भारत दुनिया का सर्वाधिक मिलेट्स उत्पादक देश, मोटे अनाजों की बढ़ रही मांग

Estimated read time 1 min read

आज देश में मिलेट्स के उत्पादन और उपभोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। मिलेट्स में छोटा अनाज और मोटा अनाज दोनों शामिल होते हैं। ये पहाड़ी, तटीय, वर्षा, सूखा आदि इलाकों में बेहद कम संसाधनों में ही उगाये जा सकते हैं। एक तरफ मिलेट्स की खेती में लागत कम आती है, वहीं इसका सेवन करने से शरीर को वो सभी पोषक तत्व मिल जाते हैं, जो साधारण खान-पान से मुमकिन नहीं है। यही वजह है कि अब बेहतर स्वास्थ्य के लिए चिकित्सक भी खान-पान में 15 से 20 प्रतिशत मिलेट्स को शामिल करने की सलाह दे रहे हैं।

पोषण सुरक्षा के मद्देनजर जो मिलेट्स को चिन्हित किए गए हैं, उनमें ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो, कुटकी, मड़ुआ, कंगनी, चेना, सांवा आदि शामिल हैं।

1943-44 में बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा) में एक भयानक अकाल पड़ा था, जिसमें लगभग 30 लाख लोगों ने भूख से तड़पकर अपनी जान गंवाई थी। ये द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था। माना जाता है कि अकाल का कारण अनाज के उत्पादन का घटना था।

मोटे अनाज

उक्त पोषण सुरक्षा एवं मिलेट्स खेती उत्पादन को लेकर राजधानी रांची के तुपुदाना स्थित सप्तऋषि सेवा सदन में दो दिवसीय एक कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसे संबोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा कि सदियों से प्रकृति मानव सभ्यता को यह सिखाती रही है कि किस तरह के भौगोलिक क्षेत्रों में इंसानों, पशुओं और जीव जगत के कौन-कौन से आहार के स्रोत अनुकूल होंगे।

वक्ताओं ने कहा कि आजादी के पहले बंगाल में भीषण भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हुई थी, जिसमें लाखों लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो गए थे। जबकि उस वक्त संताल के गोड्डा, राजमहल जैसे पहाड़ी इलाकों में इसका कोई गंभीर प्रभाव नहीं पड़ा था। क्योंकि वहां स्थानीय स्तर पर मिलेट्स की खेती होती थी और लोगों को मिलेट्स अनाजों सहित दालें व फलों में कटहल, जामुन, कुसुम जैसे प्रकृति अनुकूल खाद्य पदार्थ उपलब्ध था।

भोजन का अधिकार अभियान से जुड़े बलराम ने कहा कि जब हम बतौर एक किसान या कोई नीतिगत फैसले लेने वाले प्राकृतिक अनुकूलता के विपरीत फसलों का उत्पादन, फलों और अन्य कृषि उत्पादों को अपनाते हैं, तब समस्याएं आकार लेने लगती हैं। 1965 में देश में हरित क्रांति शुरू की गई। यह 1942 का बंगाल अकाल और देश की आजादी के बाद की परिस्थति के हिसाब से यह राष्ट्रीय स्तर पर आवश्यक कदम था। लेकिन आज भी देश की कृषि नीतियां हरित क्रांति के इर्द-गिर्द क्रियान्वित हो रही हैl

यह स्थिति झारखंड या तब के हिसाब से बिहार के पठारी इलाकों के साथ एक तरह का प्रशासनिक भेदभाव रहा था। आज इन्हीं नीतियों का दुष्परिणाम खेतिहर पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। आज जब हम अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष मना रहे हैं और मिलेट्स उत्पादन और बाजार पर स्थानीय से ग्लोबल स्तर पर बातें होने लगी हैं, हमें उत्साह के साथ बेहद सावधानी भी रखनी पड़ेगी कि कहीं ऐसा न हो कि ये पोषण युक्त खाद्य हमारे बच्चों की थालियों तक न पहुंचकर सिर्फ बड़ी कंपनियों के कब्जे में चली जाए और उनके कब्जे से महज बिस्कुट या आयरन टैबलेट के रूप में कंपनियों के जरिये हमे मिले।

कार्यशाला में फिया फाउन्डेशन के राज्य प्रमुख जॉनसन तोपनो ने कहा कि आज देश में डायबिटीज एवं अन्य खतरनाक बीमारियां हरित क्रांति के दुष्परिणाम हैं। दुनिया आज जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियों से जूझ रही है। इसका मुकाबला यदि करना है तो हमें मिलेट्स खेती की तरफ वापस जाना ही होगा। उन्होंने बताया कि झारखण्ड सरकार ने इस तरह के प्रयासों को प्रोत्सहन देने के उद्देश्य से इस वर्त्तमान वित्तीय वर्ष में 50 करोड़ का बजटीय आवंटन भी किया हुआ है।

रांची में मोटे अनाज पर कार्यशाला

स्वतंत्र शोधकर्ता एवं मिलेट्स मामलों के विशेषज्ञ शौमिक बनर्जी ने ऑनलाईन तकनीक से जुड़कर प्रतिभागियों को बताया कि भारत या दक्षिण एशिया में मूल मोटे अनाज कोदो, कुटकी, सांवा है। उन्होंने यह भी बताया कि मिलेट्स खेती की खासियत यह है कि यह अत्यंत कम पानी में पैदा हो जाता है और इसमें पोषण हेतु आवश्यक तत्व मौजूद होते हैं। इसके लिए झारखण्ड की भूमि व मौसम पूर्णत: अनुकूल है। यहां कम दिनों में मिलेट्स तैयार हो जाते हैं।

मिलेट्स अनाज को कई वर्षों तक भंडारित किया जा सकता है। आमतौर पर इन पौधों या फसलों में कीटों का कोई प्रकोप नहीं होता है। इतिहास गवाह है कि मिलेट्स खाद्य का उत्पादन 1886 के आसपास के समय में स्थायित्व के दौर में था। आज भी पूरे विश्व में भारत दुनिया का सर्वाधिक मिलेट्स उत्पादक देश है। यह हमेशा ध्यान रखें कि हम जितना पॉलिस खाद्य पदार्थ अपने आहार में ले रहे हैं, वह उतना ही हमारे शरीर के लिए नुकसान देह है। जाहिर है ऐसे में हम विभिन्न बीमारियों के शिकार होते रहेंगे।

इस अवसर पर महिला उद्यमी सह अजम एजेम्बा की फाउंडर सदस्या अरुणा तिर्की ने “मड़ुआ रोटी खाय-खाय, राईज लागिन जान देलैयं” ने वीर बिरसा नामक झारखंडी गीत गाकर अपना उद्बोधन शुरू किया। उन्होंने बताया कि आज दुनियाभर में मड़ुआ सहित मोटे अनाज की महत्ता को समझा जा रहा है। लेकिन हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि पहले हम हमारी थाली में ये आहार के रूप में ग्रहण करें। हमें अपने राज्य के लिए आने वाले समय में यह कार्ययोजना बनानी होगी कि प्रत्येक माह हर परिवार कम से कम 5 किलो मोटे अनाज खाद्यान्न के रूप में अवश्य शामिल करें। इसी हिसाब से इसके उत्पादन, भंडारण और बाजार जैसे विभिन्न आयामों पर कार्य योजनाएं सरकारी और गैर सरकारी स्तर कदम उठाये जाएंगे।

(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author