Sunday, April 28, 2024

एसबीआई की उंगलियों पर है इलेक्टोरल बांड्स का पूरा हिसाब, लेकिन कागज नहीं दिखायेंगे

किसने सोचा था कि सुप्रीम कोर्ट अचानक से यू-टर्न ले लेगा, और देश के सबसे बड़े बैंक एसबीआई के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स पसीने-पसीने हो जायेंगे? आज भी देश के बुद्धिजीवी वर्ग का बड़ा हिस्सा सर्वोच्च न्यायालय की इस सख्ती पर ख़ुशी जाहिर नहीं कर रहा है। उसे लगता है कि होना-जाना कुछ नहीं है, बेकार में ‘विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र’ के जुमले और न्यायालय पर आम भारतीय के उठते भरोसे को ही बरकारर रखने के लिए यह कवायद हो रही है।

उनकी इस निराशा में कुछ भी गलत नहीं है। पूरी दुनिया में पश्चिमी लोकतंत्र की तर्ज पर चल रहे लोकतांत्रिक देशों का कमोबेश यही हाल है। दुनियाभर में लोकतंत्र के बैरोमीटर को चेक करने वाली विभिन्न संस्थाओं की वार्षिक रिपोर्ट्स में भारत की रैंकिंग गिरकर तानाशाही और सैन्य-शासन के अधीन शासित देशों के साथ होड़ करती नजर आ रही है। लेकिन जो पश्चिमी देश, और विशेषकर अमेरिका पूरी दुनिया के देशों को उदारवादी लोकतंत्र या निरंकुश होने का सर्टिफिकेट जारी करता है, उसके अपने देश की हालत आज सबसे बदतरीन स्थिति में है।

लेकिन हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आज तक के मानव इतिहास में समाज ने आगे की ओर ही कदम बढ़ाया है। बीच-बीच में अनेकों बाधाएं भले ही आई हों, लेकिन लगातार तकनीकी क्रांति मानव सभ्यता को पीछे मुड़ने की इजाजत नहीं देता। आज भले ही पूंजीवादी शक्तियों का पूर्ण बोलबाला नजर आता हो, लेकिन उसके द्वारा निर्मित वित्तीय ढांचा पूरी तरह से चरमरा चुका है। भारतीय लोकतंत्र में चुनावी बांड्स का प्रवेश भी उसके तमाम हथकंडों में से एक है, जिसे आज सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय मतदाताओं के राइट टू इनफार्मेशन के बुनियादी अधिकार के खिलाफ करार देते हुए प्रतिबंधित कर दिया है।

सभी को लगा कि मोदी सरकार ने संसद में कमजोर विपक्ष को नजरअंदाज कर इलेक्टोरल बांड्स के माध्यम से भविष्य में अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए कॉर्पोरेट्स का साथ एक ऐसा अपारदर्शी ढांचा तैयार कर लिया है, जिसके पार देख पाने की किसी की जुर्रत नहीं होगी। लेकिन उसी दौर में, समानांतर मीडिया से जुड़े कुछ पत्रकार इसकी सच्चाई की तह में जाने के लिए बेचैन थे। और यह काम उन्होंने आज नहीं 6 वर्ष पहले ही अंजाम दे दिया था, लेकिन आज इसका महत्व काफी बढ़ गया है।

इलेक्टोरल बांड में छिपे अदृश्य नंबर के भीतर सारी जानकारी मौजूद है

न्यूज़ वेबसाइट द क्विंट की पत्रकार पूनम अग्रवाल ने वर्ष 2018 में फैसला किया कि वे भी इलेक्टोरल बांड्स खरीदकर इसकी पड़ताल करेंगी। 5 अप्रैल 2018 को पूनम स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की पार्लियामेंट ब्रांच में जाती हैं, और अपने नाम से इलेक्टोरल बांड की खरीद करती हैं। ब्रांच में आधे घंटे के दौरान उनके आधार कार्ड और पैन कार्ड की जांच कर बैंक उनका केवाईसी जांच पूरी कर, उन्हें 1000 रुपये के बदले एक बांड जारी कर देता है।

द क्विंट के कार्यालय में इलेक्टोरल बांड की पड़ताल की जाती है, जिसमें सिर्फ रकम और तिथि का उल्लेख था। क्विंट के पत्रकार समझ नहीं पा रहे थे कि बांड में न तो पूनम अग्रवाल के नाम का उल्लेख है, और न ही उनके आवास का ही कहीं पर जिक्र किया गया है। फिर कैसे स्टेट बैंक इन बांड्स को किसी राजनीतिक पार्टी को भुगतान करेगा और इन सारी चीजों का रिकॉर्ड मेन्टेन करेगा। सभी को लगा कि हो न हो बांड्स में कुछ है, जो उन्हें अपनी नंगी आंखों से नजर नहीं आ रहा है, इसलिए इसकी फॉरेंसिक जांच कराई जानी चाहिए। द क्विंट ने जांच कराई, और उसके परीक्षण में जो नतीजे आये वे चौंकाने वाले थे। इलेक्टोरल बांड के टॉप राइट कार्नर पर अल्ट्रावायलेट रोशनी डालने पर एक यूनिक नंबर नजर आता है। इस बात को पूनम अग्रवाल अपने वेबसाइट ExplainX में उदाहरण सहित समझाती देखी जा सकती हैं। फारेंसिक जांच में इसके अलावा भी कई और भी बातों का खुलासा हुआ है।

इसके बाद द क्विंट में इस बात को लेकर जिज्ञासा हुई कि देखना चाहिए कि क्या यह नंबर वाकई में यूनिक नंबर है। इसके लिए पूनम अग्रवाल एक बार फिर 9 अप्रैल को स्टेट बैंक के पार्लियामेंट ब्रांच जाकर दूसरा बांड खरीद लाती हैं। 5 अप्रैल को खरीदे गये इलेक्टोरल बांड पर अल्ट्रावायलेट रेज की रोशनी डालने पर टॉप राइट कार्नर पर 012101 संख्या उभर कर आती है, जबकि दूसरे बांड पर क्रम संख्या 012102 नुमाया हो रही है।

पूनम बताती हैं कि इसके बाद उन्होंने इस बारे में वित्त मंत्रालय और एसबीआई से पूछताछ की थी, और इस यूनिक नंबर के बारे में विस्तार से जानने की कोशिश की थी। उनका सवाल था कि क्या आप इन यूनिक नंबरों से अपना रिकॉर्ड मेन्टेन करते हैं? यह नंबर तो आम पब्लिक को नजर नहीं आता। इस बारे में उनका कहना है कि वित्त मंत्रालय ने उनके दावे को खारिज नहीं किया। उनका जवाब था कि इसे बांड की सिक्यूरिटी और प्रमाणिकता की पड़ताल के लिए रखा गया है। वहीं एसबीआई का इस बारे में कहना था कि इसे सिर्फ बांड की सिक्यूरिटी फीचर के लिए ही नहीं बल्कि ऑडिट ट्रेल (निशान) के लिए भी रखा गया है। असल में एसबीआई ने फाइनेंस मिनिस्ट्री से यूनिक नंबर की मांग की थी, ताकि बांड जारी होने के बाद इनका ऑडिट ट्रेल किया जा सके।

स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को अपने रिकॉर्ड मेन्टेन करने के लिए इसकी विशेष जरूरत थी। अगर ऐसा नहीं होता तो बैंक के लिए रिकॉर्ड को मेन्टेन करना असंभव था। यही वह यूनिक नंबर है जिसकी मदद से बैंक एक क्लिक से दानदाता और राजनीतिक पार्टी के बांड भुनाने की प्रक्रिया को आसानी से हासिल कर सकती है। सर्वोच्च न्यायलय ने भी एसबीआई से इस बारे में तहकीकात में कहा है कि आपके पास तो बांड्स के नंबर हैं ही। इसका मतलब यह हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय को भी पता है कि स्टेट बैंक चाहे तो चुटकियों में अदालत को सारी जानकारी दे सकता है।

बांड जारी होने के 15 दिनों के भीतर स्टेट बैंक में राजनीतिक पार्टियों के पास से बांड को भुनाने के लिए पेश करना होता है, तब बैंक के पास यूनिक नंबर ही वह सहारा है, जिससे वह पता लगा सके कि बांड असली है। इस प्रकार बांड के भुगतान के समय भी इसका मिलान करने से बैंक का खाता क्रेडिट/डेबिट होकर बराबर हो जाता है। हम सभी जानते हैं कि बैंकों में बैंक मैनजर के बाद कैशियर की जिम्मेदारी कितनी अहम होती है। करोड़ों का भुगतान करने वाले बैंकों को हिसाब-किताब औचक रखने की जरूरत सर्वोपरि है, जिसके अभाव में बैंकों की साख पल भर में डूब जाने का खतरा होता है, और देखते ही देखते बड़े से बड़े बैंक से लोग अपना रिश्ता तोड़ उसे कंगाल बना सकते हैं।

सभी बैंकों में रोजाना के हिसाब-किताब के मिलान के साथ-साथ, मासिक, त्रैमासिक और वार्षिक रिपोर्ट तैयार होती है। इलेक्टोरल बांड के हिसाब-किताब का भी ऑडिट इससे अछूता नहीं रह सकता। यह कोई हजार-दो हजार रुपयों का नहीं बल्कि 16,518 करोड़ रुपये के बांड जारी किये गये हैं, जिसमें 90% बांड तो 1 करोड़ रुपये के जारी किये गये थे। बांड खरीदने वाले और भुनाने वाले लोग भी मामूली लोग नहीं थे, इसलिए सारी जानकारी बैंक के महत्वपूर्ण प्रमुख ब्रांच को ही सौंपी गई थी।

आज जब बैंक ने कोर्ट के सामने कबूल कर लिया है कि उनकी विभिन्न शाखाओं से 1 अप्रैल 2019 से 15 फरवरी 2024 के बीच कुल 22,217 इलेक्टोरल बांड्स की खरीद की गई थी, और इसमें से 22,030 बांड्स को भुनाया जा चुका है, तो बैंक के पास निश्चित ही इस बात की भी जानकारी है कि किस दानदाता ने किस पार्टी के लिए कितना चुनावी बांड खरीदा था।

सारा खेल इसी यूनिक नंबर का है, जिसके माध्यम से सारा डेटाबेस हासिल किया जा सकता है। लेकिन कोर्ट में एसबीआई इसके लिए 3 महीने का समय क्यों मांग रही थी, इसके बारे में देश की सबसे बड़ी अदालत को पूरी कड़ाई से पूछना चाहिए। अभी फिलहाल बैंक सारी जानकारी को दो हिस्सों में दे रही है। एक में इलेक्टोरल बांड की खरीद का विवरण है, तो दूसरे में किस राजनीतिक पार्टी ने कितना चंदा मिला है, के बारे में जानकारी दी गई है।

फिलहाल बैंक ने कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए यह जानकारी देश के चुनाव आयोग को सुपर्द कर दी है, जिसे उसे 15 तारीख तक अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक करने की बाध्यता है। सर्वोच्च न्यायालय की 5 न्यायाधीशों की पीठ ने अपने एक फैसले में देश की सबसे बड़े बैंक, चुनाव आयोग और केंद्र सरकार की भूमिका पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। केंद्र की मोदी सरकार इस मामले में दम साधे बैठी है, क्योंकि इलेक्टोरल बांड्स से अगर किसी एक दल को असाधारण लाभ मिला है तो वह भाजपा है। पिछले दिनों ही द न्यूज़ मिनट और न्यूजलांड्री ने कई महीनों की मशक्कत के बाद चुनाव आयोग की वेबसाइट से खुलासा किया था कि कुछ भारतीय कंपनियों ने कैसे सीबीआई-ईडी की छापेमारी के बाद अचानक से भाजपा के पक्ष में करोड़ों रुपये के चंदे दिए थे।

बार एसोसिएशन अध्यक्ष की करतूत क्या गुल खिलायेगी?

लेकिन भाजपा और सरकार हाथ पर हाथ धरे तमाशा होते देखती रहे, यह भला संभव है। इसलिए कल शाम को ही सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष आदिश अग्रवाल राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के नाम एक पत्र जारी कर उन्हें सलाह देने के लिए नमूदार हो जाते हैं कि वे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को 15 मार्च तक लागू होने से पहले इस बारे में स्पष्टीकरण मांगने की पहल करें। आदिश अग्रवाल ने बड़ी चालाकी दिखाते हुए अपने पत्र को आल इंडिया बार एसोसिएशन के लेटरहेड से जारी किया है, ताकि अगले दिन अर्थात 13 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय के वकील उनके खिलाफ ही न खड़े हो जायें। जाहिर है, अगर राष्ट्रपति उनकी इस सलाह पर अमल करती हैं तो इसके लिए वे अपने मंत्रिपरिषद अर्थात मोदी सरकार से राय लेंगी, फिर मुख्य न्यायाधीश को इस बारे में अवगत कराएंगी।

यह पूरा घटनाक्रम चुनाव आयोग को इलेक्टोरल बांड्स की जानकारी को पब्लिक डोमेन में डालने की बाध्यता से बचा लेगा। फिर संभव है कि सर्वोच्च न्यायालय भी अपने सख्त रुख में नरमी बरत ले। लेकिन स्पष्ट है कि इस पूरी कवायद में एसबीआई, चुनाव आयोग, मोदी सरकार के साथ-साथ अब राष्ट्रपति पद की साख भी देश की जनता के सामने खत्म हो सकती है। आज देश में तमाम लोग चर्चा कर रहे हैं, कि आदिश अग्रवाल को ही यह अक्ल क्यों आई, जबकि सरकार के पास सॉलिसिटर जनरल सहित सैकड़ों की संख्या में क़ानूनी विशेषज्ञ मौजूद हैं।

असल बात तो यह है कि कल ही सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की ओर से संगठन सचिव, रोहित पांडेय ने संगठन के लेटरहेड से पत्र जारी कर स्पष्ट कर दिया था कि आदिश अग्रवाल की ओर से जारी उक्त पत्र का उनके संगठन से कोई लेना-देना नहीं है, और न ही इस बारे में संगठन की ओर से कोई फैसला ही लिया गया है। आदिश अग्रवाल द्वारा राष्ट्रपति के नाम लिखे गये पत्र को सर्वोच्च न्यायालय की शान में गुस्ताखी बताते हुए कार्यकारणी की ओर से अपने माननीय अध्यक्ष की कड़ी आलोचना की गई है।

चारों तरफ अपनी थू-थू से बेपरवाह आदिश सी अग्रवाल आज मीडिया में इंटरव्यू दे रहे हैं, जिसमें वे कॉर्पोरेट हितों की रक्षा के लिए एक के बाद एक कुतर्क पेश करते देखे जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के लिए अपने अध्यक्ष का इस प्रकार से जनविरोधी रुख अख्तियार करना और सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ के फैसले के खिलाफ राष्ट्रपति से अपील करना, उन्हें भी शर्मसार कर रहा है। शायद यही वजह है कि बार एसोसिएशन में उन्हें अध्यक्ष पद से बर्खास्त किये जाने की मुहिम भी शुरू हो चुकी है। खबर है कि बार काउंसिल के 162 सदस्यों ने अभी तक आदिश अग्रवाल को अध्यक्ष पद से हटाए जाने को लेकर हस्ताक्षर कर दिए हैं। वकील पहले से उनके किसान आंदोलन के खिलाफ दिए गये वक्तव्य से नाखुश थे। बता दें कि करीब 2000 की संख्या वाले बार काउन्सिल में पिछली बार 668 वोट पाकर अग्रवाल विजयी घोषित किये गये थे, जबकि वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे 477 वोट पाकर दूसरे स्थान पर थे।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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