जाति-वर्णव्यवस्था पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गहरा विश्वास 

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क्या जातिव्यवस्था भारतीय समाज के लिए एक वरदान है? आरएसएस के मुख्यपत्र पांचजन्य में छपे एक लेख से तो ऐसा ही प्रतीत होता है। यह समाचारपत्र पांचजन्य आरएसएस के वैचारिकी को प्रस्तुत करने का‌ एक‌ महत्वपूर्ण पत्र है।

पिछले दिनों आरएसएस के संघचालक मोहन भागवत ने कुछ ऐसे बयान दिए थे, जिससे यह प्रतीत होता था कि संघ अब हिन्दू वर्णव्यवस्था में विश्वास नहीं करता तथा हिन्दू समाज की एकता के लिए जाति के विनाश का‌ पक्षधर है, परन्तु पांचजन्य में छपे लेख ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उसका हिन्दू वर्णव्यवस्था में गहरा विश्वास रहा है।

लेख की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं:-

मिशनरियों ने भारत के इस एकीकरण के समीकरण को मुगलों से बेहतर समझा कि यदि भारत और उसके स्वाभिमान को तोड़ना है, तो सबसे पहले जाति व्यवस्था के रूप में या इस एकीकृत करने वाले कारक को एक बाधा या जंजीर कहकर तोड़ दें। जाति व्यवस्था की इस समझ को अंग्रेजों ने अपनी फूट डालो और राज करो की नीति के लिए अपनाया था।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ी एक पत्रिका ने जाति व्यवस्था को भारत की एकता का कारक बताया और जाति व्यवस्था को उचित ठहराने की कोशिश की है। पांचजन्य मैगजीन के संपादकीय में जाति व्यवस्था को भारतीय समाज को एक करने वाली वजह बताते हुए कहा गया है, कि मुगल इसे समझ नहीं सके और अंग्रेज इसे देश पर अपने आक्रमण के लिए एक बाधा के रूप में देखते थे।

मैगजीन के संपादक हितेश शंकर ने संपादकीय में लिखा है, कि जाति व्यवस्था एक कड़ी थी, जो भारत के अलग-अलग वर्गों को उनके पेशे और परंपरा के मुताबिक एक साथ रखती थी। औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजीपतियों ने जाति व्यवस्था को भारत के पहरेदार के रूप में देखा था। 

संपादकीय में दिए गए तर्क के मुताबिक जाति व्यवस्था हमेशा आक्रमणकारियों के निशाने पर थी। जहां मुगलों ने तलवार के बल पर, तो वहीं मिशनरियों ने सेवा और सुधार की आड़ में इसे निशाना बनाया। जाति के रूप में भारत के समाज ने एक जो बात समझी थी, वो ये कि अपनी जाति से दगा करना राष्ट्र से दगा करना है।

मिशनरियों ने भारत के इस एकीकरण के समीकरण को मुगलों से बेहतर समझा, कि यदि भारत और उसके स्वाभिमान को तोड़ना है, तो सबसे पहले जाति व्यवस्था के रूप में या इस एकीकृत करने वाले कारक को एक बाधा या जंजीर कहकर तोड़ दें। संपादकीय में ये तर्क दिया गया है कि मिशनरियों द्वारा जाति व्यवस्था की इस समझ को ‘अंग्रेजों ने अपनी फूट डालो और राज करो की नीति’ के लिए अपनाया था। 

संपादकीय में कांग्रेस पर भी हमला किया गया है, इसमें कहा गया है कि हिन्दू जीवन जिसमें गरिमा, नैतिकता, ज़िम्मेदारी और सांप्रदायिक भाईचारा शामिल है, वो जाति के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसे मिशनरीज़ नहीं समझ सके। मिशनरियों ने जाति को अपने धर्मांतरण के कार्यक्रम में एक बाधा के तौर पर देखा, तो वहीं कांग्रेस ने इसे हिंदू एकता में एक कांटे के रूप में देखा।

कांग्रेस जाति जनगणना कराना चाहती है, क्योंकि वह अंग्रेजों की तर्ज पर लोकसभा सीटों को जाति के आधार पर बांटकर देश में बंटवारा बढ़ाना चाहती है। राहुल गांधी पर लोकसभा में जाति के मुद्दे पर बीजेपी सांसद अनुराग ठाकुर के तर्ज पर संपादकीय में कहा गया है कि भारत की जाति क्या है? समाज और इतिहास का उत्तर है हिंदू, लेकिन जब कांग्रेस पार्टी से उसकी जाति पूछी जाएगी तो जवाब होगा ‘ईस्ट इंडिया कंपनी और ए ओ ह्यूम।’

गौरतलब है कि हाल ही में संसद में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की जाति पर बीजेपी सांसद अनुराग ठाकुर ने टिपण्णी की थी, जहां एक तरफ आरएसएस से जुड़ी पत्रिका में जाति व्यवस्था के पक्ष में तर्क दिया गया है, तो वहीं आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत बार-बार कहते रहे हैं, कि जातिगत भेदभाव भारतीय समाज के लिए अभिशाप है और इसे खत्म किया जाना चाहिए।

वास्तव में हिन्दू धर्म और हिन्दूराष्ट्र का पूरा ढांचा ही वर्णव्यवस्था और जातिगत भेदभाव पर ही टिका है, इस व्यवस्था में दलित, पिछड़े और आदिवासी सबसे पिछले पायदान पर हैं।‌ पिछले दिनों जब जातिगत जनगणना की मांग उठने लगी, जिसके अनुसार जिसकी जितनी जनसंख्या है, उसी के अनुसार देश के संसाधनों पर उसका‌ अधिकार है।

संघ परिवार तथा सभी हिन्दुत्ववादी ताक़तें शुरू से बहुजनों को मिलने वाले आरक्षण तक की विरोधी हैं, यह मांग तो बहुत बड़ी हैं, पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक का आरक्षण विरोध पर एक लेख सामने आया था, जो उन्होंने अपने आधिकारिक वेबसाइट पर लिखा था।

जैसे-जैसे बहुजनों में अपने स्वाभिमान और अधिकारों के प्रति चेतना बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे संघ सहित सभी हिन्दुत्ववादी ताक़तों की बदहवासी बढ़ती जा रही है। पांचजन्य में छपा लेख उसी की एक अभिव्यक्ति मात्र है।

(स्वदेश सिन्हा लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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