धीरे-धीरे 2024 के चुनावी समर की तस्वीर साफ होती जा रही है। छुपे ब्रह्मास्त्रों और किसी आकस्मिकता/अनहोनी की बात छोड़ दी जाय तो दोनों युद्धरत सेनाओं का विन्यास, उनके चुनावी हथियार और रणनीति स्पष्ट होती जा रही है।
नया जनादेश हासिल करने के लिए भाजपा के पास 9 साला शासन की एक भी उपलब्धि गिनाने लायक नहीं है, उल्टे हर मोर्चे पर विराट विफलताएं उसे मुंह चिढ़ा रही हैं। फिर BJP किस नैरेटिव और एजेंडा पर चुनाव लड़ेगी?
विदेश से देश की धरती पर लौटते ही चुनावी राज्य MP के अपने बूथ कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए मोदी ने 27 जून को जो कहा है, और 3 दिन से सत्ता-शीर्ष की विश्वासपात्र केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और भाजपा IT सेल के प्रमुख अमित मालवीय राहुल गांधी को लेकर जिस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, उसे जोड़ कर देखा जाय तो 2024 के लिए उनके एजेंडा और नैरेटिव की तस्वीर साफ होने लगती है।
कहानी गढ़ी जा रही है कि विपक्षी मोर्चा (मुसलमानों) का तुष्टीकरण करने वाले महाघोटालेबाजों का राष्ट्रविरोधी गठजोड़ है जो विदेशी ताकतों के साथ मिलकर मोदी जी को हटाना चाहता है और रेवड़ियां बांटकर देश को बर्बाद करने पर तुला है जबकि, मोदी जी इन घोटालेबाजों पर प्रहार करते हुए wealth creators के सहयोग से देश में विकास की गंगा बहा रहे हैं और हिंदुत्व का जागरण कर भारत को विश्वगुरु बनाने की राह पर हैं।
जाहिर है, ऐसे विरोधियों को वे माफ नहीं करेंगे, उन्हें सजा देंगे, विपक्षी एकता को छिन्न-भिन्न करने की हर मुमकिन कोशिश करेंगे, मेगा ग्लोबल इवेंट्स की मदद से “विश्वगुरु” का आभामंडल बनाएंगे तथा राममंदिर और UCC की मदद से उन्माद की लहर खड़ी कर, मूल प्रश्नों से diversion तथा वोटों के ध्रुवीकरण की रणनीति पर बढ़ेंगे।
जहां तक दलों के मोर्चेबन्दी की बात है, 2014 से 23 तक मोदी राज जिस तरह चला है, उसकी एक बानगी यह भी है कि आज भाजपा के पास कोई उल्लेखनीय सहयोगी नहीं बचा है। वैसे तो यह भी विडंबना ही है कि जो भाजपा 17 विपक्षी पार्टियों की बैठक पर तंज करती है कि वे अकेले मोदी से नहीं लड़ सकते, वह स्वयं 22 पार्टियों को साथ लेकर विपक्ष के मुकाबिल हैं और अब फिर से नए सहयोगी तलाशने के लिए हाथ पैर मार रही है। बहरहाल संख्या चाहे जितनी गिना लें, कोई निर्णायक जनाधार वाला दल आज इनके साथ नहीं है।
दूसरी ओर अधिकांश बड़े गैर-भाजपा दल पहले ही विपक्षी मोर्चे में आ चुके हैं और हालात ऐसे बन रहे हैं कि चंद अपवादों को छोड़ दिया जाय तो बचे दलों में से भी कई देर सबेर (विधानसभा चुनावों के बाद, लोकसभा चुनाव के पूर्व अथवा उसके बाद) विपक्षी एकता की गाड़ी में सवार हो जायेंगे।
नीतीश कुमार ने दावा किया है कि कम से कम 10 और दल चुनाव के पहले गठबंधन में शामिल हो जाएंगे।
यह साफ हो गया है कि भाजपा को यह चुनाव करीब-करीब अकेले लड़ना है और उसकी चुनावी कहानी में अब न कोई नई राजनीतिक चमक है, न धार बची है। विपक्ष पर हमले के मोदी के हथियार भोथरे हो चुके हैं।
भाजपा के प्रत्युत्तर में विपक्ष का एजेंडा क्या होगा, विपक्षी एकता की गाड़ी चल पड़ने और मोदी जी का रोडमैप स्पष्ट हो जाने के बाद अब सबसे बड़ा सवाल यही है।
क्या विपक्ष अपने साझा vision, एजेंडा और कार्यक्रम से ऐसा आकर्षक, लोकप्रिय, पॉजिटिव नैरेटिव गढ़ सकता है जो मोदी राज से ऊबी, भंगमोह (disillusioned) जनता के मन में बेहतरी और खुशहाली की नई उम्मीद जगा सके और उसे मोदी के व्यामोह से निकालकर नए विकल्प की ओर मोड़ सके।
विपक्ष के सामने सबसे बड़ा कार्यभार अब हर हाल में अपनी नवजात एकता की रक्षा और एक लोकप्रिय नैरेटिव का निर्माण है- इन्हीं दो सूत्रों पर 2024 की तकदीर टिक गई है।
क्या विपक्ष चौतरफा लूट, दमन और नाइंसाफी से मुक्ति तथा बेहतरी और खुशहाली का ठोस आश्वासन आम जनता को दे सकता है?
क्या विपक्ष असहनीय हो चुकी महंगाई और रेकॉर्डतोड़ बेरोजगारी से आम जनता को राहत देने के लिए कुछ ठोस कदम की गारंटी दे सकता है?
ऐतिहासिक आंदोलन, शहादत और कुर्बानी के बावजूद मोदी सरकार द्वारा छले गए किसानों को क्या विपक्षी मोर्चा MSP की कानूनी गारंटी, कर्ज़ माफी और किसान पेंशन जैसा पैकेज दे सकता है?
क्या वह आत्महत्या के कगार पर खड़े बेरोजगारों, युवाओं, श्रमिकों के लिए रोजगार गारंटी कानून, सभी क्षेत्रों में युद्धस्तर पर रोजगार सृजन, सार्वजनिक क्षेत्र, सरकारी नौकरियों में सभी खाली पड़े पदों को time-bound भरने, ठेकाकरण पर रोक लगाने, सभी श्रमिकों को dignified wages, लेबर कोड की वापसी, बेरोजगारों के लिए जीवन निर्वाह योग्य भत्ते का ऐलान कर सकता है?
क्या वह जाति जनगणना व तदनुरूप आरक्षण के विस्तार समेत हाशिये के तबकों के संवैधानिक अधिकारों की पुनर्बहाली व रक्षा के लिए ठोस नीतिगत कदमों की घोषणा करेगा? क्या वह सरकारी सेवाओं के निजीकरण तथा सरकारी पदों पर lateral entry की व्यवस्था, जिनसे नौकरियां और आरक्षण जो दिन-प्रतिदिन खत्म होता जा रहा है, पर रोक लगाएगा?
क्या वह महिलाओं-श्रमिकों एवं गृहिणियों-के आर्थिक कल्याण, सुरक्षा तथा सशक्तिकरण, सबसे बढ़कर लंबे समय से लंबित महिला आरक्षण को लागू करने की गारंटी कर सकता है?
क्या वह उन काले कानूनों के खात्मे के लिए कदम उठायेगा, जो पिछले 9 साल से देश में अभिव्यक्ति और आंदोलन की आज़ादी को कुचलने में मोदी-शाह के हाथ का सबसे बड़ा औजार बने हुए हैं और जिनके तहत अनगिनत लोकतान्त्रिक शख्सियतें अकथनीय यातना की शिकार बनाई गई हैं?
क्या बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों के जीवन की सुरक्षा, धार्मिक आज़ादी की गारंटी दी जाएगी? क्या ऐसे ठोस नीतिगत कदम उठाए जाएंगे जिससे एनकाउंटर और बुलडोजर राज की पुनरावृत्ति असम्भव हो जाए? क्या मॉब-लिंचिंग, vigilante गिरोहों, नफरती संगठनों के उच्छेद के लिए कारगर कदम उठाए जाएंगे?
क्या ऐसे मूलभूत संवैधानिक- नीतिगत बदलाव होंगे जिनसे भविष्य में संवैधानिक संस्थाओं की आज़ादी और स्वायत्तता का अपहरण असम्भव हो जाय?
क्या चुनावों पर कॉरपोरेट के शिकंजे को कमजोर करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे। इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे mechanisms खत्म होंगे?
क्या सम्पूर्ण राष्ट्रीय सम्पदा, सार्वजनिक क्षेत्र को कॉरपोरेट के हवाले करने की नीति और कदम वापस लिए जायेंगे?
पिछले 9 साल में सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक जगत तथा राजकीय-प्रशासनिक ढांचे का जिस तरह भगवाकरण किया गया है, क्या उसे पलटा जाएगा?
सारतः, मोदी शासन के 9 साल में लुटे-पिटे, घायल, लपटों में झुलसते देश में, क्या विपक्ष आपसी भाईचारे, इंसाफ और अमन पर आधारित एक खुशहाल, लोकतान्त्रिक भारत का सपना जगा सकता है और उसे पूरा करने का भरोसा दिला सकता है?
यही वह समय है जब तमाम देशभक्त, लोकतान्त्रिक, सामाजिक न्याय की शक्तियों, जनान्दोलन की ताकतों, नागरिक समाज, जनवादी संगठनों को नए मनोबल और उत्साह के साथ देश और लोकतन्त्र की रक्षा के लिए तत्पर होना होगा। अपने मूलभूत एजेंडा पर जोर देते हुए 10 साल के धतकर्मों के लिए मोदी-भाजपा सरकार को घेरना होगा, जनता को उसकी पुनर्वापसी रोकने के लिए लामबंद करना होगा तथा विपक्षी गठबंधन पर सुसंगत लोकतान्त्रिक एजेंडा के साथ आगे बढ़ने के लिए दबाव बनाना होगा।
खबर है कि विपक्षी गठबन्धन की अगली शिखर बैठक 13-14 जुलाई को बेंगलुरु में होने जा रही है जो नफरती भगवा मॉडल के खिलाफ दृढ़प्रतिज्ञ धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक प्रतिरोध, सामाजिक न्याय तथा लोककल्याण के विपक्ष के मॉडल के बतौर उभर रहा है।
उम्मीद है बेंगलुरु बैठक विपक्ष की रणनीति को ठोस शक्ल देने में मील का पत्थर साबित होगी।
(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)