महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की औपचारिक घोषणा तो अभी बाद में, संभवतः हरियाणा, कश्मीर के चुनाव के बाद होगी, लेकिन वहां माहौल पूरी तरह चुनावमय हो चुका है। हाल ही में मोदी का वहां का दौरा और शिवाजी की मूर्ति टूटने पर बहुचर्चित माफी उसी का हिस्सा है।
उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक सांसद, विधायक वाला राज्य होने के नाते तो महाराष्ट्र राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है ही, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर कब्जा सभी दलों के लिए हमेशा से अलग ही आकर्षण का विषय रहा है। महंगे होते राष्ट्रीय चुनावों के दौर में इसका महत्व और बढ़ गया है।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार आज की तारीख में वहां MVA को स्पष्ट बढ़त हासिल है। टाइम्स ऑफ इंडिया (TOI) की रिपोर्ट के अनुसार MVA के एक आंतरिक सर्वे में उसे 288 सदस्यीय विधानसभा में 165 सीटें मिलने का अनुमान है जो बहुमत से 20 अधिक है।
वैसे लोकसभा चुनाव में MVA को जो 48 में 31 सीटें मिली हैं, उसे विधानसभा सीटों में तब्दील (extrapolate) किया जाय तो 188 सीटें हो जाती हैं।
विश्लेषकों के अनुसार मुंबई, कोंकण और उत्तरी महाराष्ट्र में तो महायुति की पकड़ बनी हुई है लेकिन नागपुर, अमरावती, मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र में MVA का दबदबा है। भाजपा का महाराष्ट्र में जो उभार हुआ था, इसके पीछे सोशल इंजीनियरिंग की बड़ी भूमिका रही है।
उदाहरण के लिए विदर्भ में कुनबी कांग्रेस के साथ थे। कुनबी दलित मुस्लिम समीकरण के बल पर कांग्रेस वहां की बड़ी ताकत थी। भाजपा ने वर्चस्वशाली कुनबी समुदाय के खिलाफ माली धनकर बंजारी समुदाय का वैकल्पिक समीकरण बनाया। यहां एक समस्या यह थी की भाजपा की ब्राह्मण-बनिया पार्टी की छवि थी, लेकिन उनके उस समय के सहयोगी शिवसेना की ऐसी छवि नहीं थी।
बाला साहब गैर ब्राह्मण समुदाय से आते थे। भाजपा ने रणनीति के तहत उन्हें हिंदुत्व आइकन के बतौर प्रोजेक्ट किया ताकि पिछड़ी जातियां उनके इर्दगिर्द गोलबंद हो सकें। इस तरह सभी गैर कुनबी ओबीसी जातियों को हिंदुत्व की छतरी के नीचे ले आने में वे सफल रहे।
इसी प्रकार तुलनात्मक रूप से आगे बढ़ी महार जाति के खिलाफ अन्य दलित जातियों को हिंदुत्व की छतरी के नीचे वे गोलबंद करने में सफल रहे। नतीजतन 2014 में विदर्भ की सभी 10 सीटें जीतने में वे कामयाब रहे, इसी तरह 2019 में भी 8 सीट जीत गए लेकिन 2024 में केवल 3 सीटें उन्हें मिलीं।
इस बार संविधान की रक्षा के लिए दलितों पिछड़ों का अच्छा खासा हिस्सा MVA की और शिफ्ट कर गया और महायुति धड़ाम हो गई। यह पूरी परिघटना उत्तर प्रदेश से बहुत मिलती जुलती है। यहां भी लोकसभा चुनाव में ठीक इसी तरह दस साल से जारी सोशल इंजीनियरिंग का किला ढहा।
लोकसभा चुनाव ने दोनों गठबंधनों के अंदरूनी समीकरण को भी गड़बड़ा दिया है। MVA की कुल 30 सीटों में अप्रत्याशित ढंग से 13 सीटें जीत कर कांग्रेस नंबर एक पर आ गई। सांगली में बगावत करके लड़े उम्मीदवार ने उद्धव के प्रत्याशी को हरा दिया और कांग्रेस के प्रति समर्थन व्यक्त किया।
गौरतलब है कि 2019 में कांग्रेस को मात्र एक सीट मिली थी और 2014 में केवल 2 सीट! इस बार शरद पवार के दल को 8सीटें मिलीं, उसका स्ट्राइक रेट उद्धव के दल से बेहतर रहा जिसे 21 सीटों पर लड़कर 9 सीटें ही मिलीं।
उधर महायुति में शिंदे की पार्टी को भाजपा से केवल दो कम 7 सीटें मिलीं। वह मुंबई में शिवसेना के परंपरागत मराठी वोटों में सेंधमारी करने में भी सफल रही।
ऐसा लगता है कि भाजपा को मराठा वोटरों की नाराजगी झेलनी पड़ी है, लेकिन शिंदे जो खुद भी मराठा हैं, मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरंगे पाटिल से तालमेल बैठाकर अच्छा खासा मराठा वोट पाने में सफल रहे हैं। इससे तय हो गया कि फिलहाल उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आंच आने वाली नहीं है।
कहा जा रहा है कि उनको भाजपा की जितनी जरूरत है, उससे अधिक बैसाखियों पर टिकी मोदी सरकार को उनके 7 सांसदों की जरूरत है।
सबसे बुरा हाल अजीत पवार के दल का हुआ। बारामती की प्रतिष्ठामूलक लड़ाई में उनकी पत्नी सुनेत्रा पवार सुप्रिया सुले से पराजित हो गईं। यह अलग बात है कि तत्काल ही भाजपा ने उन्हें राज्यसभा में भेज दिया। अजीत पवार के दल को लोकसभा चुनाव में केवल एक सीट मिली।
बताया जा रहा है कि उद्धव ठाकरे को दलित मुस्लिम वोटरों में तो समर्थन मिला लेकिन परम्परागत मराठी वोटरों में वह कमजोर हुई है। उनके बीच विकसित मध्यवर्ग राष्ट्रीय दलों की ओर अधिक आकर्षित हुआ। भाजपा के साथ रहने पर उसे मिलने वाला गुजराती, मारवाड़ी, जैन, उत्तर भारतीय वोट उसके हाथ से निकल गया।
जिन 13 सीटों पर शिवसेना के दोनों गुटों में आमने सामने टक्कर हुई उनमें 7 शिंदे गुट जीत गया! जाहिर है उद्धव ठाकरे की पार्टी को मोदी शाह द्वारा तोड़े जाने से उपजी सहानुभूति से आगे जन गोलबंदी और चुनावी प्रबंधन की दिशा में अभी बहुत कुछ करना होगा।
ऐसा लगता है कि पार्टियों को तोड़ने और स्वयं मोदी द्वारा घोषित भ्रष्टों को भाजपा द्वारा अपने साथ लेने का जनता के ऊपर प्रतिकूल असर पड़ा है। जनता के मूड को भांपते हुए RSS भी इसकी आलोचना कर चुका है।
पिछले 26 अगस्त को सिंधुदुर्ग में शिवाजी की प्रतिमा गिरने से राज्य की सियासत में भूचाल आ गया है। पूरे प्रदेश में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। कोल्हापुर में सड़कों पर जनसमुद्र उमड़ पड़ा।
मुंबई में हुतात्मा चौक से गेटवे ऑफ इंडिया तक हुए विराट मार्च का नेतृत्व 84 वर्षीय शरद पवार, उनसे 8 साल छोटे शिवाजी के 12वे वंशज सांसद साहू महाराज छत्रपति तथा एमवीए के अन्य नेताओं ने किया।
गेटवे ऑफ इंडिया पर उमड़े जनसैलाब को संबोधित करते हुए उद्धव ठाकरे ने कहा मोदी की माफी में अहंकार था, जो स्वीकार्य नहीं है। उन्होंने तंज किया कि यह भी नहीं पता कि यह माफी मूर्ति गिरने के लिए थी, उसमें हुए भ्रष्टाचार के लिए थी या उसे ढकने के लिए थी!
उन्होंने कहा जनता उनको माफ नहीं करेगी जिन्होंने शिवाजी का अपमान किया है। उद्धव ने ललकारते हुए कहा हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक शिवाजी महाराज से विश्वासघात करने वालों को सत्ता से बाहर नहीं खदेड़ देते।
भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ महाराष्ट्र की जनता की भावना को, उनकी नफरत को स्वर देते हुए “जूते मारो” अभियान चल रहा है। बताया जा रहा है कि 2.36 करोड़ में बनी प्रतिमा, जिसका अनावरण स्वयं मोदी ने 4 दिसंबर 2023 को किया था, वह एक साल के अंदर ही ढह गई।
रिपोर्ट के अनुसार 35 फीट ऊंची इस प्रतिमा को बनाने का ठेका संघ भाजपा से नजदीकी, भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार के चलते एक ऐसे ठेकेदार को दिया गया, जिसे मात्र 2 से 4 फीट की मूर्तियां बनाने का अनुभव था !
भाजपा गठबंधन लोकसभा चुनाव से ही कमजोर विकेट पर था, लगता है शिवाजी मूर्ति प्रकरण उसकी ताबूत में आखिरी कील साबित होगा। देश की आर्थिक राजधानी में लम्बे समय से बड़ी ताकत रही भाजपा के पराभव के नतीजे राष्ट्रीय राजनीति के लिए दूरगामी महत्व के साबित होंगे।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)