बस्तर। भारत में मात्र कुछ ही दूरी पर पानी और बानी बदल जाती है। जिसके साथ ही रीति-रिवाज, त्योहार और खान-पान भी बदल जाते हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग सांस्कृतिक परंपरा के त्योहार मनाए जाते हैं। ऐसा ही एक त्योहार है गोंजा (रथ यात्रा) जो बस्तर में अलग तरीके से मनाने के लिए प्रसिद्ध है।
बस्तर के आदिवासी समुदाय के लोग इसमें भगवान जगन्नाथ को तुपकी (तोप) से सलामी देते हैं। आठ दिनों तक चलने वाले इस त्योहार में बस्तर के आसपास के लोग शहर में आते हैं और तुपकी से रथ को सलामी देते हैं। इस तरह से गोंचा का त्योहार सिर्फ बस्तर में ही मनाया जाता है।
इस त्योहार में इस्तेमाल होने वाली तुपकी को बांस से कुछ विशेष तरीके से बनाया जाता है। जिसे जगदलपुर के आसपास के गांव के कुछ परिवार बनाते हैं। जो आज भी इसे बनाने में अपना भाग्य समझते हैं। जनचौक की टीम ने जगदलपुर से लगभग 20 किलोमीटर दूर जामावाड़ा गांव में कुछ ऐसे ही परिवारों से मिलकर तुपकी बनाने के बारे बातचीत की।
तुपकी की सजावट ने दिया नया लुक
इस साल गोंचा पर्व 20 जून को मनाया जाने वाला है। जिसके लिए शहर में भी खूब जोर-शोर से तैयारियां चल रही है। इसी बीच मैं जगदलपुर से लगभग 20 किलोमीटर दूर जामावाड़ा गई। गर्मी के कारण इस गांव के लोग बाहर बहुत कम दिख रहे थे। गांव में कई घर पक्के और कई मिट्टी के थे। गांव में किराना की दुकान के साथ एक सैलून भी था। इसी रोड से बाई तरफ जाता रास्ता तुपकी बनाने वाले कारीगारों के घर जा रहा था।
एक मिट्टी के घर के सामने मैं रुकी और मेरे साथी पत्रकार ने हल्बी में एक घर के बाहर से पूछा “यहां तुपकी बनती है, अंदर से आवाज आई हां”। इस आवाज के सुनते ही हम दोनों मिट्टी के इस घर में प्रवेश कर गए। जहां जून की तपती गर्मी के बीच बलदेव और सुकरी पति-पत्नी मिलकर मिट्टी के घर के रसोई में तुपकी बना रहे थे। बलदेव तपती गर्मी के बीच बड़ी ही श्रद्धा के साथ बांस की लड़कियों से तुपकी बना रहे थे।
मैं जिस वक्त उनके घर गई उस समय दंपत्ति ने कुछ तुपकियां पहले से ही बनाकर उनकी रसोई में रखे थे। जिसमें से एक में मंडिया पेंज रखा हुआ था। यह एक तरह का पौष्टिक आहार है। जिसे आदिवासी रोज पीते हैं ताकि उन्हें लू न लगे, साथ ही पेट ठंडा रहे।
इन्हीं बर्तनों और रसोई के एक कोने में दरवाजे के पास बैठकर दंपत्ति तुपकी बना रहे थे। दोनों के अगल-बगल तुपकी के अलावा कुछ सजावट का सामान रंगीन झिल्लियां, कलरफुल टेप और फेविकोल पड़ा हुआ था।
दंपत्ति से इस परंपरा को लेकर मेरी बातचीत शुरू होती है। बलदेव कहते हैं कि वो करीब 15 साल से इसे बना रहे हैं। गोंचा शुरू होने से कुछ दिन पहले इसको बनाना शुरू करते हैं और त्योहार के दौरान बेचकर फिर से अपने सामान्य जीवन में वापस चले जाते हैं।
बलदेव मेरे सामने तेज धारदार चाकू से बांस की छोटी-छोटी लड़कियों को काटते हैं उन्हें महीन करके छीलते हैं ताकि वह नली में आराम से चली जाए। बगल में बैठी उनकी पत्नी पहले से बनी हुई तुपकियों को रंगीन झिल्लियों से सजा रही थी।
बलदेव सिर्फ सीजन में ही इसे बनाते हैं उसके बाद पूरे साल मजदूरी करते हैं। जमीन के नाम पर उनके पास कुछ नहीं हैं। बेटे भी शहर में मजदूरी करते हैं। वह कहते हैं कि तुपकी बनाने में हमें थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन इसमें भी हमें मजा आता है।
जंगल से पहले बांस को काटकर लाते हैं, फिर उसे सुखाते हैं। ताड़ के पत्तों को सुखते हैं, ट्यूब की रबर को पतला-पतला काटते हैं। ताकि उसे बांधने में कोई दिक्कत न हो।
उनके बगल में काम करती सुकरी से मैंने पूछा एक दिन में आप कितना बना लेती हैं। वह हंसते हुए कहती हैं कि दिन का पता नहीं लेकिन गोंचा के लिए लगभग 80 से 100 बनाने का टारगेट होता है। इस साल भी उसी स्पीड से बना रहे हैं ताकि 20 जून को जगदलपुर में जाकर बेच सकें।
सुकरी को तुपकी के इतिहास के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। लेकिन मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि बहुत साल पहले राजा ने गोंचा में तुपकी चलाने को कहा था। इसलिए हम लोग अपने राजा की बात को अब तक मान रहे हैं।
बाजार के दौर में आया बदलाव
वहीं दूसरी ओर बलदेव बड़ी तेजी से बांस की लकड़ियों को जोड़कर तुपकी बना रहे थे। वह कहते हैं कि अब बाजार का दौर शुरू हो गया है। इसलिए तुपकी में भी कई तरह के बदलाव आ गए हैं। पहले सामान्य बांस की लकड़ी से ट्यूब की रबर की सहायता से बनाया जाता था। लेकिन जैसे-जैसे बाजार में चीजें आने लगी तो इसकी सजावट में बदलाव आने लगा है। साथ ही बढ़ती महंगाई के बीच इसके दाम में भी बदलाव आया है।
जिससे हमें इसे बनाने और बेचने में बहुत घाटा नहीं होता है। यह हमारे बस्तर की संस्कृति में एक तरह का हथियार है, तो लोग गोंचा वाले दिन खरीदते ही हैं।
मैंने बलदेव से पूछा क्या आप अपने बच्चों को यह बनाना सिखा रहे हैं। इस पर उनका जवाब था, बच्चों की मर्जी है अगर वह सीखना चाहे तो सीख सकते हैं। फिलहाल किसी ने नहीं सीखा है। इस दौरान बनी हुई तुपकियों को पत्नी सुकरी अंदर संवार कर रख रही थीं।
ये सारी तैयारी गोंचा के दौरान बेचने की थी। अब इसको चलाने के लिए गोली की जरुरत है। तुपकी बनाने और बातें करने में व्यस्त पति पत्नी ने मुझे बताया कि तुपकी का पूरा काम तब पूरा होगा जब इसकी गोली लेकर आएंगे। मैंने बड़ी उत्सुकता से इस गोली के बारे में जानने की कोशिश की।
बलदेव बातों-बातों में बताने लगे कि जंगली फल पेंग (मालकांगिनी) तुपकी की गोली है। तुपकी की नली में इसे डालते हैं और चलाते हैं। इसे शहर में बेचने जाने से पहले जंगल से लाया जाता है। यह हरे रंग का होता है।
खत्म हो सकती है परंपरा
इस बातचीत के बाद हम दूसरे कारीगर का घर ढूढ़ने के लिए निकलते हैं। कुछ लोगों से पूछने के बाद लच्छुदर के घर का पता मिलता है। घर के बाहर एक लकड़ी का गेट लगा होता है। हमें देखते ही वह दरवाजा खोल देते है।
घर के बाहर के हिस्से में एक उम्रदराज शख्स त्रिपाल और साड़ियों की छांव के बीच तुपकी बनाने में व्यस्त था। लच्छुदर तुपकी बनाने के लिए सारे सामान को बड़े व्यवस्थित रुप से लेकर बैठे थे। पहले बड़ी लकड़ी, फिर छोटी, ट्यूब, पानी का डिब्बा और ताड़ के सूखे पत्ते।
मैंने उन्हें पूछा कि कितने दिन से बना रहे हैं? इसका जवाब देते हुए कहते हैं कि अभी एक दो दिन पहले शुरू किया है। इस साल 50 से 60 बनाने का टारगेट है। घर के बड़े से घेरे में कुछ हिस्सा पक्का था तो कुछ कच्चा। जिसमें बत्तख घूम रही थी।
यहीं बैठकर लच्छुदर बस अपना काम कर रहे थे। फिलहाल उन्होंने आस-पास सजावट का सामान और फेविकॉल रखा था क्योंकि उसकी जरुरत तुपकी बनाने के बाद होती है।
लच्छुदर लगभग 20-22 साल से तुपकी बनाने का काम कर रहे हैं। उन्हें यह काम करना अच्छा लगता है। वह कहते हैं जैसे ही गोंचा का समय आता है मैं इसे बनाने बैठ जाता हूं। जब यह हो जाता है तो खेती-बाड़ी का काम करता हूं और जानवरों को चारने के लिए लेकर जाता हूं। उन्हें फायदे और नुकसान से ज्यादा मतलब नहीं है। उनका मानना है कि यह हमारी परंपरा है जिसे हमें करना चाहिए।
बड़ी तेजी से बांस की लकड़ी को आकार देते हुए वह मुझसे हल्बी हिंदी मिक्स में बात करने की कोशिश करते हैं। तुपकी बनाते हुए लच्छुदर से मैंने पूछा कि क्या आप अपने बच्चों को तुपकी बनाना सिखा रहे हैं? इसका जवाब देते हुए कहते हैं कि बच्चों की फिलहाल तो इसमें कोई रुचि दिखी नहीं है। अगर भविष्य में रुचि आएगी तो सिखा देगें।
मैंने उनसे पूछा कि अगर आपके बच्चे इसे नहीं सीखेंगे तो क्या यह कला और परंपरा खत्म हो जाएगी। इसका जवाब देते हुए वह कहते हैं कि हां स्वाभाविक सी बात है अगर नई पीढ़ी के लोग इसे बनाना नहीं सीखेंगे तो यह खत्म हो ही जाएगी।
20 जून को होने वाले गोंचा के लिए लच्छुदर जोर-शोर से तैयारी कर रह थे जिससे की मार्केट में ज्यादा से ज्यादा लोगों को बेचा जा सकें।
मैंने उनसे पूछा बाजार में लोग इसका सही मूल्य दे देते हैं? इसका जवाब वह हंसते हुए देते हैं मूल्य तो ठीक है लेकिन इतनी भीड़ के बीच कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो हम लोगों से ठगी कर लेते हैं। पास हैं पास हैं बोलकर तुपकी लेकर गायब हो जाते हैं। ऐसे में हमें घाटा हो जाता है।
लच्छुदर हर साल तुपकी बनाते हैं। कुछ दिनों के इस काम के बाद वह फिर से अपने सामान्य जीवन में वापस लौट जाते हैं। जहां कृषि करना उनका मुख्य काम है।
तुपकी का इतिहास
गोंचा पर्व में तुपकी से भगवान जगन्नाथ को सलामी दी जाती है। यह 600 साल से भी ज्यादा पुरानी परंपरा सिर्फ बस्तर के आदिवासियों के बीच आज भी मौजूद है। इसका इतिहास भी बड़ा रोचक है दंतककथा के अनुसार बस्तर के एक युवक ने कहीं एक बंदूक देखी। यहीं से उसे तुपकी बनाने का आइडिया आया। तुपकी “तुपक” शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है बंदूक।
बंदूक के आइडिया पर बनी तुपकी का प्रयोग जानवरों को भगाने के लिए किया जाता था। ऐसा कहा जाता है कि एक बार राजा पुरुषोत्तम को तुपकी के बारे में जानकारी हुई। उसके बाद से ही गोंचा के दौरान बंदूक की जगह तुपकी का इस्तेमाल होने लगा। इससे ही रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ को सलामी दी जाती है।
तो ये थी तुपकी बनाने वाले कारीगरों की कहानी जो तपती धूप के बीच भी तुपकी बनाते हैं।
(बस्तर से पूनम मसीह की ग्राउंड रिपोर्ट।)