Saturday, April 27, 2024

हिमालय की वेदना: सुरंगों से छलनी-छलनी हो रहे पहाड़

देहरादून। पौराणिक नगरी जोशीमठ के धंसने के कारण तपोवन-विष्णुगाड जल विद्युत परियोजना की सुरंग के चर्चा में आने के बाद चारधाम सड़क परियोजना की उत्तरकाशी स्थित सिलक्यारा परियोजना की सुरंग के एक हिस्से के धंसने से वहां फंसे 41 मजदूरों की जान संकट में पड़ने के बाद एक बार फिर विश्व की सबसे युवा पर्वत माला हिमालय में सुरंगों के निर्माण पर सवाल उठने लगे हैं।

सुरंगों सहित भूमिगत निर्माण में इस तरह के हादसे नये नहीं हैं। अब तो सुरंगों के धंसने और निर्माणाधीन सुरंगों के ऊपर बसी बस्तियों के धंसने की शिकायतें आम हो गयी हैं। सड़क परिवहन, राजमार्ग और जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी के अनुसार उत्तराखंड के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में इस वक्त पौने तीन लाख करोड़ रुपये की लागत की टनल बनाई जा रही हैं। अगर सिलक्यारा सुरंग की ही तरह सभी सुरंगें बनाई जा रही हैं तो हिमालय और हिमालयवासियों का ऊपर वाला ही मालिक है।

विशिष्ट भौगोलिक परिस्थतियों वाले हिमालयी क्षेत्र की जनता को विकास भी चाहिये, तभी उनकी जिन्दगी की मुश्किलातें कम होंगी और बेहतर जीवन सुलभ होगा। हिमालयवासियों के लिये सड़कें भी चाहिये तो बिजली-पानी और अन्य आधुनिक सुविधाएं भी चाहिये। लेकिन पहाड़ों पर सड़कें बनाना तो आसान है मगर उन सड़कों के निर्माण से उत्पन्न परिस्थितियों से निपटना उतना आसान नहीं है। 

तेज ढलान के कारण पन बिजली उत्पादन के लिये हिमालयी क्षेत्रों को सबसे अनुकूल माना जाता है। इसीलिये नीति नियन्ताओं और योजनाकारों की नजर हिमालय पर पड़ी है। पन बिजली पैदा करने के लिये ग्रेविटी या ढलान की आवश्यकता होती है ताकि तेज धार या पानी की भौतिक ऊजा से पावर हाउस की टरबाइन चल सकें और फिर बिजली का उत्पादन हो सके।

इसके लिये पहाड़ों से बहने वाली नदियां ही सबसे माकूल हैं। इन नदियों का वेग और भौतिक ऊर्जा बढ़ाने के लिये पानी को तेज ढलान वाली सुरंगों से गुजारा जाता है जिसके लिये पहाड़ी क्षेत्र ही सबसे अनुकूल होते हैं। मैदानी क्षेत्र में पानी के लिये इतनी ढाल या ग्रेविटी के लिये बहुत बड़ा क्षेत्र डुबोना होता है। इसलिये अब तक जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक पन बिजली के लिये योजनाकारों ने हिमालयी क्षेत्र को चिन्हित कर रखा है।

हिमालय पर सुरंगों का निर्माण शुरू से चर्चा का विषय रहा है। हिमालय के गर्भ को छलनी करने का समर्थन तो पर्यावरणविद कर नहीं सकते मगर भूविज्ञानी भी इसमें संयम की सलाह अवश्य देते हैं। वर्तमान में हिमालय पर केवल बिजली परियोजनाओं के लिये नहीं बल्कि यातायात और अन्य गतिविधियों के लिये भी सुरंगों का निर्माण हो रहा है।

पहले भूमिगत बिजली घर बने लेकिन अब तो पहाड़ी नगरों में ट्रैफिक समस्या के समाधान के लिये भूमिगत पार्किंग भी बनने लगी हैं। राज्य गठन से पहले ही अकेले उत्तराखंड में चार धाम ऑल वेदर रोड और ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेल परियोजना की सुरंगों के अलावा लगभग 750 किमी लम्बी सुरंगें विभन्न चरणों में थीं।

एनटीपीसी की लगभग 12 किमी लम्बी सुरंग को जोशीमठ के धंसने के लिये पर्यावरणविद जिम्मेदार मानते रहे हैं। जोशीमठ के ही सामने चाईं गांव के धसने के लिये 300 मेगावाट की विष्णु प्रयाग परियोजना की 13 किमी लम्बी सुरंग पर ऊंगलियां उठती रही हैं। पेशे से इंजिनीयर रहे भारत के दूरदृष्टा सिचाईं और ऊर्जा मंत्री रहे के. एल. राव द्वारा देश के जल संसाधनों का सन् 60 के दशक में व्यापक सर्वेक्षण कराया गया था। उसी सर्वेक्षण के आधार पर भाखड़ा नागल बांध से लेकर टिहरी बांध जैसी परियोजनाएं शुरू हुई थीं।

इसी सर्वेक्षण के आधार पर चिन्हित परियाजनाएं आज विभिन्न चरणों में हैं। जिनमें कुछ हरित प्राधिकरण द्वारा रोकी भी गयी हैं। इनमें लगभग कुल 750 किमी लम्बी सुरंगें विभिन्न चरणों में हैं। नाथपा झाकड़ी की 27.40 किमी, नगनादी अरुणाचल की 10 किमी, दुलहस्ती चेनाब की 10.60 किमी और लोकतक मणिपुर की 6.88 किमी लम्बी सुरंगें तो बहुत पहले ही बन चुकी थीं। एक सुरंग खोदने के लिये कई सुरंगें बनानी होती हैं। हालांकि उत्तरकाशी के सिलक्यारा सुरंग में पैसे बचाने के लिये अतिरिक्त सुरंगें नहीं बनाई गयीं।

वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियालॉजी के पूर्व निदेशक एनएस विरदी और एक अन्य भू-वैज्ञानिक ए.के. महाजन के एक शोध पत्र के मुताबिक अकेले गंगा वेसिन की प्रस्तावित और निर्माणाधीन परियोजनाओं के लिए 150 किमी लंबी सुरंगें खुद रही हैं या खोदी जा चुकी हैं।

प्रस्तावित परियोजनाओं में से विष्णु प्रयाग प्रोजेक्ट पर 12 किमी सुरंग चल रही हैं। भागीरथी पर बनने वाली परियोजनाओं में लोहारी नागपाला 13.6 किमी, पाला मनेरी 8.7 किमी व मनेरी भाली द्वितीय में 15.40 किमी लंबी सुरंग शामिल है। मनेरी भाली प्रथम में पहले ही 9 किमी लंबी सुरंग काम कर रही है।

पन बिजली परियोजना की इन सुरंगों के अलावा ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियाजना पर 105.47 किमी लम्बी 17 मुख्य सुरंगें बन रही हैं और 98.54 किमी लम्बी स्केप टनल सहित कुल 218 किमी लम्बी सुरंगें विभिन्न चरणों में हैं।

दरअसल किसी भी परियोजना में केवल मुख्य सुरंग का ही उल्लेख आता है। जबकि उस मुख्य सुरंग को खोदने और उसका मलबा बाहर निकलने के लिये भी सुरंगें बनानी होती हैं। जिन्हें एडिट भी कहा जाता है। इसी प्रकार चारधाम ऑल वेदर रोड के लिये भी कुछ सुरंगें बन रही हैं जिनके निर्माण के लिये भी अन्य सुरंगें बन रही हैं। इसलिये सवाल उठना लाजिमी है कि अगर हिमालय के कच्चे पहाड़ अन्दर से इस तरह छलनी कर दिये जायेंगे तो उसका पर्यावरणीय और अन्य व्यवहारिक असर क्या होगा।

ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेल परियोजना की सुरंगों के निर्माण में भारी विस्फोटकों के कारण टिहरी, पौड़ी और रुद्रप्रयाग जिलों की कुछ बस्तियों में न केवल मकानों में दरारें आ गयीं बल्कि सारी गांव में भवन तक ढह गये। अगर इस परियाजना को बदरीनाथ और केदारनाथ तक बढ़ाया गया तो इतनी ऊचाई तक रेल लाइन पहाड़ों के अन्दर ही बनायी जा सकती है।

क्षेत्र की विशिष्ट भूगर्भीय, भौगोलिक और पर्यावरणीय विशेषताओं के कारण हिमालय में सुरंग निर्माण से कई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। दरअसल हिमालय जटिल भूगर्भीय संरचनाओं वाला एक भूकंपीय दृष्टि से सक्रिय क्षेत्र है, जिसमें विभिन्न प्रकार की चट्टानें, भ्रंश रेखाएं और अस्थिर भूभाग शामिल हैं। यहां कठिन चट्टानों, भूस्खलन और भूगर्भीय अस्थिरता के कारण सुरंग बनाने के लिए चुनौतियां पैदा होती हैं।

निर्माण कार्य प्रायः ऊंचाई पर कठिन होता है। कम तापमान, ऑक्सीजन की कमी और कठिन पहुंच जैसी चुनौतियां निर्माण को कठिन बनाती हैं। कठोर चट्टनों में सुरंग बनाने, पानी के प्रवेश का प्रबंधन करने, वेंटिलेशन सुनिश्चित करने और खड़ी चट्टानों में स्थिरता बनाए रखने के लिए उन्नत इंजीनियरिंग तकनीकों और विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है।

हिमालय में भूगर्भीय निर्माण गतिविधियां नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती हैं, जिससे पारिस्थितिकी संतुलन, जल संसाधन और मानव बस्तियों पर प्रभाव डाल कर चिन्ता का विषय बनती हैं। जोखिमों को कम करने के लिए व्यापक योजना, भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, उन्नत तकनीक, सुरक्षा प्रोटोकॉल और कुशल जनशक्ति आवश्यक है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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