के आसपास है, और इसमें कमी आ रही है। चीन से जो निवेश बाहर निकल रहा है, उसमें से भारत को बमुश्किल ही कुछ मिल पा रहा है। मेहता के अनुसार, भारत को उसमें से अधिकतम 10-15 प्रतिशत ही मिल सकता है, और यह ट्रम्प के ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ पर जोर दिए जाने से पहले की बात है।
टूरिज्म इकॉनमी पर मेहता लिखते हैं कि भारत के हिस्से में अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों का बमुश्किल 1.5 प्रतिशत हिस्सा ही आ पाता है। मनोरंजन क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन घरेलू बाजार को भी जोड़ दें तो यह कुल वैश्विक बाजार का मात्र 5 प्रतिशत है; यह सॉफ्ट-पावर एक्सपोर्ट पावरहाउस नहीं है। भारत का रक्षा बजट भी कमोबेश जीडीपी के 2 प्रतिशत से कम पर बना हुआ है। कल को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प नरेंद्र मोदी से मांग कर सकते हैं कि भारत अच्छीखासी मात्रा में अमेरिकी हथियार की खरीद करे। लेकिन भारत की क्रय क्षमता के बारे में दावे बेहद अतिरंजित हैं।
मेहता मानते हैं कि भारत प्रतिभा के मामले में अच्छा है। भारतीय विज्ञान में भी सुधार हो रहा है। लेकिन इसके बावजूद, भारत अभी भी प्रौद्योगिकी नवाचार के मोर्चे पर अधिकांश वैश्विक चर्चाओं के लिए अप्रासंगिक बना हुआ है। भारत ने कुछ क्षेत्रों जैसे फार्मास्यूटिकल्स और कुछ कम लागत वाले चिकित्सा नवाचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
लेकिन जिस एक चीज ने अमेरिका ही नहीं भारतीय बौद्धिक जगत को सकते की स्थिति में डाल दिया है, वह है पिछले कुछ दिनों से चीन से आने वाली खबरों ने। पिछले कुछ वर्षों के दौरान, वैश्विक मंच पर चीन की बढ़ती हैसियत से बैचेन अमेरिका ने उसके खिलाफ जिस घेरेबंदी की रणनीति अपनाई थी, उसमें चीन के खिलाफ वैश्विक मीडिया में बड़े पैमाने पर कुप्रचार भी शामिल था। लेकिन चीन ने पिछले दस वर्षो के दौरान न सिर्फ अपनी अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलाव किये हैं, बल्कि ईवी, सौर ऊर्जा, रोबोटिक्स, AI जैसे टेक इंडस्ट्री में वह पश्चिमी देशों को कड़ी टक्कर देने में सक्षम साबित हो रहा है। ऊपर से उसने देश के भीतर टैलेंट पूल का इतने वृहद पैमाने पर निर्माण किया है कि चीन अमेरिका की तुलना में काफी किफायती दर पर निर्माण कर उसके एकाधिकार से मिलने वाले भारी मुनाफे को संभव नहीं होने देगा।
AI डीपसीक के संदर्भ में मेहता लिखते हैं कि इसने स्वदेशी भारतीय एआई मॉडल की खोज को प्रेरित किया है, लेकिन इस प्रतियोगिता में आगे रहने का ट्रैक रिकॉर्ड उत्साहजनक नहीं है। जो महाशक्तियां होती हैं उन्हें सुधार या संचयी संख्याओं से नहीं मापा जाता है, जिसके महत्व को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा रहा है। उन्हें इस बात से मापा जा सकता है कि वे किस हद तक विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि सर्विस ट्रेड, विनिर्माण, प्रौद्योगिकी और नवाचार, हरित ऊर्जा संक्रमण, परमाणु ऊर्जा, रक्षा प्रौद्योगिकी, अनुसंधान और विकास या वित्त। निश्चित रूप से भारत जैसे आकार वाले देश में हमेशा ही सफलता की कुछ आश्चर्यजनक दिलचस्प कहानियाँ होनी चाहिए। लेकिन इसी अर्थ में देखें तो यह काफी चौंकाने वाला है कि भारत कितना गैर-जरुरी बन चुका है।
इसके बाद मेहता अपने लेख में उन मुद्दों पर प्रकाश डालते हैं, जिसके जरिये भारत को विश्वगुरु की इमेज दिखाकर अपने राजनीतिक अस्तित्व को बरकरार रखने का प्रयास पिछले एक दशक से जारी है। मेहता के अनुसार, यदि इतिहास को निष्पक्ष रूप से देखा जाये, तो यह तर्क देना कठिन है कि भारत का महत्व पूर्व की तुलना में बढ़ा है। पचास और साठ के दशक के अभिलेखागार, दस्तावेजों और इतिहास को पढ़ने से आपको यह स्पष्ट धारणा मिल सकती है कि भारत का राजनीतिक महत्व निश्चित रूप से नहीं बढ़ा है।
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में चलने वाले नियमित प्रोटोकॉल – जी-20 शिखर सम्मेलन, QUAD मीटिंग की संभावित मेजबानी को ऐतिहासिक घटनाओं के तौर पर प्रदर्शित करने में भारत की क्षमता, एक विदेश नीति प्रतिष्ठान और पारिस्थितिकी तंत्र की सहायता से, जो भारत की शक्ति को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करके अपने महत्व को रेखांकित करना पसंद करती है, वास्तव में हैरान करने वाला है।
हकीकत तो यह है कि दुनिया को इस सबकी कोई परवाह नहीं है। इसके उलट तीसरी दुनिया के देशों में भारत ने अपनी हैसियत खोई ही है। भारत की एक विशेषता यह रही है कि वह दुनिया के हर देश के साथ अच्छे संबंध बनाये रख सकता है। वह रूस और अमेरिका, या इज़राइल और ईरान दोनों के साथ सामान्य रिश्ते बनाये रख सकता है। लेकिन वैश्विक व्यवस्था में भारत को प्राप्त यह कथित विशेषाधिकार उसकी कमज़ोरियों को भी उजागर करता है। असल में भारत की हैसियत इतनी महत्वपूर्ण नहीं है कि बड़े देश वास्तव में उसके चलते नाराज़ हो जाएँ।
इसके बाद प्रताप भानु मेहता साफ़ शब्दों में लिखते हैं कि ऊपर जो विवरण दिए गये हैं, वो कुछ हद तक अशिष्ट लग सकता है। लेकिन यदि हमें किसी अकाट्य हकीकत से दोचार होना है तो इस प्रकार का ट्रीटमेंट जरुरी हो जाता है। यह कड़वी हकीकत है कि भारत वास्तव में वैश्विक चेतना के लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि हम सोचते हैं। हमारे अपने महत्व के बारे में हमारी सोच हमारी वैश्विक हैसियत की कठोर वास्तविकताओं का नतीजा नहीं है। यह इन दिनों एक उत्पाद है, आंशिक रूप से प्रचार का, जहां हम विश्वगुरु होने के अपने झूठ पर भरोसा कर चुके हैं।
देश के सामने संख्या के रूप में टार्गेट रखे गये हैं, जो देखने में प्रभावशाली लगती हैं – एक ट्रिलियन का एफडीआई, या पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था और इसी तरह की संख्याएं। इनसे अच्छी हैडलाइन और सुर्खियाँ तो अवश्य बनती हैं लेकिन इनका कोई अर्थ नहीं है। इसकी तुलना में चीन के नीतिगत दस्तावेजों में अपने लिए लक्ष्यों को बेहद शक्तिशाली तरीके से परिभाषित किया गया, जैसे कि वैश्विक निर्यात का एक चौथाई हिस्सा या वैश्विक महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों का अमुक प्रतिशत जैसे लक्ष्य।
मेहता के मुताबिक, कुछ हद तक भारत दुनिया में प्रवासी भारतीयों की दृश्यता की वजह से भी दिग्भ्रम की स्थिति में है। उनकी दृश्यता को हम जिस प्रकार से जोड़ने लगते हैं, वह वास्तव में हमारी खुद की अप्रासंगिकता और असुरक्षा को रेखांकित करता है। यह बेहद आश्चर्यजनक है कि भारत में सत्ताधारी प्रतिष्ठान के एकोसिस्टम के महत्वपूर्ण हिस्से ने तुलसी गबार्ड और काश पटेल की सुनवाई को इस तरह से मान लिया है जैसे कि वे हिंदू गौरव और धर्मनिष्ठता के प्रतीक हों, और जो भारत के लिए काफी मायने रखते हैं।
इसे यदि नजरअंदाज भी कर दिया जाये तो भी यह इस बात का खुलासा करता है कि किसी प्रकार से रिश्ते के आधार पर गर्व महसूस करने से दुनिया में भारत की हैसियत के बारे में सोचने के लिए कुछ नहीं रह जाता। हम इसी बात से खुश हैं कि इंडोनेशिया के राष्ट्रपति ने खुद को भारतीय आनुवंशिकी से जोड़ा। जबकि हमें इस बात से कहीं अधिक चिंतित होना चाहिए कि चीन के पास इंडोनेशिया के एक चौथाई व्यापार की हिस्सेदारी है।
लेख के अंत में मेहता लिखते हैं, “भारत में अपार संभावनाएं हैं। लेकिन जब तक हम ठंडे दिमाग से इस बात पर विचार नहीं करेंगे और स्वीकार नहीं करेंगे कि आत्म-महत्व और महत्व एक ही चीज़ नहीं है, तब तक हम बात को नहीं समझ पाएंगे कि कैसे भारत अप्रासंगिक होने का जोखिम उठा रहा है। ईमानदार देशभक्तों के लिए, यह किसी झटके के समान होना चाहिए कि वास्तव में भारत कितना कम मायने रखता है।
(इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित प्रताप भानु मेहता के लेख का अनुवाद रविंद्र पटवाल ने किया है)
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