मोहन भागवत और क्षत्रपों की बात से कांग्रेस में आएगा नया मोड़!

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जैसा कि हम सभी जानते हैं कि बड़ी मजबूरियों में भाजपा सरकार स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र समारोह पिछले दस वर्षों से मना रही हैं। तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज भी बेमन से फहराया जाता रहा है। जिसे राष्ट्रपिता बापू से नफ़रत हो। ये सब जिस संस्थान से आया है उसके प्रमुख हैं मोहन भागवत। हिंदू राष्ट्र बनाना और मनुस्मृति लागू करने का पाठ आज़ादी से पूर्व इनके मन में 1925 से ही जन्म ले चुका था। जिसे संस्थान के अनुषंगी संगठन भाजपा ने अपना ध्येय बनाया किंतु कुछ देशीय और विदेशी परिस्थितियों ने उन्हें रोके रखा।

ये बात अटल जी भी जानते थे किन्तु नेहरू जी की प्रेरणा और सानिध्य से वे इन बातों पर ज़ोर नहीं दे पाए। किंतु मोदी काल आते ही ये सच उनकी गतिविधियों में स्पष्ट तौर पर दिखने लगा। नई नवेली भाजपा सांसद कंगना रनावत ने तो आज़ादी का वर्ष सरेआम 2014 को बताया जहां से मोदीराज प्रारंभ हुआ लेकिन वे गलत सिद्ध हुईं। संघ प्रमुख इसे मोदी काल से नहीं बल्कि उस दिन से भारत को आज़ाद मानते हैं जब श्रीरामलला की प्राण-प्रतिष्ठा होती है यानि 22 जनवरी 2024 को मानते हैं यानि जुम्मा जुम्मा दो साल।

इस कथन से एक बात तो ये समझ में आती है कि वे मोदी काल में मिली कथित आज़ादी के पक्ष में नहीं है जिसे कंगना रानावत कह रही है। वैसे संघी पहले से ये कहते रहे हैं कि भारत की आजादी सौ साल की लीज़ पर है और हम ब्रिटिश सरकार के अधीन हैं तो सौ साल पूरा तो हो जाने देते मोहन भागवत जी लीज़ ख़त्म होती तो फिर आज़ादी ले लेते। अब राम मंदिर बीच में क्यों प्रवेश कर गया कि प्राण-प्रतिष्ठा से आज़ादी को जोड़ दिया।

कहीं आपको ये तो नहीं लग रहा कि देश का अवाम राम मंदिर को भूल चुका है और उसे जिंदा कर नया उत्साह पैदा कर भाजपा की जीत की राह प्रशस्त करें। 2025 में संघ की प्राण-प्रतिष्ठा के सौ साल होने जा रहे हैं। नये उत्साह का संचार तो देश में करना ही पड़ेगा। इसलिए चलो इस वर्ष में नव आज़ादी वर्ष की घोषणा कर दें। उन्होंने कर भी दी। लेकिन यह दांव फेल हो गया।

जब विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने मोहन भागवत को आड़े हाथों लेते हुए कहा यह देश के स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान है। यह सरासर राष्ट्रद्रोह है यदि किसी और देश में किसी संगठन ने ऐसा कहा होता तो अब तक गिरफ्तारी हो चुकी होती। विशेष बात ये जब यह वक्तव्य आया उसी दिन कांग्रेस को नया भवन मिला जिसमें आज़ादी के संग्राम से लेकर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मनमोहन सिंह के कार्यो तथा संविधान निर्माता भीमराव अम्बेडकर तथा संविधान की मूल भावना, आज़ादी के स्वतंत्रता सेनानियों और वर्तमान सरकार के नफ़रत भरे माहौल के ख़िलाफ़ मोहब्बत का पैगाम देने वाली भारत जोड़ो यात्रा को दर्शाया गया है जो कांग्रेस के अवदान को दर्शाता है। किताबों से भले इसे हटाया गया है लेकिन कांग्रेस भवन इस अवदान को याद दिलाता रहेगा। जिसे मिटाने संघ और भाजपा। सक्रिय हैं।

इस समारोह में हुए वक्तव्यों से ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने अपने को अब मजबूती से देश भर में चुनावी मैदान में अकेले लड़ने का मन बना लिया है। यह निर्णय महत्वपूर्ण है क्योंकि क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन कांग्रेस की राह में हमेशा रोड़े डाल रहा था। कांग्रेस ने बहुत संयम दिखाया। क्षेत्रीय दलों को जिताने कड़ी मेहनत भी की। लेकिन केजरीवाल, ममता बनर्जी और अखिलेश यादव के रवैए की जब अति हुई तो यह फैसला लेना वाजिब ही कहा जाएगा।

क्योंकि राज्यों में अपनी मोनोपाली के चलते उन्होंने कांग्रेस को राज्य से लगभग बाहर रखने की कोशिश की ममता बनर्जी ने तो कांग्रेस को बंगाल से बाहर कर अपनी साख जमाई। यही केजरीवाल का हाल है उन्होंने बिना गठबंधन से सलाह लिए पूरी सत्त्तर सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए और भाजपा से कांग्रेस के मेलजोल की बात कहकर कांग्रेस को अपनी राह चुनने का मौका दिया।

राहुल गांधी या यूं कहें कांग्रेस की सहनशीलता का इन दलों ने भरपूर फायदा लिया और उसे भाजपा के विचारों से प्रेरणा लेकर मैदान से खासकर राज्यों से बाहर करने की जुगत लगाई। भागवत और कंगना रनावत के बयान पर भी कोई खुलकर नहीं बोला।तब कांग्रेस को गहरा झटका लगा और उसने कांग्रेस को मजबूती देने का नया संकल्प लेना पड़ा है।

इससे एक बात तो साफ है कि कांग्रेस ही एक ऐसा दल है जो संघ और संघ नीत भाजपा सरकार से लड़ने का माद्दा रखता है। वामदलों को छोड़कर सभी दलों की भूमिका संदिग्ध हैं।ममता और अखिलेश की पार्टी भाजपा के साथ सरकार में शामिल हो चुकी है। केजरीवाल संघ की बी टीम है ही। ऐसे लोगों के साथ गठबंधन टूटना ही था।

दूसरी बड़ी बात ये कि ये जो छत्रप हैं इनकी राज्य में भले तूती बोले देश में इनकी कोई वकत नहीं है जबकि कांग्रेस आज भी संपूर्ण देश कीजानी पहचानी पार्टी है। उसका ये निर्णय भले ही उसे हाल के चुनावों में सफलता कम दे पर निश्चित तौर पर कांग्रेस पार्टी को पक्की जमीन मिलेगी। तब 2029 के आम चुनाव में कांग्रेस अपना बर्चस्व कायम करेगी। छोटे छोटे दलों की धमकियां और समझौतों की राजनीति भी ख़त्म हो सकेगी। कांग्रेस का एकला चलो रे सार्थक होगा। अभी पूरे चार साल हैं। हम तो यही कहेंगे देर आए दुरुस्त आए।

कुल मिलाकर भागवत का दोहरा चरित्र राष्ट्रीयता के लिए कलंक है। भाजपा तथा क्षत्रपों की असलियत भी सामने आ चुकी है। इन सबसे लड़ना आसान नहीं है किंतु सच्चाई, झूठ पर देर सबेर विजय पाएगी ही।

(सुसंस्कृति परिहार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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