जरूरत है धन और मुनाफा के मजनुओं की 

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किसी हिंदी चैनल पर ग़ज़ब का एक इश्तिहार पर्दे पर उभरता है। दो जुमले पर्दे पर गूंजते हैं और दर्शकों को अपनी तरफ बरबस खींच लेते हैं। कान जुमलों के आशिक़ बन जाते हैं। चुंबकीय जुमले हैं: हम सबको धन से प्यार है, हम मुनाफ़ा पसंद करते हैं। सतही दृष्टि से देखने पर दोनों जुमलों में कोई खोट दिखाई नहीं देता है। ऐसे जुमले इश्तिहारी भाषा का बाज़ार गढ़ते रहते हैं और ग्राहकों को अपनी ओर रिझाते रहते हैं। एक ज़माने में ‘दिल मांगे मोर’ का जुमला देश भर में उछला था।

समाजशास्त्रियों ने इसके छिपे सन्देश की काफी पड़ताल की थी। समाज में यह कैसा प्रभाव पैदा कर रहा है, इसका विश्लेषण किया था। ‘हमें धन से प्यार है और मुनाफा पसंद करते हैं’ में भी गूढ़ सन्देश है। इसे समझने की ज़रूरत है। कोई भी इश्तिहार फौरी प्रभाव के साथ दूरगामी प्रभाव भी पैदा करता है। इश्तिहार एकल रेखकीय नहीं होता है, बहु रेखकीय होता है। इसमें दृश्य व अदृश्य, दोनों प्रकार के अर्थ रहते हैं। दृश्य अर्थ उपभोक्ता को आकर्षित करता है, लेकिन अदृश्य अर्थ या सन्देश सम्भावी ग्राहक व बाज़ार तैयार करता है।

पर, सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह है कि इश्तिहार से ऐसी संस्कृति का भी निर्माण होता चलता है जिससे ग्राहक आसानी से बाहर नहीं निकल पाता है। इस संस्कृति के मोहपाश से परस्पर मानवीय रिश्ते और नागरिक व देश के बीच संबंध भी अवचेतन में निर्धारित होते रहते हैं। वज़ह यह है कि ग्राहकवादी इश्तिहार ग्राहक की इन्द्रियों पर सीधा हमला करते हैं। उन्हें इश्तिहार के प्रायोजकों के मंसूबों के अनुकूल बनाने की कोशिश करते हैं।

इश्तिहार में ‘अनुकूलन प्रक्रिया’ अन्तर्निहित होती है। टारगेट निर्धारित रहता है। इसलिए इन दो जुमलों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इस सच्चाई को याद रखना चाहिए कि इश्तिहार के सन्देश तटस्थ व सत्ता निरपेक्ष नहीं होते हैं। वे राज्य की पोलीटिकल इकोनॉमी के वाहक व प्रवक्ता होते हैं। इश्तिहार  देश के आर्थिक चरित्र व पूंजी सेहत के मापक यंत्र होते हैं। इश्तिहार फ़ैशन का रूप निर्धारण करते हैं।  अतः जुमलों को हंसी-ठिठोली में खारिज नहीं किया जा सकता है। इसे पड़ताल की दरकार है।

इश्तिहार का यह जुमला समाज में ऐसी संस्कृति को प्रोत्साहित करता है जोकि विशुद्ध धन या रुपये  पर आधारित हो। यदि किसी देश और समाज का एक मात्र धेय ‘धन और मुनाफ़ा’ अर्जन बन जाता है तो तमाम जैव व अजैव वस्तुएं और संबंध भी धन और मुनाफ़ा केंद्रित बनने लगते हैं। हम प्रत्येक चीज़ को धन व मुनाफ़ा के चश्में से देखना शुरू कर देते हैं। हम अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा व मेधा को धन व लाभ केंद्रित कर डालते हैं।

यदि किसी व्यक्ति, समाज और राज्य व्यवस्था से धन व मुनाफ़ा की प्राप्ति नहीं होती है तो हम उनका तिरस्कार व बहिष्कार करने लगेंगे। यह सही है कि जीवन यापन के लिए धनोपार्जन ज़रूरी है। लेकिन, जब मनुष्य की सभी चेतन क्रियाओं को धन और लाभ में रूपांतरित कर देते हैं, तब हम मनुष्य और उसके द्वारा रचित समाज व राज्य को यांत्रिक बना डालते हैं। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम संवेदनशीलता और विवेकशीलता को आघात पहुंचता है; मनुष्य, समाज और राज्य विशुद्ध रूपसे यांत्रिक बन जाते हैं।

ऐसे क्षणों में मुझे चार्ली चैप्लिन की मूक फ़िल्में याद आ रही हैं जिनके माध्यम से मानवीय संबंधों के यांत्रीकरण की प्रक्रिया को दर्शाया गया था। ‘सबको सोना चाहिए’, ऐसी संस्कृति अस्तित्व में आने लगती है। ‘धन या रुपया और मुनाफ़ा’ से इश्क़ सुनने में अच्छा लगेगा, लेकिन यह इश्क़ या प्रेम आपके मानस को कितनी सफाई के साथ जकड़ने लगेगा, आपको पता भी नहीं चलेगा।

इसकी गिरफ़्त गहरी होती जायेगी। यह गिरफ्त उत्पाद को खरीदने तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि कालांतर में यह अप संस्कृति की शक्ल ले लेगी। इश्तिहार जीवन का ही नहीं, सामाजिक यथार्थ बन जाएगा। यह संस्कृति इतनी मायावी या मोहक रहेगी कि व्यक्ति और समाज, दोनों ही इससे मुक्त नहीं हो सकेंगे।

एक मिथ यथार्थ में कैसे परवर्तित होगा, इन दो जुमलों के विश्लेषण से पता लगाया जा सकता है। याद रखें, टीवी को बड़ों के साथ साथ युवा और किशोर भी देखते हैं। छोटे बच्चे भी देखते हैं। जब दोनों जुमलों का सन्देश उनके कानों के माध्यम से मस्तिष्क में पहुंचेगा, तब इसकी कैसी हलचल होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। धन और मुनाफ़ा अर्जन के लिए मनुष्य पशुवत हो कर जुत  जाता है। वह अपना चैन-शांति-नाते-रिश्ते सब कुछ भूल जाता है। निरंतर जुता रहता है धन और मुनाफ़ा के लिए।

अतः मनुष्य और देश के जीवन में धन और लाभ की धींगामस्ती को कमतर नहीं समझा जाना चाहिए। इस दौर में यह धींगामस्ती और भी उग्र होती जा रही है क्योंकि राज्य की राजनीतिक आर्थिकी (पोलिटिकल इकोनॉमी) ने ऐसे ही माहौल को जन्म दे दिया है। मोदी-राज की राजनीतिक आर्थिकी का विशेष दबाव ‘येन-केन-प्रकारेण’ धन और मुनाफ़ा अर्जन पर है। सरकारों के पतन व दल बदल की संस्कृति में धन व मुनाफ़ा से इश्क़ के रोल को देखा जा सकता है।

इस काम में नियोजित धन व मुनाफ़ा मटमैला ही होता है। इसलिए इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है। इसके साथ ही यह तब होता है जब जीवन जीने को महंगा कर दिया जाए और कल्पनाशीलता, सृजनात्मकता तथा बौद्धिकता को सुप्त कर दिया जाए। व्यक्ति व समाज की ‘सामूहिक विवेचनात्मक शक्ति’ (क्रिटिकल फैकल्टी) को कुंद कर दिया जाए। उन संस्थानों को  निष्प्रभावी बना दिया जाए जहां मेधा का सृजन होता आया है।

इसका ज्वलंत उदाहरण है जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय की रुग्ण दशा। आज इस विश्वविख्यात   विश्वविद्यालय की गरिमा लुप्त हो चुकी है क्योंकि यह कभी मेधा-सृजन का केंद्र रह चुका है और यहां से शिक्षित-दीक्षित विद्यार्थी राज्य को सवालों के कठघरे में खड़ा करने की सामर्थ रखते थे। उनकी इस सृजनात्मक ऊर्जा को ‘टुकड़े टुकड़े गैंग, राष्ट्रविरोधी, आतंकवादी, अर्बन नक्सल‘ जैसे तमगों से बदनाम किया गया।

अन्य विश्विद्यालयों की स्थिति भी कहां बेहतर है। उनका भी हाशियाकरण हो चुका है। ऐसी संस्थाओं की ऑटोनोमी पर डाका मारा जा चुका है। ऐसे कुलपतियों और प्राचार्यों को शिक्षण संस्थाओं से बाहर कर दिया गया है जोकि देश में विवेचनात्मक चेतना के पक्षधर थे। इस सन्दर्भ में डॉ प्रतापभानु मेहता का प्रकरण एक उदाहरण है।

विवेचनात्मक चेतना के सर्जक और पक्षधर के सामने चयन के लिए एक ही विकल्प बचा है- तटस्थ ख़ामोशी या जैल। जैलों में कई पत्रकार और चिंतक एक्टिविस्ट ख़ामोशी का जीवन जी रहे हैं। इनका क़सूर सिर्फ इतना ही है कि इन्हें ‘धन और मुनाफा’ से मोहब्बत नहीं है। इस प्रजाति के लोग मोदी-राज की राजनीतिक आर्थिकी को विषमतावादी मानते हैं। धन और मुनाफा अर्जन में नैतिकता, मनुष्यता और विधि-विधान बाधक कारक नहीं बनने चाहिए।

पिछले दिनों वर्ल्ड इकनोमिक फोरम ने अपनी 19 वीं ‘विश्व संकट रिपोर्ट’ ज़ारी की थी। रिपोर्ट के अनुसार भविष्य में भारत में अवैध आर्थिक गतिविधियों को सबसे बड़ा संकट बताया गया है। इस संकट की वज़ह से देश में विषमता और गैरबराबरी बढ़ेगी। आर्थिक अपराधों में इजाफा होगा। धन और संसाधनों का केन्द्रीकरण होगा।

इस तरह का सिलसिला स्वाभाविक लगता है क्योंकि राज्य, व्यक्ति व समाज को ‘धन और मुनाफ़ा का मजनू’ में तब्दील करता जा रहा है। भावी पीढ़ियों के लिए यह ख़तरनाक़ स्थिति है। क्योंकि वर्तमान राज्य कॉर्पोरेट पूंजी का प्रोत्साहक, उपासक और संरक्षक बना हुआ है। इस दौर में पूंजी का एकाधिकारवाद बढ़ा है। चरम उपभोक्तावाद का फैलाव होता जा रहा है। ज़ाहिर है बाज़ार में अंधाधुंध उत्पाद की आमद को खपाने के लिए धन की आवक भी उसी मात्रा में होनी चाहिए।

मटमैली पूंजी का भी स्वागत है। इसलिए लोगों के मनोविज्ञान को भी धन और मुनाफ़े का मजनू बनाना होगा। अतः धन+मुनाफ़ा के मजनू-रोमियो की आबादी तैयार करने के लिए ऐसे ही संदेशों के इश्तिहारों की भरमार की ज़रूरत मीडिया में है। और अब मीडिया जिन्न बन कर आका का हुक्म बजाने के लिए तैयार है।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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