भारत की सरकार हिमालय की गगनचुंबी चोटियों से ऐलान कर रही है कि हम दुनिया का उत्पादन और निर्यात केंद्र बनने वाले हैं। हम आने वाले सालों में 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। दुनिया की एजेंसियां भी बोल चुकी हैं कि भारत विश्व की 5वीं अर्थव्यवस्था बनने वाला है। जिसकी मुख्य वाहक क्लीन एनर्जी, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल, फोन, न्यूक्लियर एनर्जी के क्षेत्र में आने वाली जी-7 और नाटो देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं। जबकि दुनिया के व्यापार में भारत की 2 फीसदी की ही हिस्सेदारी है। क्या सरकार का ये दावा सही है?
यहां हम दो सवाल पूछना चाहते हैं:
1. क्या कोई देश इतिहास में कभी साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दम पर उत्पादन का केंद्र बना है या गुलाम बना है?
2. दूसरा सवाल ये है कि जब बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुख्य उत्पादन करेंगी तब भारत उनका बिचौलिया बनेगा या मुख्य निर्यातक?
असल में भारत क्या बनने जा रहा है? ये जांच-पड़ताल करना ज़रूरी है। भारत चाहे-अनचाहे जी-7 और नाटो देशों का उप-ठेकेदार बन चुका है। भारत के पूंजीपति जी-7 देशों के पूंजीपतियों के लिए मार्केटिंग, पैकेजिंग, असेंबलिंग, कल-पुर्जे की सप्लाई, आदि का काम करते हैं। ये जी-7 और नाटो देशों की वित्तीय पूंजी, तकनीक, मुद्रा और रसद पर पूरी तरह निर्भर है। जी-7 और नाटो देश 1990 के दशक की वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार की नीतियों की जगह संरक्षणवाद और निष्पक्ष व्यापार की नीति अपना चुके हैं।
लेकिन जहां ज़रूरत होती है वहां अपनी सुविधा के अनुसार वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार की नीतियों का भी फायदा उठाते हैं। दूसरी तरफ देशी-विदेशी पूंजीपति श्रम कानूनों में बदलाव, आयात और घरेलू करों में छूट, पर्यावरण संबंधित नियमों का खात्मा और कच्चे माल की कीमतों में कटौती कर रहे हैं। इसलिए देशी-विदेशी पूंजी का यह गठजोड़ देश की जनता का मुख्य दुश्मन बन चुका है और इस गठजोड़ में भी प्रधान दुशमन जी-7 और नाटो देशों के पूंजीपति हैं।
भारत की इस जी-7 के मकड़ जाल में फंसने की ठोस आंतरिक और विश्व परिस्थितियों पर एक सरसरी नजर डालना ज़रूरी है। आज पूरी दुनिया दो खेमों में बंट चुकी है। एक खेमे का नेतृत्व चीन-रूस करते हैं तथा दूसरे खेमे की अगुवाई जी-7 और उसके नेतृत्व में नाटो के देश करते हैं। ये दोनों खेमे पूरी दुनिया के व्यापार पर अपना-अपना कब्जा चाहते हैं। क्योंकि 1945 में अमरीका पूरी दुनिया का 50 फीसदी उत्पादन करता था, जो अब घटकर 24 फीसदी रह गया है।
दूसरी तरफ चीन अब दुनिया का 14 फीसदी उत्पादन करता है और दुनिया से समान खरीदने की क्षमता में अमरीका को मात दे चुका है। वह सामरिक शक्ति में अभी अमरीका से पीछे ही है। लेकिन जहां जरूरत होती है वहां अमरीका से पीछे नहीं हटता है। चाहे वह दक्षिण-चीन सागर का मसला हो या ताइवान का। प्रथम विश्व युद्ध के पहले जो भूमिका जर्मन ने निभाई थी, चीन आज ऐसी ही भूमिका में नजर आ रहा है।
जी-7 और नाटो के देशों को अपने देश के बाज़ारों और व्यापार को लेकर चीन का भूत सताने लगा है। इसलिए जी-7 की मंडली को पूरी दुनिया के व्यापार पर नियंत्रण रखने के लिए नयी रणनीति की जरूरत है। 1990 के दशक में बनाई गई नीति अब इनकी साम्राज्यवादी लूट को पूरा नहीं कर पा रही है। जो वैश्वीकरण, निजीकरण, और उदारीकरण पर आधारित थी और विश्व बैंक(डबल्यूबी), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष(आईएमएफ़) और विश्व व्यापार संगठन जिसकी संचालक शक्ति थी। यह नीति पूरे विश्व पर अमरीका ने थोपी थी।
जो विश्व वित्तीय पूंजी और तकनीक की ताकत पर तीसरी दुनिया को लूटने की नीति थी। जो उस समय जी-8 का नेतृत्व करता था जिसमें रूस भी शामिल था। चीन उस समय इस स्थिति में नहीं था की वह इस नीति को टक्कर दे सके। चीन ने भी इस नीति में बड़े सुरक्षित तरीके से शामिल होकर इसका फायदा उठाया और आज एक नए खेमे के रूप में उभरकर सामने आया। क्योंकि चीनी क्रांति से पैदा हुआ उसका घरेलू बाजार उसकी असली ताकत थी। चीन ने इस अमरीकी विश्व व्यवस्था में अब खलबली मचा दी है।
1990 की अमरीकी नीति का फायदा उठाकर चीन अब अमेरिका के ही बाजार और व्यापार पर कब्जा करने लगा और यूक्रेन मसले के बाद रूस भी जी-8 से निष्कासित हो गया। इस स्थिति में जी-7 और नाटो के देशों ने अपनी रणनीति बदल दी। अब इन्होंने वैश्वीकरण की जगह संरक्षणवादी नीतियां और मुक्त व्यापार के स्थान पर निष्पक्ष व्यापार की नीति को अपना मूल मंत्र बनाया है। जिसका मतलब है जी-7 के पूंजीपतियों को किसी भी देश में देशी पूंजीपतियों के बराबर हक मिले और करों में कमी आए।
संरक्षणवादी और निष्पक्ष नीति का जीवंत उदाहरण, अमरीका ने अभी सेमी कंडक्टर और चिप उत्पादन से संबंधित “चिप एक्ट” बनाकर दिया है। जिसके तहत अमरीका चिप बनाने वाली कंपनियों को ज्यादा से ज्यादा सब्सिडी मुहैया करा रहा है और सारी बड़ी कंपनियों ने अमरीका में ही अपनी फ़ैक्टरियां लगा ली हैं। यूरोप और साउथ कोरिया ने भी यही किया है। जिसकी वजह से भारत जैसे देशों में कोई उत्पादन यूनिट ही नहीं खुल पायी।
इसी तरह यूरोपियन यूनियन ने “कार्बन एक्ट” बनाया जिसकी वजह से जीवाश्म ईंधन से बनने वाला समान यूरोपियन यूनियन के बाजार में नहीं जा सकेगा। ये दोनों ही एक्ट विश्व व्यापार संगठन के नियमों की अवहेलना करते हैं और इन देशों की संरक्षणवादी नीतियों को उजागर करते हैं। विश्व बैंक और आईएमएफ़ अभी भी अपनी नीतियां बरकरार रखे हुए हैं। जिसकी वीभत्सता हमें हाल फिलहाल पाकिस्तान, अर्जेंटिना और श्रीलंका के आईएमएफ़ के चंगुल में फंसकर डूबने के तौर पर दिखी और वहां की सरकारों को कैसे आईएमएफ़ की नीति लागू करने को मजबूर किया गया?
विश व्यापार संगठन ज़्यादातर जी-7 और नाटो देशों के हक में फैसले करता है। इसके सदस्य अमेरिका की तरफ से चुने जाते हैं जो पद अधिकतर खाली पड़े रहते हैं। उदाहरण के तौर पर अभी चीन, जापान और यूरोपियन यूनियन ने भारत पर मुकदमा किया कि भारत की तरफ से हमारे इलेक्ट्रॉनिक्स सामान पर ज्यादा आयात कर लगाने से हमें 600 यूरो का प्रति वर्ष घाटा हुआ है।
विश्व व्यापार संगठन की अदालत ने भारत के खिलाफ फैसला सुनया। भारत ने इसके खिलाफ दूसरी अदालत में अपील की। लेकिन वह अदालत बंद पड़ी है। बहुत दिनों से अमरीका ने उसके सदस्यों की नियुक्ति ही नहीं की है। दूसरी तरफ जी-7 और नाटो देश चाहते हैं कि उनकी कंपनियां तीसरी दुनिया में बिना किसी रुकावट के भरपूर मुनाफा बटोर सकें।
इनकी नयी साम्राज्यवादी नीति की मुख्य विशेषतायें निम्न हैं:
1. पूरी दुनिया को अपने खेमे में शामिल करने का राजसूय यज्ञ।
2. संरक्षणवादी और निष्पक्ष व्यापार (करों में छूट और साम्राज्यवादी पूंजीपतियों को हरेक देश में बराबरी का मौका)।
3. 1990 की नीतियों को पूरी तरह से थोपने पर आमादा।
4. तीसरी दुनिया के देशों को आयातकर, सब्सिडी, श्रम कानून, पर्यावरण सुरक्षा को तिलांजलि।
5. कच्चे माल की कीमतों में कमी।
जी-7 देशों के इस राजसूय यज्ञ के घोड़े की लगाम ना पकड़कर भारत के पूंजीपतियों और उनकी सरकार ने तहे दिल से विश्व सम्राट की गुलामी स्वीकार की है। भारत के पूंजीपतियों और इनकी सरकार ने 1990 में पूरी तरह अमरीकी नीति वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के सामने घुटने टेक दिये थे। इन्हें यकीन था कि विदेशी पूंजी और तकनीक के दम पर हम तर जाएंगे। क्योंकि अपने देश और विदेशी बाजार दोनों में किस्मत आजमाने का मौका मिलेगा।
भारतीय पूंजीवाद ने जी-7 के साथ शत्रु-सहयोगी की भूमिका अपनायी। ऊपरी नीतियों का पूरा मसौदा अमरीका की तरफ से पेश किया गया था जो उनकी जरूरतों के ही अनुकूल था। ये बात भारतीय पूंजीपति भी जानते थे। लेकिन इन्हें उम्मीद थी कि हम भी विश्व बाजार में अपने लिए जगह बना लेंगे और अपने देशी बाजार पर कब्जा रख सकेंगे। विश्व व्यापार संगठन के सम्मेलनों में भारतीय सरकारों कि यह जद्दोजहद दिखाई भी देती है।
जी-7 भी अपने स्वार्थों के अनुकूल भारतीय पूंजीपतियों को एक हद तक मौका देता था। लेकिन देशी पूंजीपति पूरी तरह विदेशी ऋण, वित्तीय पूंजी और तकनीक पर निर्भर होते गए। दो खेमों में बंटी नयी विश्व व्यवस्था अस्तित्व में आई। भारत को भू-राजनीतिक और जी-7 पर अपनी ऋण, वित्तीय और तकनीकी निर्भरता के चलते जी-7 और नाटो का पल्ला पकड़ना पड़ा। भारतीय पूंजीपति और सरकार ने सोचा था कि इस बदलती दुनिया में शायद हमें व्यापार के लिए ज्यादा मौका मिलेगा और हम एक शक्ति के रूप में उभरकर सामने आएंगे।
इसी विचार को केंद्र में रखकर भारतीय पूंजीपतियों और सरकार ने अपनी विदेश व्यापार नीति निर्यात आधारित बनाई। जिससे पूंजीपतियों को विदेशी बाजार में फायदा हो सके और उनकी अय्याशी के समान मिलते रहें। ये घरेलू नीति का ही विस्तार था। क्योंकि घरेलू नीति भी सिर्फ और सिर्फ देशी पूंजीपतियों को ही केंद्र में रखकर बनाई जाती है। जिसकी वजह से भारत जी-7 और नाटो देशों की संरक्षणवादी और निष्पक्ष विदेश नीति का शिकार हो गया।
इसी नीति के तहत भारत, अमरीकी अगुवाई वाले क्वाड और फिर हिन्द-प्रशांत आर्थिक मंच, यूरोपियन यूनियन के साथ मुक्त व्यापार समझौते, और ब्रिटेन, जापान, ताइवान, औस्ट्रेलिया और दूसरे नाटो देशों के साथ तमाम समझौते करने लगा। इन सभी समझौतों कि जड़ में इलेक्ट्रॉनिक्स, ग्रीन एनर्जी, डिजिटल, ऑटोमोबाइल और फोन आदि प्रमुख थे। इनमें इंडो-पेसिफिक इकनॉमिक फोरम मुख्य सम्झौता था जो 1990 कि नीतियों से बाहर था और घोषित रूप से चीन विरोधी था।
इस समझौते के चार मुख्य स्तम्भ हैं: व्यापार, सप्लाई चेन, क्लीन एनर्जी और निष्पक्ष व्यापार। भारत व्यापार स्तम्भ के अलावा बाकी तीनों में शामिल हो गया। मंच के 13 देश इस व्यापार स्तम्भ में शामिल होने की प्रक्रिया में हैं। एक बार प्रक्रिया पूरी होने पर भारत उसमें बिना अपनी किसी शर्त के शामिल हो सकता है। उसको फेरबदल करने का कोई हक नहीं होगा।
भारत को उम्मीद थी कि क्लीन एनर्जी में हम विश्व उत्पादन का केंद्र बन जाएंगे। लेकिन एक भी फैब प्लांट और ग्रीन ग्रिड नहीं लगा पाये क्योंकि इनके पास तकनीक ही नहीं है। सारी सेमी कंडक्टर और ग्रीन ग्रिड यूरोप और अमरीका में लग गए। यूरोप, अमरीका, साउथ कोरिया और जापान ने अपने निजी चिप एक्ट बनाकर बड़े स्तर पर कंपनियों को सब्सिडी उपलब्ध कराई है जो भारत के अनुसार विश्व व्यापार संगठन के नियमों का उल्लंघन है।
दुख ये है कि भारत खाली हाथ ही रह गया। न खुदा ही मिला न बिसाले सनम। हां लेकिन भारतीय कम्पनी अमरीका और यूरोप के लिए पुर्जे बनाना, मार्केटिंग करना, सेल संबन्धित काम करना, पैकेजिंग करना आदि काम करने लगी हैं। जो टाटा, एप्पल के लिए कर रहा है। मैक्रोन कंपनी ने भारत में चिप असेंबली और पैकेजिंग की एक यूनिट खोली है। भारत उनका उप-ठेकेदार बन गया है। भारत इन समझौतों में शामिल हो गया।
अब भारत सबसे ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक्स के समान निर्यात करता है। जिनका उत्पादन पूरी तरह जी-7 और नाटो कि कंपनियां करती हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स के उत्पादन में प्रयोग होने वाली चीजें भी अब भारत चीन से हटकर ताइवान से मंगवाता है। इन चीजों पर आयात कर लगभग शून्य कर दिया गया है। विदेशी फोन कंपनियों को भी ये सारी छूट मुहैया करायी गयी हैं।
एप्पल कंपनी को ये छूट देकर उसके लिए तमिलनाडु और कर्नाटक में श्रम कानून भी बदले गए हैं। यूरोप ने कार्बन एक्ट बनाकर भारत के स्टील निर्यात पर रोक लगा दी है जहां भारत 25-30 फीसदी स्टील निर्यात करता है। भारत में ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में यूरोपियन कंपनियों को यात्री वाहनों पर आयात कर से मुक्त कर दिया गया है। नए स्टार्ट-अप वैश्विक वित्तीय पूंजी चला रही है।
भारत के सभी बड़े पूंजीपतियों की न केवल अपनी देशी कंपनियों में जी-7 और नाटो देशों की वित्तीय पूंजी बड़े स्तर पर लगी हुई हैं बल्कि भारतीय पूंजी पर हावी हैं। अमरीकी वित्तीय फ़ंड जैफ़्फ़री, ग्लोबल एक्विटी बुटीक फ़र्म, ताइवान के बैंक, बैंक ऑफ अमरीका, एचएसबीसी, जापान का मित्सुई, सॉफ्ट बैंक आदि इसके उदाहरण हैं। मुड़ी की रिपोर्ट में कहा गया है की भारत की सभी बड़ी कंपनियां विदेशी लोन और ऋण के मामले में दिवालिया होने के कगार पर हैं।
अगर लोन और ऋण नहीं लौटाई तो अगला ऋण या लोन मिलना मुश्किल होगा। रसद के मामले में भी भारत कि हालत जी-7 देशों पर ही निर्भर है। उदाहरण के तौर पर, भारत रूस से तेल आयात करता है जो सीधे तौर पर अमरीकी प्रतिबंधों से परे है। लेकिन जो मालवाहक जहाज उस तेल को ढोकर लाते हैं और जो बीमा कर्ता और सुविधा देने वाले बैंक हैं, वे सब प्रतिबंध के दायरे में आते हैं।
जो भारत ने रुपए मुद्रा में रूस के साथ व्यापार किया था वो तो चल नहीं पाया। क्योंकि रूस के पास बहुत रुपया इकट्ठा हो गया था जिसका वह कुछ कर नहीं सकता। क्योंकि भारत का विश्व व्यापार में 2 फीसदी ही हिस्सा है। भारत चाहकर भी तेल आयात नहीं कर पाएगा।
भारतीय पूंजीवाद की मुख्य विशेषतायें:
1. भारतीय पूंजीपति वित्त, तकनीक, मुद्रा, रसद और आपूर्ति, उत्पादन क्षमता, अपने अय्याशी के समान, ऋण यानि पूरी तरह जी-7 और नाटो देशों पर निर्भर हो चुके हैं। यह इनकी नियति बन चुकी है।
2. ये जी-7 के मकड़ जाल में फंस चुके हैं।
3. अमरीका और यूरोप के लिए कल-पुर्जे बनाना, मार्केटिंग करना, सेल संबंधित काम करना, पैकेजिंग करना।
4. उप-ठेकेदारों की भूमिका स्वीकारना।
भारतीय पूंजीपति और सरकार इस जंजाल में फंसकर इसको स्वीकार करते जा रहे हैं। जो सीधे तौर पर गुलामी है। जी-7 1990 की नीति और नए संरक्षणवादी नियमों, दोनों का अपनी सुविधा अनुसार प्रयोग कर रहे हैं। दूसरी ओर देश और देश की अवाम को श्रम कानून में बदलाव, करों का खात्मा, पर्यावरण विध्वंस का गुलामी भरा तोहफा दिया जा रहा है। इन सत्ता लोलुप और धन पशुओं ने मजदूर-किसान, गरीब छात्र और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को भुखमरी, बेरोजगारी, ज़लालत और गुलामी के मुंह में फेंक दिया है।
(हरेंद्र राणा जामिया में स्पेनिश और लैटिन अमेरिकी अध्ययन केंद्र में रिसर्च स्कॉलर हैं।)
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