भारत की राजनीति में अभी कई मकाम आयेंगे तमाशबीन बनना खतरनाक

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सामने बिहार विधानसभा का चुनाव है। लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 240 पर समेट देने के बाद इंडिया गठबंधन में राजनीतिक उत्साह का वातावरण बनना स्वाभाविक था। चार सौ के पार’ की घोषणा के बाद 240 पर सिमट जाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए बड़ी राजनीतिक चोट साबित हुई और विपक्ष के लिए सांस लेने के लिए थोड़ी-सी हवा बनने लगी।

हवा तो बनने लगी, लेकिन उस के बाद हुए हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान भी और नतीजा निकलते ही लगा फिर वही ढाक के तीन पात। आम लोगों को लगने लगा इंडिया गठबंधन में कोई राजनीतिक समझदारी नहीं है। वोटर लिस्ट, यानी मतदाता सूची में हेरा-फेरी की बात उठी और बात आई-गई होकर रह गई। लोगों के दिल-दिमाग में बस यही बात फंसी रह गई है कि इंडिया गठबंधन में पारस्परिक राजनीतिक समझदारी की कमी है या फिर वे अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं के बोझ को उतार नहीं पा रहे हैं।

इंडिया गठबंधन के साथी घटक दल अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ कांग्रेस पर लादने के फिराक में रहते हैं। कहीं से आवाज आती है कि इंडिया गठबंधन का नेतृत्व मुझे या किसी दूसरे को दे देना चाहिए, कम-से-कम कांग्रेस के पास नहीं रहने दिया जाना चाहिए। कोई किसी को ‘कुछ’ देता है तो अपनी स्थिति देखकर ही देता है। जिन्हें ऐसा लग रहा है उन्हें आगे बढ़कर कभी इंडिया गठबंधन की बैठक खुद बुला लेनी चाहिए। लेकिन नहीं, ऐसा नहीं किया गया।

राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषकों का यह भी कहना है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव का नतीजा भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में इसलिए चला गया कि कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों को उतार दिया। बात में दम है। लेकिन गुजरात या हरियाणा में क्या हुआ था! भले ही आम आदमी पार्टी तकनीकी रूप से इंडिया गठबंधन का साथी है, लेकिन नंगी सच्चाई यह भी है कि साथी होने के बावजूद साथ नहीं है।

दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस नेता अपने प्रचार अभियान की गति एक बारगी कम कर दी थी, राहुल गांधी की तबीयत खराब हो गई। लेकिन प्रियंका गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे की तबीयत तो ठीक रही होगी। लेकिन नतीजा क्या निकला, आम आदमी पार्टी के पोस्टर में भ्रष्टाचारियों की तस्वीर के बीच राहुल गांधी की भी तस्वीर लगा दी गई। आम आदमी पार्टी जीत भी जाती तो इंडिया गठबंधन या कांग्रेस की राजनीति का क्या होता, इस पर कुछ भी कहना मुश्किल ही है।

इस समय ये सारे सवाल फिर से इसलिए उठ रहे हैं कि सामने बिहार विधानसभा का चुनाव है। इस चुनाव में महागठबंधन के साथी प्रमुख राजनीतिक दल राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव और उनके समर्थकों को लग रहा है कि कांग्रेस उन की राजनीतिक जमीन हथियाने की कोशिश कर रही है। ऐसा क्यों लग रहा है, कारण स्पष्ट है। नहीं क्या?

असल में कांग्रेस में बिहार के दो नेताओं पप्पू यादव राजेश रंजन यानी पप्पू यादव और कन्हैया कुमार की राजनीतिक सक्रियता से परेशानी है, खासकर कांग्रेस के साथ मिलकर उन के सक्रिय होने पर परेशानी है। परेशानी इतनी है कि कई गंभीर राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक इस निष्कर्ष पर पहुंचते लग रहे हैं कि पप्पू यादव और कन्हैया कुमार को सक्रिय के कारण महा-गठबंधन पर भी आंच आ सकती है।

राजनीतिक विश्लेषकों को ऐसा लग रहा है तो उस का निश्चित ही कोई न कोई आधार तो होगा ही। पप्पू यादव लोकसभा न पहुंच सकें इस के लिए सब से ज्यादा किसी ने कोशिश की थी तो राष्ट्रीय जनता दल ने की। तेजस्वी यादव को पप्पू यादव से क्या परेशानी है, भला! कहा जाता है कि राष्ट्रीय जनता दल यादवों की राजनीति करती है। तो पप्पू यादव भी तो यादव ही हैं।

पप्पू यादव भी यादव हैं और यही खतरा है। खतरा यह कि पप्पू यादव राष्ट्रीय जनता दल के समर्थक यादवों को अपने पाले में हांक ले जा सकते हैं। दूसरा यह कि उन से उसी प्रकार से राजनीतिक ठुमका लगाने की उम्मीद राष्ट्रीय जनता दल के नेता नहीं कर सकते हैं जिस तरह से ठुमका लगाने की बात तेजप्रताप यादव किसी सिपाही से करते हुए होली के दिन देखे गये।

कहने का आशय यह है कि पप्पू यादव भी तो यादव हैं तो सही लेकिन राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति के माकूल नहीं हैं। तो क्या यहां भी वही हवा नहीं चल रही है, जो किसी के भी सिर उठाकर जीने कीजिए चलने की कोशिश से हवा खफा हो जाती है। क्या पप्पू यादव को इस हवा से अपना जिस्म-ओ-जां बचाकर चलना चाहिए। पप्पू यादव तमाम विरोधों के बावजूद अपना लोकसभा चुनाव जीत गये।

पप्पू यादव तमाम विरोधों के बावजूद अपना लोकसभा चुनाव जीत गये। लेकिन सच्चाई यह भी है कि राष्ट्रीय जनता दल के उम्मीदवारों को वैसी सफलता नहीं मिली जैसी कि उसे उम्मीद थी। पप्पू यादव कांग्रेस से चुनाव लड़ना चाहते थे, एतराज कांग्रेस को भी नहीं था। लेकिन समझा जाता है कि राष्ट्रीय जनता दल को एतराज था।

यह एतराज इतना गहरा था कि कांग्रेस पप्पू यादव के लिए महा-गठबंधन को पूर्णिया सीट की व्यवस्था नहीं कर पाई। लेकिन राजेश रंजन यानी पप्पू यादव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच गये। इस समय निर्दलीय सांसद होने के बावजूद पप्पू यादव कठिन मोर्चा पर कांग्रेस के साथ हैं। वे चाहते तो भारतीय जनता पार्टी में शामिल होकर या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का हिस्सा बनकर मंत्री पद की संभावनाओं को टटोल सकते थे। जाति के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी के लिए अधिक सुविधाजनक भी होते।

लेकिन पप्पू यादव ने मंत्री पद की संभावनाओं को नहीं टटोला और वे कांग्रेस के साथ कठिन मोर्चा पर साथ हैं। ऐसे में कांग्रेस यदि पप्पू यादव पर भरोसा कर रही है तो क्या बुरा कर रही है। ध्यान में होगा ही उन्होंने अपने दल का विलय भी कांग्रेस में कर दिया था। राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं को महा-गठबंधन की सेहत पर सोचते हुए इन बातों पर गौर करना चाहिए, खासकर राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषकों को तो जरूर करना चाहिए।

किसी को कांग्रेस में कन्हैया कुमार की सक्रियता पर क्यों एतराज होना चाहिए? क्या इसलिए कि कन्हैया कुमार सवर्ण हैं; कहा जाता है वे भूमिहार हैं। यह ठीक है कि भूमिहार जाति की छवि बिहार में दबंग जाति की है, और यह शायद बहुत गलत भी नहीं है। लेकिन कन्हैया कुमार की पारिवारिक हैसियत और निजी पृष्ठ-भूमि उन की जाति की छवि से मेल नहीं खाती है।

कन्हैया कुमार पढ़े-लिखे हैं। JNU के चर्चित छात्र नेता रहे हैं। मिजाज वाम-पंथी है। वे तेज तर्रार और हाजिर जवाब युवा हैं। पिछले लोकसभा चुनाव बिहार में गिरिराज सिंह के खिलाफ जीत नहीं पाये थे। गिरिराज सिंह भी उन्हीं की जाति के हैं। गिरिराज सिंह के खिलाफ कन्हैया कुमार का चुनाव लड़ना उन की जाति के अधिकतर लोगों को पसंद नहीं आया था। भूमिहार जाति के लोग कन्हैया कुमार जाति विरोधी ही मानते हैं।

कन्हैया कुमार का पढ़े-लिखा होने, तेज तर्रार होने, हाजिर जवाब और युवा होने को उन का गुण माना जा सकता है। लगता है यही गुण राष्ट्रीय जनता दल के लिए उन्हें सब से अधिक अस्वीकार्य बना देता है। कहा जाता है कि बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह भी कन्हैया कुमार की ही जाति के हैं। अखिलेश प्रसाद सिंह भी कन्हैया कुमार को महत्व दिये जाने को लेकर बहुत सहज नहीं हैं। मजे की बात यह है कि राष्ट्रीय जनता दल को भी बिहार कांग्रेस के आरोप में अखिलेश प्रसाद सिंह से कोई असुविधा नहीं है।

जाति के होने के बावजूद पप्पू यादव जैसे कर्मठ लेकिन ठुमका न लगानेवाले नेता का सक्रिय होना राष्ट्रीय जनता दल को असहज बनाता है तो फिर क्या कहा जा सकता है! कन्हैया कुमार जैसे युवा लेकिन सवर्ण युवा यदि स्वीकार्य नहीं होता है तो फिर किसी तरह का सवर्ण नेता स्वीकार्य हो सकता है?

चुनावी जीत-हार अपनी जगह। लेकिन कांग्रेस यदि इस परिस्थिति में महा-गठबंधन को किसी राजनीतिक आंच से बचाने के लिए राजेश रंजन यानी पप्पू यादव और कन्हैया कुमार की सक्रियता को निस्तेज कर देती है तो यह उस की बड़ी विचारधारात्मक हार ही होगी। ईमानदारी की बात यह है कि किसी भी राजनीतिक दल के लिए इस समय राजनीतिक जमीन बचाने से अधिक जरूरी है राजनीतिक जमीर को बचाना।

प्रसंगवश, कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा कामंदकीय नीतिसार दोनों ही भारत की सांस्कृतिक परंपरा में महत्वपूर्ण हैं। कौटिल्य और चाणक्य एक ही व्यक्ति हैं। चाणक्य या कौटिल्य के अर्थशास्त्र साथ-साथ कामंदकीय नीतिसार को भी याद किया जाना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी को चाणक्य आदर्श लगते हैं। क्योंकि चाणक्य राजा को हमेशा युद्ध की मुद्रा में रहने के प्रशंसक रहे हैं।

भारतीय जनता पार्टी को चाणक्य नीति पसंद है। जीवन को युद्ध में बनाये रखना भारतीय जनता पार्टी की ‘चाणक्य-नीति’ का राजनीतिक अभ्यास है। चाणक्य नीति के अनुसार युद्धों के लिये सक्षम रहने के लिए शिकार करने का अभ्यास निरंतर करना होता है। भारतीय जनता पार्टी भी निरंतर राजनीतिक शिकार की तलाश में रहती है।

विपक्ष और इंडिया गठबंधन भी कामंदकीय नीतिसार का अनुशासन न मानकर चाणक्य नीति पर चलने की कोशिश में लगी रही तो फिर क्या कहा जा सकता है! कामंदकीय नीतिसार तो मेल-मिलाप, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व और हर प्राणी के जीने के अधिकार और सुरक्षा का महत्व रेखांकित करता है।

महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कांग्रेस और महा-गठबंधन चुनावी जीत के साथ-साथ राजनीतिक जमीर को बचाने में कितनी कामयाब रहती है। कामयाबी बहुआयामी हुआ करती है, हमारे समय में कामयाबी का एक आयामी होते चला जाना सभ्यता की बड़ी दुर्घटना है। यही वह समय है जब वृहत्तर वाम-पंथ भारत की संसदीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता को फिर से परिभाषित कर सकती है।

ऐसा इसलिए कि वास्तविक संघर्ष साम्राज्यवाद से है। साम्राज्यवाद से निर्णायक संघर्ष तो वाम-पंथी विचार और व्यवहार तत्व ही कर सकता है। भारत की राजनीति में अभी कई मकाम आयेंगे। देखा जाये किधर का पानी किधर डगरता है! जो भी हो नागरिक समाज तमाशबीन बना नहीं रह सकता है। तमाशबीन बनना खतरनाक है!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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