(कोबाड गांधी एक कम्युनिस्ट और जाति-विरोधी राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने भारत के सबसे हाई-प्रोफाइल राजनीतिक कैदी के तौर पर दिल्ली और आंध्र प्रदेश सहित देश भर की विभिन्न जेलों में अपने जीवन का एक दशक बिताया है। जब उन्हें पहली बार 2009 में गिरफ्तार किया गया था, तो उन पर “वरिष्ठ माओवादी नेता” होने का आरोप लगाया गया, हालांकि बाद में अदालतों द्वारा उन्हें आरोप-मुक्त कर दिया गया। साल 2019 के अंत में जेल से बाहर आने के बाद, उन्होंने अपने राजनैतिक जीवन के अनुभवों को विस्तार से लिखना शुरू किया, कैसे उनका झुकाव कम्युनिस्ट आंदोलन की तरफ़ हुआ, महाराष्ट्र में ‘दलित पैंथर्स’ आंदोलन के साथ उनके अनुभव, साथ ही उनकी जीवन संगिनी व एक्टिविस्ट अनुराधा के संघर्षों के संस्मरण, विभिन्न जेलों तथा न्याय प्रणाली के बरसों-बरस के उनके अनुभवों को बखूबी दर्ज करना शुरू किया। वे तमाम अनुभव एक राजनैतिक संस्मरण के तौर पर अब एक किताब में दर्ज है। ‘Fractured Freedom: A Prison Memoir’ नाम से छपी इस किताब का ‘खण्डित आज़ादी: कारावास के कुछ संस्मरण’ के नाम से अब हिन्दी तर्जुमा भी सेतु प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है। इस साक्षात्कार में पत्रकार सबा गुरमत ने कोबाड गांधी से कम्युनिस्ट कार्यकर्ता का जाति दृष्टिकोण, जेल में जीवन, नवउदारवाद के दौर में राजनैतिक सक्रियता और आज की तारीख़ में समाजवादी होने के क्या मायने है जैसे विषयों पर बातचीत की है।)
सबा गुरमत: आपने अपनी किताब में, जनशक्ति (90 के दशक में कई कम्युनिस्ट संगठनों के साथ आने से आकार में आया एक संगठन) के गठन पर चर्चा करते हुए इस बारे में बात की है कि किस प्रकार उस समय भी जाति का सवाल अधिकतर कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के लिए “एनेथेमा” जैसा था, साथ ही आप बताते हैं कि जनशक्ति के कार्यकर्ताओं के बीच दलित पैंथर्स को समर्थन करने के लिए एक हिचकिचाहट थी, आपने इस पर भी एक लेख लिखा था, जो अब उपलब्ध नहीं है-क्या आप हमें उन परिस्थितियों के बारे में कुछ और बता सकते हैं? आज भी, कम्युनिस्ट पार्टियां अक्सर ब्राह्मणवादी नेतृत्व में काम करती हैं और जाति के मसले की अनदेखी करती हैं। क्या आप उनके नज़रिए में कोई बदलाव देखते हैं?
कोबाड गांधी: चाहे वह जनशक्ति समूह हो या कई दूसरे मार्क्सवादी-लेनिनवादी मोर्चे, जाति के प्रश्न को अनदेखा करने के पीछे सैद्धांतिक से कहीं अधिक व्यावहारिक कारण था। मैं कुछ पैंथर्स के नेताओं को जानता था और जमीनी स्तर पर काम भी कर रहा था, क्योंकि हम वर्ली के मायानगर में थे, जहां हमारा शिवसेना के साथ संघर्ष हुआ था। इसलिए मेरा मिलना सिद्धार्थ विहार कॉलेज के हॉस्टल में रह रहे दलित पैंथर नेताओं से होता था, इसके साथ ही मायानगर में झुग्गी-झोपड़ी वालों के साथ भी मेरा मिलना-जुलना था। उन्हीं दिनों मैंने इस मुद्दे का अध्ययन किया और इसे कई कम्युनिस्टों के सामने उठाया। लेकिन अधिकतर कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं का विचार था “जैसे शिवसेना के लुम्पन हैं, जैसे मराठा लुम्पन हैं वैसे ही ये दलित लुम्पन हैं,” इसलिए इन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन मैं वैसे भी जमीनी स्तर पर काम कर रहा था और मुझे विश्वास हो गया था कि जातिगत उत्पीड़न भी बहुत बड़ा मसला है। इसलिए, जब मैंने देखा कि हमें माले (ML) के उन संगठनों में कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है जिनसे हम संपर्क में थे, तो मैंने भी अनुराधा की तरह लिखना शुरू किया। फ्रंटियर प्रकाशन में हमने संयुक्त रूप से लिखा: “मार्क्सवादी दृष्टिकोण से भी जाति को क्यों लिया जाना महत्वपूर्ण है” नाम से लिखा, मेरा ख़्याल है कि यह साल 1978 रहा होगा जब यह लेख छपा। इसी तरह उन्हीं दिनों मराठी प्रकाशन ‘सत्यशोधक मार्क्सवाद’ में भी एक लंबा लेख छपा।
उस समय महाराष्ट्र में काफी कुछ चल रहा था। हिंदुत्व के सामने काफ़ी बाधाएं थी, नामांतर आंदोलन (बीआर अंबेडकर के नाम पर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बदलने के लिए) चल रहा था। इसलिए मार्क्सवादी भी जाति के प्रति आंखें नहीं मूंद सकते थे क्योंकि वहां वास्तव में दलितों के नेतृत्व वाले आंदोलनों में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ था। लेकिन, देश के बाकी हिस्सों के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, मुझे नहीं पता। माले का अधिकांश नेतृत्व आंध्र के लोगों से आया था, और मुझे नहीं लगता कि उस समय आंध्र के लोगों के बीच उस प्रकार का विचार था। प्रसिद्ध कम्युनिस्ट क्रांतिकारी कविसगदर दलित थे, और अधिकांश लोकप्रिय गायक और सांस्कृतिक मोर्चे भी: आवाहन नाट्य मंच, विलास घोगरे, संभाजी भगत, कबीर कला मंच भी दलित थे। वे सभी क्रांतिकारी गायक काफ़ी प्रतिभाशाली कलाकार थे, वे जिस भी भाषा में प्रदर्शन करते, दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते। मुझे लगता है कि अगर आप व्यवहारिक स्तर पर देखें तो ये दलीलें मुझे अब भी सुनने को मिल रही हैं कि इनमें से कुछ बेहद प्रतिभाशाली लोग हैं, बहुत गरीब भी हैं और गम्भीर परिस्थितियों में रहते हैं। तो स्वाभाविक रूप से मुझे लगता है कि वे अपनी स्थिति में बेहतरी देखना चाहते थे, जो वे कम्युनिस्ट आंदोलनों के भीतर नहीं देख सके। तो वे चले गए, ऐसी चीजें हुईं।
एक ओर वामपंथी जातिवाद को अपने एजेंडे में नहीं ले रहे थे, दूसरी ओर दलितों में पहचान की राजनीति को बढ़ावा देने वाले कहते रहे कि वामपंथ पूरे तौर पर ब्राह्मणवादी आंदोलन है, जिसने केवल दलित और कम्युनिस्ट आंदोलनों के बीच के अंतर को बढ़ाया है। लेकिन वामपंथी उस समय जाति के सवाल को क्यों नहीं उठा रहे थे, मुझे इसके मुख्यतया तीन कारण लगते हैं। एक तो यह कि भारत में वामपंथ अत्यधिक ‘डोग्मेटिक’ रहा है। उन्होंने स्थानीय परिस्थितियों के लिए मार्क्सवाद या माओवाद या जो कुछ भी विचारधारा हो उसकी व्याख्या नहीं की है। उन्होंने रूस और चीन से बिना परिवर्तन किए उधार लिया है, जहां पर जातिवाद नहीं है, जाति तो सिर्फ भारत की सच्चाई है। इसलिए वे इसकी परिकल्पना नहीं कर पाए।
दूसरा कारण यह है कि दुनिया भर में ज़्यादातर वामपंथी आंदोलन छात्रों द्वारा शुरू किए गए हैं, लेकिन यहां की शिक्षा व्यवस्था में भारी संख्या में ऊंची जाति के लोग हैं। यह केवल एक भर सवाल नहीं है कि वे नेता जन्मना ब्राह्मण हैं। क्योंकि बात यह है कि जब हमारी शिक्षा प्रणाली ने सवर्णों को अनुचित तरीके से लाभ पहुंचाया है, तो उनका प्रभुत्वशाली जातियों से होना लाजिमी है। यदि आप शिक्षा प्रणाली को बदल देते हैं, तो वह सब कुछ बदल देगा। असली समस्या यह है कि ये नेता अपनी सोच में पूरी तरह से सुधार नहीं कर पाए और अपनी सोच में मौजूद पूर्वाग्रहों को जड़ से उखाड़ नहीं पाए।
मैंने हाल ही में मनोविज्ञान के दायरे में सोचने की कोशिश की है। हमारे कई विचार बचपन से ही हमारे मन में घर कर जाते हैं, जिसे फ्रायड ने “अवचेतन मन” कहा, और ये हमारे जीवन के पहले पांच से दस वर्षों में बहुत गहराई से दिमाग में प्रोग्राम किए जाते हैं। इसलिए, जो कुछ भी प्रोग्राम किया जाता है, हमारे पारिवारिक वातावरण और अन्य वातावरणों के द्वारा, जो भी आप के साथ संवाद करते हैं, वह आपके अवचेतन में गहराई तक बैठ जाता है। अधिकतर मार्क्सवादियों के साथ समस्या यह है कि उन्होंने पढ़ा है कि सामाजिक प्रणाली चेतना को निर्धारित करती है। यह बात हमारे अवचेतन पर बचपन के प्रभाव को प्रभावित नहीं कर पाता। परिणामस्वरूप हमारे हलकों में जाति और पितृसत्ता ज़ोरदार तरीक़े से मौजूद है। हालांकि सूक्ष्म तरीके से, उतने खुले तौर पर नहीं। एक ओर तो यह मनोवैज्ञानिक अवचेतन मन में गहराई तक समाया हुआ है और दूसरी ओर हमारा सामाजिक परिवेश भी बहुत सामंती है। इसलिए सिर्फ़ विचारधारा भर में बदलाव से हमारी सोच और भावनाएं अपने आप नहीं बदल जातीं। मुझे याद है कि सुजाता गिडला की किताब (एंट्स अमंग एलिफेंट्स), कॉमरेड सत्यमूर्ति पर लिखी गई वह किताब बहुत दिलचस्प है- रेड्डी जाति कैसे व्यवहार करती थी। वे वैसे तौर पर तो अनुसूचित जातियों के अनुकूल थे, लेकिन उन्हें अपने घर पर नहीं बुलाते थे। तो वे उस तरह से “उदार” होंगे, लेकिन उससे आगे नहीं। वही पितृसत्ता भी सही है-एक निश्चित दायरे तक “उदार” लेकिन उससे आगे नहीं। अब, यदि आप हिंदी बेल्ट में जाते हैं, तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में महाराष्ट्र जैसे सामाजिक-सुधार आंदोलन भी नहीं हुए हैं। जातिवाद और पितृसत्ता के मुद्दों पर आपको वैसी न्यूनतम “उदार” प्रकार की सोच भी नहीं दिखेगी। वे अधिक बेशर्म तरीक़े से ब्राह्मणवादी है।
अंत में, तीसरा कारण नेतृत्व की “व्यावहारिकता” है। तथ्यात्मक रूप से, अधिकांश (कम्युनिस्ट कैडर) ओबीसी हैं, केवल अल्पसंख्यक दलित होंगे। इसलिए उनमें जातिगत भावनाएं प्रबल होती है। मजदूर वर्ग के स्तर पर बहुत से लोग केवल आर्थिक मांगों के कारण आपके आंदोलनों में हैं। जाट और गुर्जर जातियों के वर्चस्व वाले किसान संघों को देखिए, और मजदूर वर्ग के ट्रेड-यूनियन आंदोलन में भी ओबीसी अधिक हैं। और अगर आप आन्दोलनों में यह कहने लगे कि “जाति भाव छोड़ो, यह करो, वह करो,” तो वे किसान आंदोलन या ट्रेड यूनियनों की आर्थिक मांगों से भी दूर भाग सकते हैं। तो ज्यादातर, नेतृत्व सोचता है कि “जाने दो यार अभी के लिए, आर्थिक चीज अभी उठान बाद में सोचेंगे जाति का यह एक वास्तविक व्यावहारिक समस्या है जिसे हल करना वास्तव में कठिन है। और फिर वे आर्थिक मांगों पर टिके रहते हैं, क्योंकि यह मानसिकता को बदलने की कोशिश करने और जातिगत भावनाओं और पितृसत्ता को बदलने का सिरदर्द कौन मोल ले है, हैं ना? अगर कोई अपनी पत्नी को पीटता है, तो आप चुप रहेंगे, और कहेंगे, “वो तो यूनियन लीडर, उसके तो बच्चे हैं, उसे जाने दो। ऐसा होता ही रहता है समाज में।” तो वही होता है, और ये मुद्दे दरी के नीचे डाल दिए जाते हैं।
हमें अपनी तरफ से यह महसूस करना होगा कि हमारी कमजोरी यह है कि हमने जाति की समस्या को कभी गंभीरता से नहीं लिया। हमें खुद को सुधारना होगा और समझना होगा कि, भारत में, कोई भी लोकतांत्रिक नहीं है- और हर मार्क्सवादी लोकतांत्रिक क्रांति की बात करता है, संसदीय मार्क्सवादियों से लेकर चरम माओवादियों तक- इस देश में जाति के उन्मूलन के बिना संभव नहीं है। यह जन्म से असमान है, जन्म से दमनकारी है, जन्म से विभाजक है। हिंदू-मुसलमान एक विभाजन है, लेकिन जाति भारत को एक हजार, या वास्तव में पांच हजार, गुटों में तोड़ने की हद तक विभाजित करती है! और इसलिए यह देश के भीतर किसी भी लोकतांत्रिक परिवर्तन का एक मुख्य पहलू है कि जाति व्यवस्था को पूरे तौर पर ख़त्म कर दिया जाए। ख़त्म करने का का मतलब सिर्फ़ कानून से नहीं है, यह हमारे मन में है, यह हमारे व्यवहार में है, यह हमारी चेतना में है।
सबा गुरमत: आज भी मीडिया रिपोर्ट्स में आपको नक्सली/माओवादी के रूप में चित्रित करती है, और आप अपनी किताब में अपमानित करने के बारे में बात भी करते हैं- उदाहरण के लिए, कई लोगों ने आप पर सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य होने का आरोप लगाया, जबकि यह अप्रमाणित था। आप वास्तव में खुद को राजनैतिक रूप से कहां परिभाषित करते हैं? और जो आज आप यूएपीए (UAPA) के तहत राजनैतिक कैदी है उनके बारे में मीडिया कवरेज के साथ कोई समानता देखते हैं?
कोबाड गांधी: हां मैं पूरी समानता देख पाता हूं, मुझे लगता है कि यह सिर्फ एक मीडिया ट्रायल है जो उन्होंने किया। जहां तक खुद को परिभाषित करने की बात है, मैं समाजवाद के पक्ष में हूं। पूंजीवाद के पास कोई जवाब नहीं है। वास्तव में, इसने न केवल लोगों के जीवन बल्कि पर्यावरण को भी नष्ट कर दिया है। और अगर आप ऐतिहासिक रूप से देखें तो पूंजीपतियों के खून में डूबे हाथों से कोई भी व्यवस्था नहीं आई है, चाहे वह अमेरिका और ओशिनिया की पूरी मूल आबादी का सफाया हो। भारत में, यहां तक कि नई किताबों और सभी आंकड़ों के अनुसार भी लाखों लोग अकाल, युद्ध आदि में अंग्रेजों द्वारा मारे गए। इसलिए पूंजीपतियों, जिनकी विचारधारा ने भी उपनिवेशवाद को भी बढ़ावा दिया, के पास हिंसा के सिवा कुछ नहीं है, और (वे) उसी पर बढ़े हैं। आज पश्चिम में विकास उपनिवेशवाद के कारण ही हुआ है।
खासकर 1990 के दशक के बाद के नवउदार काल में, लोगों का जीवन नष्ट हो गया है, पर्यावरण नष्ट हो रहा है, समाज का हर पहलू नष्ट हो रहा है, यहाँ तक कि लोगों की मानवता भी नष्ट हो गई है। उनके चरम उपभोक्तावाद ने ऐसे लोगों को पैदा किया है जो इतने अलग-थलग पड़ गए हैं, अलगाव से भरे हुए हैं। केवल अरबपति और उनके पिछलग्गू फले-फूले हैं और COVID समय में भी फलते-फूलते रहे हैं।
अब, सवाल यह है कि जब हम 60 और 70 के दशक में कम्युनिस्ट आंदोलन में आए थे, लगभग आधी दुनिया समाजवादी थी, फिर भी आज, सिर्फ अपने जीवनकाल में मुझे कुछ भी दिखाई नहीं देता। जिसे साम्यवादी कहा जाता था, चीन में अब वास्तव में अरबपतियों की संख्या सबसे अधिक है। तुलनात्मक और भू-राजनीतिक रूप से भी, मैं संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ चीन का समर्थन करूंगा। लेकिन यह शायद एक बहुत ही व्यावहारिक दृष्टिकोण है, किसी वैचारिक दृष्टिकोण से नहीं, और क्योंकि हमारे सभी शासक पश्चिम के प्रति भयानक रूप से गुलाम हैं। तो हां, राजनीतिक रूप से मैं समाजवाद और आमूल-चूल परिवर्तन के पक्ष में हूं क्योंकि अब, दुनिया के अधिकांश धन के मालिक मुट्ठी भर अरबपतियों के साथ, व्यवस्था पहले से कहीं अधिक अस्थिर है। लेकिन इस समाजवाद के रास्तों पर सवाल उठाए जा सकते हैं और बहस की जा सकती है।
सबा गुरमत: “मीडिया ट्रायल” के विषय पर, आपने अपने तिहाड़ में साथी कैदी अफ़ज़ल गुरु के साथ दोस्ती करने के बारे में भी लिखा है। उनकी फांसी के बारे में सजा-माफ़ी और अन्याय के बारे में बहुत कुछ बात हुई है। आप लिखते हैं कि, “मक़बूल भट की रचनाएं छप चुकी हैं, हालांकि प्रतिबंधित हैं, अफ़ज़ल की व्यापक रूप से विस्तृत डायरी अभी तक दिन के उजाले में नहीं देखी गई है; शायद अब तक जलाई जा चुकी होगी,” और गुरु की फांसी के तुरंत बाद एक मित्र को लिखे एक पत्र में उल्लेख किया था कि उनकी फांसी के बाद सब कुछ अस्थिर हो गया था। क्या आप थोड़ा विस्तार से बता सकते हैं?
कोबाड गांधी: देखिए, हमें दो दिन पहले आभास हुआ था कि कुछ हो रहा है। क्योंकि हम आगे की लाइन में थे, दो ब्लॉक थे। पीछे एक बी-ब्लॉक है और सामने एक ए-ब्लॉक है- हम शुरू में ए-ब्लॉक में थे फिर वहां बगीचा है और मैदान के एक कोने में “फांसी कोठी” थी, जो हमेशा बंद रहती थी। 1989 के बाद से वहां किसी को भी फांसी नहीं दी गई थी। अचानक 7 फरवरी, 2013 को हमें बताया गया कि पूरी जगह पर सफेदी करनी है, हमें रातों-रात बी-ब्लॉक में जाना है। तो हम चले गए।
तो फिर क्या हुआ, अगले दिन शुक्रवार को मुलाकात का दिन है और जो लोग बाहर गए उन्होंने देखा कि उस समय फांसी कोठी में काफी काम चल रहा था. हमें कर्मचारियों द्वारा बताया गया कि ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई अंतरराष्ट्रीय टीम आ रही है। हमें बहुत शक हो गया था कि फांसी होने वाली है। इसलिए अफवाहें फैलाई जाने लगीं कि (देविंदर पाल सिंह) भुल्लर को फांसी दी जा रही है। भुल्लर उस समय पहले से ही एक मनोरोग अस्पताल में थे। लेकिन अफजल ने उस समय कहा, “नहीं, अगर फांसी होनी है तो मैं ही होऊंगा।” और उस रात, मुझे वास्तव में उससे उसके नोट्स मांगने का मन हुआ। लेकिन फिर आप कैसे पूछ सकते हैं? हमें यकीन नहीं है कि उसे फांसी दी जानी है और हम किसी व्यक्ति को परेशान नहीं करना चाहते थे। परन्तु अगले दिन वे सवेरे आए और लगभग छ: बजे उसे उठा ले गए। और, मैंने हाल ही में इन साक्षात्कारों के बारे में बात की है, ज्यादातर कर्मचारी और लोग आंसू बहा रहे थे। लेकिन हां, अफजल गुरु एक विस्तृत डायरी लिखता था। और अगर मेरे पास वह होती, तो निश्चित रूप से ऐसी बहुत सी चीजें होतीं जिनके बारे में लोग बात कर रहे होते!
मकबूल भट के लेखन के बारे में मुझे नहीं पता। मैंने केवल अफ़ज़ल से सुना कि उसे ’84 में फांसी दी गई थी और वहीं दफनाया गया था। जाहिर है, पाकिस्तान भी उनके लेखन पर प्रतिबंध लगाता है। अफ़ज़ल ने मुझे बताया कि शुरुआती दौर में कश्मीर आंदोलन 80 के दशक के आख़िर तक, जब मकबूल भट को फांसी दी गई थी, यह यासीन मलिक के नेतृत्व वाला जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट था जो सबसे मजबूत था, और वे आज़ादी के लिए थे। वे सेक्युलर थे, पाकिस्तान के लिए नहीं। और अफ़ज़ल ने मुझे बताया कि 1980 के दशक में बड़ी संख्या में जेकेएलएफ से जुड़े बुद्धिजीवियों की कश्मीर में पाकिस्तानियों ने हत्या कर दी थी। और यह बाद में था- मुझे नहीं पता कि वास्तव में कब-कि यह पाकिस्तान से जुड़े उग्रवादी इस्लामी समूहों में बदल गया, जिसका स्पष्ट रूप से हिस्सा होने का आरोप अफ़ज़ल पर लगाया गया था। मुझे पता था कि वह रोज डायरी लिख रहा था। लेकिन हमने वह डायरी कभी नहीं देखी।
हमें कुछ नहीं दिया गया, कोई डायरी नहीं, कुछ भी नहीं। याद के तौर पर एक सफ़ेद थर्मस मांगा था, जिसमें वो चाय बनाया करते थे। लेकिन उन्होंने देने से मना कर दिया। मुझे नहीं पता कि इस बात में इतना क्या ख़तरा था।
सबा गुरमत: 70 के दशक को परिवर्तन के दौर के रूप में याद किया जाता है, उस दौर की विशेषता संगठनों की अगुआई वाले आंदोलनों, जैसे नक्सलबाड़ी, दलित पैंथर्स से लेकर ट्रेड-यूनियन आंदोलनें थी। समय के साथ, हमने इस तरह के आंदोलनों पर कड़ी कार्रवाई देखी है और आज ट्रेड यूनियनों और श्रम कानूनों को भी खत्म कर दिया गया है। आपको क्या लगता है कि आज की निजीकरण और क्रोनी कैपिटलिज्म वाली इस राजनीतिक-अर्थव्यवस्था में आगे बढ़ने का रास्ता क्या है?
कोबाड गांधी: पूरी समस्या यह है कि आज कोई भी राजनीतिक दल इसका पूरी तरह से विरोध नहीं कर रहा है। सीपीआई और सीपीआई (एम) नवउदारीकरण का विरोध करते हैं, लेकिन अस्पष्ट शब्दों में। और स्थिति अब वैसी नहीं है जैसी पहले हमारे समय में थी, जब आप ‘अमीर बनाम गरीब’ कहते थे। यह अब इतना आसान नहीं है। अब यह बाकी सभी लोगों के खिलाफ केवल मुट्ठी भर कॉर्पोरेट मालिक हैं। वास्तव में, इसीलिए अब मैं कहता हूं कि बजाज मॉडल भी इस गम्भीर क्रोनी-कैपिटलिस्ट अडानी-अंबानी मॉडल से बेहतर है!
आर्थिक परिवर्तन करने के लिए आपको एक राजनीतिक दल की आवश्यकता होती है, यह अपने आप नहीं होगा। इसलिए मैं कहता रहता हूं कि हमें एक ऐसे विपक्ष की जरूरत है जो नवउदारीकरण के खिलाफ स्पष्ट रुख अपनाए। यहां तक कि अभी जो किसान आंदोलन हो रहा है, पहले कांग्रेस ही इस तरह के कानूनों को आगे बढ़ा रही थी। शरद पवार (पूर्व कृषि मंत्री) ऐसे कानूनों को आगे बढ़ाने वालों में से एक रहे हैं। अब वे किसानों का समर्थन कर रहे हैं; बेशक यह अच्छा है। लेकिन आप इन चीजों पर भरोसा नहीं कर सकते। नवउदारवादी नीतियां आज पहले से कहीं अधिक आक्रामक हो गई हैं, और वे इसे और आक्रामक रूप से कर सकती हैं क्योंकि वे इसे राष्ट्रवाद के बैनर तले करती हैं। वास्तव में, जब मैं जेल में था, तब मैंने इस पर एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था, “क्या असली राष्ट्रवादी कृपा करके खड़े होंगे?” ये क्रोनी-कैपिटलिस्ट वास्तव में, सबसे बड़े “राष्ट्र-विरोधी” तत्व हैं। उन्होंने अपना पैसा विदेशों में लगाया, वे हमारे देश को लूट रहे हैं। कल ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने जो किया, वही आज ये क्रोनी कैपिटलिस्ट कर रहे हैं। वे नवउपनिवेशवादियों के उपकरण हैं। तो पूरा सवाल यह है कि जब तक आज कोई राजनीतिक मंच नवउदारीकरण के खिलाफ खड़ा नहीं होता, तब तक आप बदलाव की उम्मीद नहीं कर सकते।
सबा गुरमत: आपके काम को पढ़ने के साथ-साथ ‘स्क्रिप्टिंग द चेंज’ में अनुराधा गांधी के लेखन को पढ़ने के दौरान जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वह है “स्वयं को डीक्लास करने”, वर्ग पहचानों को मिटाने और जनता के बीच काम करने का ईमानदार प्रयास। वॉकनेस के साथ भरे आज के ऑनलाइन युग में, जब प्रिविलेज और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर कोरी बयानबाजी हर जगह देखी जा सकती है, लेकिन ऑनलाइन एक्टिविज्म के साथ वास्तविक व्यवहार में काम करने वाले कम ही मिलते हैं। आपके अनुसार ऐसा क्यों हो रहा है?
कोबाड गांधी: देखिए, बात यह है कि उस समय हमारे व्यवहार में बहुत आदर्शवाद था, और हम सभी गरीबों के बीच जाते थे और सादगी से रहते थे, लेकिन बहुत सारे लोग नहीं टिक सकते थे। यह हम में से कुछ ही थे जो आगे बढ़े। अनु और मैंने इंदौरा जाकर एक दशक से अधिक समय तक वहां रह कर ऐसा किया। उस समय, उदाहरण के लिए एक नॉर्म विकसित हुआ कि यदि पति (और) पत्नी दोनों कार्यकर्ता हैं, तो हमारे बच्चे नहीं होंगे। हमने इसका पालन नहीं किया, जैसे यदि आपके बच्चे हैं, तो उन्हें ध्यान देने की आवश्यकता है। या आप बच्चे को अपने माता-पिता या दादा-दादी को दे दें। तो यह बलिदान का सिर्फ एक पहलू है जो हमें करना पड़ा।
ऑनलाइन सक्रियता और इस तरह की चीजें सुविधाजनक हैं, लेकिन आप वास्तव में इसके माध्यम से गरीब से गरीब व्यक्ति तक नहीं पहुंच सकते हैं। ऑनलाइन मीडिया पर कौन है? आप मध्यम वर्ग के एक वर्ग से अपील कर रहे हैं, शायद गरीबों के एक छोटे हिस्से से भी। लेकिन आप कभी भी वास्तव में खुद को उनके बीच सक्रिय रूप से शामिल नहीं कर सकते। डिक्लासिंग केवल भौतिक स्थितियों में परिवर्तन नहीं है, यह वास्तविक जनता के बीच पहुंचने और काम करने के बारे में है। देखिए, मैं इतने भरोसे के साथ ऐसी बातें क्यों लिख और कह सकता हूं, जैसे मैं पहचान की राजनीति के बारे में ऐसी बातें कहता रहा हूं (इस इंटरव्यू में) जो वामपंथियों के एक खास तबके को रास नहीं आएगी? ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने कई दशक बिताए हैं और लोगों के बीच रहे हैं! जो दूसरों के पास नहीं है। जो इस बारे में बात करेंगे उनमें से अधिकांश ने न तो अपना जीवन जिया होगा और न ही जेल गए होंगे। लेकिन अब, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने इसका अनुभव किया है, मैं बहुत आत्मविश्वास के साथ बोल सकता हूं, भले ही मेरे सहयोगी मेरी बात मानने को तैयार न हों।
मुझे लगता है कि विशेष रूप से 1990 के दशक के बाद नवउदारवाद के साथ, हम एक दूसरे से इतने अलग हो गए हैं। उस प्रकार का आदर्शवाद मुझे दिखाई नहीं देता, हालांकि मुझे समाज के प्रति असंतोष दिखाई देता है। इसके अलावा, हालांकि अनु और मैंने अपनी संपत्ति और सब कुछ छोड़ दिया, हम भाग्यशाली थे कि हमारा एक परिवार था जो राजनीतिक रूप से हमारे विचारों का विरोध नहीं करता था और हर संभव तरीके से हमारा समर्थन करता था, इसलिए यह महत्वपूर्ण है।
सबा गुरमत: आपने वैश्विक पूंजी, असमानता और भारत के प्रवासी श्रमिकों के बीच कोविड संकट के बाद पलायन और जीवन के बारे में काफी सशक्त रूप से लिखा है। क्या आपने इन सभी घटनाओं के बीच राजनीतिक काम पर वापस जाने पर विचार कर रहे है? आपके जीवन का अगला पड़ाव कैसा दिख रहा है?
कोबाड गांधी: वास्तव में, मुझे लगता है कि कम्युनिस्टों को भी एक विशेष उम्र में सेवानिवृत्त हो जाना चाहिए, उन्हें अपने अस्सी की उम्र तक नहीं जाना चाहिए। एक उम्र के बाद आप वो शक्ति खो देते हैं जो छोटी उम्र में होती है। लेकिन अब, मैं 74 साल का हूं, मैं जल्द ही 75 साल का हो जाऊंगा। और बात यह है कि मेरे पास लिखने के लिए अब भी बहुत कुछ है। इस उम्र में जमीनी स्तर पर वापस जाने का कोई सवाल ही नहीं है, मेरे पास सहनशक्ति नहीं है, मेरे पास वह स्वास्थ्य नहीं है, उसके लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। और मेरे काम के लिए माहौल भी नहीं है। अगर कोई बड़ा (राजनीतिक) माहौल और दायरा होता तो मुझे नहीं पता। मुझे यह भी लगता है कि मुझे अपने अनुभव, विशेष रूप से आधी सदी के अनुभव को लिखकर योगदान देना है।
साथ ही, मुझे लगता है कि वर्तमान में दो तरह के बुद्धिजीवी हैं। एक वह प्रकार है (जो) कुछ भी सवाल नहीं करना चाहता; दूसरे जो किसी भी आमूल-चूल परिवर्तन को नकारते हैं और उनका मोहभंग हो जाता है। मुझे लगता है कि हम नहाने के पानी के साथ बच्चे को बाहर नहीं फेंक सकते; सच है, साम्यवाद में गंभीर झटके लगे हैं, लेकिन पूंजीवाद पहले से ज्यादा सड़ा हुआ और घिनौना हो गया है। इसका उत्तर है कि उस रास्ते पर चलते रहना है लेकिन उसकी कमियों को ढूंढ़ना भी है और उसे ठीक करना है। पूंजीवाद अपने आप में ख़राबियों से भरा है। इसमें सुधार करने और इसे और अधिक मानवीय बनाने के लिए कोई जगह नहीं है।
समस्या यह है कि बहुत से वामपंथी गहराई से बंटे हुए हैं और आगे भी बंटते रहे है। सवाल है, क्यों? जब हम किसी बड़े उद्देश्य के लिए आ रहे हैं, तो हमें एकजुट होने में सक्षम होना चाहिए! अगर सामान्य लिबरल भी किसी चीज के लिए एकजुट हो सकते हैं, तो हम क्रांतिकारी बदलाव की बात करने वाले एकजुट क्यों नहीं हो पा रहे हैं? मेरा मानना है कि इसका कारण जीवन और लोगों के प्रति हमारे दृष्टिकोण में है, और यही कारण है कि मैं अपनी पुस्तक में खुशी, आज़ादी और वैल्यूज के बारे में बात करता हूं जो परिवर्तन की किसी भी परियोजना के केंद्र में हैं। मुझे यकीन है कि लोग कहेंगे कि यह बहस का मुद्दा है। इसलिए मैं कहता हूं, आओ और हम इस बात पर बहस करें।
दूसरे प्रकार का व्यक्ति वह है जो पूरी तरह से निराशावादी हो जाता है। एक दम अंध वफादार और निराशावादी जैसी दो चरम अवस्थाएं तो मौजूद है लेकिन इसके बीच का कुछ भी नहीं। और मैं हमेशा इन दो प्रकारों के बीच में रहा हूं। साथ ही, चार या पांच साल बाद जेल से बाहर आने वाले ज्यादातर लोग या तो एकदम खामोश हो जाते हैं या उनमें नकारात्मकता भर जाती है या उन्हें मोहभंग हो जाता हैं। मुझे लगता है कि समाजवाद सही उत्तर है। इसके रास्तों पर बहस हो सकती है, क्योंकि हमने देखा है कि कितने तरीके सफल नहीं हुए हैं। इसलिए मैं अपने जीवन के इस पड़ाव पर अब लिखना चाहता हूं और उन सवालों, सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं जिन पर अपने अनुभव और सक्रियता के साथ आधी सदी बितायी है।
(कोबाड गांधी से सबा गुरमत की बातचीत का हिंदी में अनुवाद विभांशु कल्ला ने किया है।)
+ There are no comments
Add yours