2024 की दहलीज पर खड़ा देश क्या सोच रहा है?

नई दिल्ली। हर साल की शुरुआत एक नए संकल्प के साथ करना अच्छी बात है, लेकिन हर साल के अंत में गुजरे वर्ष का मुल्यांकन करते हुए हम कहीं न कहीं मिस्ड-अपार्चुनिटी को लेकर अवसादग्रस्त हो सकते हैं। अगला साल अच्छा हो, के संकल्प के साथ फिर से एक नए सफर पर निकल पड़ते हैं। लेकिन एक-दो सप्ताह बाद ही हमारे हालात और जिंदगी की जद्दोजहद सारे लक्ष्यों को बिसरा देती है।

कई राजनीतिक विशेषज्ञों की निगाह में वर्ष 2024 को भारत की दशा-दिशा में आमूलचूल बदलाव के रूप में देखा जा रहा है। पड़ोसी देश पाकिस्तान में कुछ दिनों तक लोकतंत्र का चांद आसमान में उगने का प्रहसन चला। नवाज शरीफ को देश छोड़ने पर मजबूर किया गया, और इमरान खान को गद्दीनशीन किया गया। लेकिन जैसे ही इमरान खान ने खुद से आगे बढ़कर कुछ करना शुरू किया, तो उनके खिलाफ भी तमाम सच्चे-झूठे आरोप मढ़कर जेल की सींखचों के भीतर डाल दिया है।

पूर्व विदेश मंत्री और पीटीआई के उपाध्याय शाह महमूद कुरैशी को कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपों से बरी कर मुक्त करने का हुक्म सुनाया तो जेल से बाहर आते ही पाकिस्तान की पुलिस ने फिर से उन्हें धक्के मारते हुए बंद कर दिया। उनके पर क्या नए आरोप हैं, उसे तो नहीं बताया गया, लेकिन जल्द ही बता दिया जायेगा और पाकिस्तान की जनता देखकर भूल जायेगी।

भारत से पहले पाकिस्तान में फरवरी माह में चुनाव हैं। इसलिए इमरान खान और उनकी पार्टी पीटीआई के प्रमुख नेताओं की रिहाई पाकिस्तान के असली हुक्मरानों को गंवारा नहीं है। अब नवाज शरीफ को ही नए बोतल में पुरानी शराब मानकर पाकिस्तान की अवाम को स्वीकार करने का विकल्प है।

आप सोच रहे होंगे मैं यह सब क्यों बता रहा हूं। बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार, अफगानिस्तान सहित हमारा देश भी बस तुलनात्मक रूप से एक-दूसरे से भिन्न हैं। डिग्री का अंतर है हम सभी पड़ोसियों में। चीनी ज्यादा या चीनी कम। सभी एक ही दिशा में हैं। किसी की चाल तेज तो किसी ने धीमी गति से अवाम और देश की बर्बादी की ठानी है।

बांग्लादेश भी बदल गया

अब बांग्लादेश का ही हाल देख लीजिये। 7 जनवरी को बांग्लादेश में आम चुनाव हैं, लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी आवामी लीग के अलावा शायद ही कोई बड़ा दल इस चुनाव में हिस्सा ले रहा है। प्रमुख विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) सहित सभी वाम एवं समाजवादी दलों ने भी 7 जनवरी को होने वाले आम चुनावों का बहिष्कार करने की घोषणा की है। विपक्षी दलों का मत है कि यह लोकतंत्र का नाटक किया जा रहा है। यह दुनिया को दिखाने के लिए एक डमी चुनाव है।

विपक्षी दलों की ओर से गली-गली घूम-घूमकर आम लोगों से अपील की जा रही है कि वे शेख हसीना के झांसे में न आयें, और चुनाव के दिन अपने घरों से बाहर न निकलें। बीएनपी के वरिष्ठ संयुक्त महासचिव रुहुल कबीर रिज़वी ने 29 दिसंबर के अपने बयान में यह तक कह दिया है कि बांग्लादेश में 7 जनवरी को हो रहे डमी चुनाव में एक पड़ोसी देश का सीधा हस्तक्षेप चल रहा है। उन्होंने पड़ोसी देश का नाम तो जाहिर नहीं किया है, लेकिन इशारा किसकी तरफ है, इस बात को दुनियाभर के हुक्मरान जानते हैं।

हाल के वर्षों में बांग्लादेश की प्रगति के किस्से दुनियाभर में सुर्ख़ियों में थे। लेकिन आज वहां के हालात अचानक से बेहद खराब हो चुके हैं। पिछले 3 महीने से गारमेंट फैक्ट्रियों में काम करने वाले 40 लाख श्रमिक आंदोलनरत हैं। इनमें बड़ी संख्या में बांग्लादेश की महिला श्रमिक कार्यरत हैं। ढाका और आसपास के इलाकों में 4,000 गारमेंट फैक्ट्रियों में काम करने वाले श्रमिकों के लिए महंगाई, आवास जैसी समस्याओं के बीच में 8,000 टाका (6,000 रूपये मासिक) पर जिंदा रहना लगातार कठिन होता जा रहा था।

श्रमिकों की तीन यूनियनों, बांग्लादेश गारमेंट्स एंड इंडस्ट्रियल वर्कर्स फेडरेशन, नेशनल गारमेंट वर्कर्स फेडरेशन और बांग्लादेश गमेंट्स वर्कर्स यूनिटी काउंसिल का अनुमान है कि आंदोलन के दो महीनों के दौरान तकरीबन 2,000 श्रमिकों का यो तो काम से निकाल बाहर कर दिया गया है, या उनमें से कई लोगों ने खुद को भूमिगत कर दिया है। बांग्लादेश सरकार ने श्रमिकों के साथ समझौते का हाथ बढ़ाते हुए 56% वेतन वृद्धि की बात कही है, जिसका अर्थ हुआ कि अब श्रमिकों को न्यूनतम 12,500 टाका (9,475 रुपये) दिए जाएंगे। लेकिन कई श्रमिक इसे भी काफी कम बता रहे हैं।

गारमेंट मैन्युफैक्चरिंग में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश बांग्लादेश आज ब्रांडेड रेडीमेड गारमेंट्स बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए नया चारागाह बना हुआ है। इनमें एडिडास, लेवी स्ट्रॉस, प्यूमा, पीवीच, गैप और अंडर आर्मर जैसे ब्रांड मौजूद हैं। बांग्लादेश का विकास तो हुआ, लेकिन गरीब लोगों के लिए भारी मुसीबतों को भी न्योता साथ-साथ दे दिया गया है। ये कंपनियां अपनी शर्तों पर बेहद सस्ते श्रम बल का दोहन कर भारी मुनाफा कमा रही हैं।

इन बड़े आंदोलन के बाद भी ये बेशर्मी से बांग्लादेश की कामगार आबादी को न्यूनतम सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर प्रदान करने से पल्ला झाड़ रही हैं। आज से 20 वर्ष पहले यही कंपनियां बड़े पैमाने पर दिल्ली, गुडगांव, नोयडा और बेंगलुरू शहर में इस काम को अंजाम दे रही थीं। कल को बांग्लादेश से भी सस्ते दरों पर श्रमिक मिल जाएं तो ये अगले ही पल उस देश में उड़ान भरने में समय नहीं गवाएंगी।

देश को एक बार फिर हिप्नोटाइज करने की मुहिम

अप्रैल-मई में भारत भी चुनावी लोकतंत्र की वैतरणी में उभ-चूभ करता नजर आएगा। जितना बड़ा देश, उतनी ही देश में असल मुद्दों को लेकर स्पष्टता का अभाव। 141 करोड़ की आबादी वाले देश की विविधता और अलग-अलग जोन, अलग भौगौलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक भिन्नताओं के कारण किसी एक मुद्दे पर एक ही समय में एक राय बना पाना काफी कठिन है। लेकिन आमतौर पर माना जाता है कि उत्तर भारत की आबादी पर जिसने कब्जा कर लिया वह कमोबेश शेष भारत पर भी आसानी से काबिज हो जाता है।

90 के दशक से पहले (77 के जनता पार्टी और 89 के जनता दल प्रयोग को छोड़ दें) कांग्रेस ही एकमात्र दावेदार थी, जिसका उत्तर के साथ-साथ देश के दक्षिण में भी समान रूप से प्रभाव बना हुआ था। 89 से रामजन्मभूमि-बाबरी विवाद के बाद धीरे-धीरे आरएसएस-भाजपा ने अपने पांव जमाने शुरू किये, और आज उत्तर भारत के साथ भाजपा का नाम पूरी तरह से चस्पा हो गया है।

2024 का नैरेटिव

देश में नैरेटिव बनाने का एकाधिकार 2014 के बाद से एक पार्टी विशेष के पास आ चुका है। 2014 के बाद मीडिया की हालत दिशा-निर्देश लेकर सिर्फ एक पार्टी विशेष की नजर से देश की तस्वीर पेश करने की बन चुकी है। पहले यह काम दो-तीन मीडिया समूह करते थे, लेकिन बाद में कोई एक भी टेलीविजन चैनल इससे अछूता नहीं रहा। यही वजह है कि बड़ी संख्या में अब न्यूज़ चैनल देखे नहीं जाते, लेकिन रिफरेन्स के लिए आज भी उन्हीं की बातों और डिबेट को कोट किया जाता है।

सोशल मीडिया पर भाजपा ने 2014 से पहले ही एकछत्र राज स्थापित कर लिया था। इसलिए उसके लिए बहस की दिशा को निर्धारित करना कभी मुश्किल नहीं रहा। बाद में न्यूज़ चैनलों के भी खुलकर पक्ष में आने के बाद, सोशल मीडिया पर उन वायरल खबरों को चमकाकर भी डिबेट की दिशा को तय करने का सिलसिला जारी है।

ऊपर से आईटी सेल की मजबूत उपस्थिति पल भर में विपक्षी खेमे के खिलाफ आई किसी खबर को वायरल करने में आज भी बेहद कारगर साबित हो रही है। हालांकि हाल के वर्षों में आम आदमी पार्टी और बाद में कांग्रेस ने भी सोशल मीडिया पर अपनी पकड़ को स्थापित करना शुरू कर दिया था। लेकिन आज भी विपक्षी दलों के लिए मेनस्ट्रीम या सोशल मीडिया दोनों ही फोरेन बने हुए हैं।

उदाहरण के लिए हाल ही में 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के बाद जिस मात्रा में भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने का काम हुआ है, उसमें भाजपा के बजाय हमारी मीडिया का रोल कहीं अधिक है। तीन राज्यों में भाजपा की जीत के बाद ही मुनादी शुरू हो गई है कि तीसरी बार भी मोदी का डंका बजने से कोई ताकत नहीं रोक सकती है। झटपट न्यूज़ चैनलों ने अपने सर्वे जारी कर दिए और भाजपा के पक्ष में 350+ और एनडीए के लिए 400 सीटों की भविष्यवाणी शुरू हो गई है।

दिमाग को कुंद बनाता देश का मीडिया

इनमें से एक एबीपी-सी वोटर के सर्वे के अनुसार, लोकसभा की कुल 543 सीटों में बीजेपी-एनडीए को 2024 में 42% मत-प्रतिशत के साथ 295 से 335 के बीच सीटें मिलने की संभावना जताई जा रही है। अर्थात बहुमत के लिए जरूरी 272 के आंकड़े को पहले ही भाजपा गठबंधन पार कर चुका है। कांग्रेस-इंडिया गठबंधन के खाते में 165-205 और 38% मत प्रतिशत को दिखाया गया है, तो दोनों गठबंधन से इतर अन्य दलों के हिस्से में 35-65 सीट और 20% वोट की हिस्सेदारी दिखाई जा रही है।

क्षेत्रवार विश्लेषण में एबीपी-सी वोटर का दावा है कि दक्षिण भारत की 132 सीटों पर इंडिया गठबंधन को 75 सीट और 40% वोट मिलने जा रहे हैं। दूसरी तरफ अन्य के हिस्से में 30 सीटें और 41% वोट जा सकते हैं, तो बीजेपी की झोली में 25 सीट के साथ 19% वोट आने की संभावना है। इस प्रकार एकमात्र दक्षिण में इंडिया गठबंधन स्पष्ट विनर के रूप में उभरता दिख रहा है, और भाजपा के लिए इस बार भी दक्षिण के गढ़ को अपने कब्जे में लेने की चुनौती आगे भी जारी रहने वाली है।

आब आते हैं पूर्वी भारत की 153 लोकसभा सीटों पर एबीपी-सी वोटर के आंकड़ों पर। यहां पर एनडीए गठबंधन को 85 सीटों के साथ 42% मत प्रतिशत मिलता दिखाया गया है। इंडिया गठबंधन के लिए 55 सीटें और 38% मत प्रतिशत मिलता दिखता है, जबकि अन्य के खाते में 15 सीटों के साथ 20% वोट जाते दिखाया गया है।

पूर्वी भारत में बिहार, झारखंड, ओडिसा, अरुणाचल प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल को शामिल किया गया है। इसमें पूर्वोत्तर की 25 सीटों में से एनडीए को 21, इंडिया गठबंधन के पक्ष में 3 और एआईयूडीएफ को 1 सीट मिलने की संभावना जताई जा रही है। 

इसी प्रकार उत्तर भारत की 180 सीटों में हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश को शामिल किया गया है। यहां पर भाजपा-एनडीए गठबंधन को एक बार फिर से भारी बहुमत मिलता दिखाया गया है। एनडीए के पक्ष में 155 सीटें और मत प्रतिशत 50% दिखाया जा रहा है। कांग्रेस-इंडिया गठबंधन के लिए 25 सीट और 36% मत-प्रतिशत, जबकि अन्य के खाते में 3 सीट के साथ 14% वोट मिलता बताया गया है।

एबीपी-सी वोटर्स के विश्लेषण में पश्चिम भारत की 78 सीटों को दिखाया गया है, जिसमें महाराष्ट्र की 48 सीटें, गुजरात की 26 और मध्य प्रदेश की 29 सीटें आती हैं। लेकिन इन तीन राज्यों में सीटों की कुल संख्या 103 है। बहरहाल अपने सर्वेक्षण में इसके द्वारा भाजपा को 46% वोट के साथ 50 सीट, इंडिया गठबंधन को 30 सीट सहित 37% वोट और अन्य के खाते में 0-5 के साथ 17% वोट प्राप्त होते दिखाया गया है। इन तीनों का योग भी 80 सीट से ऊपर है, जो बताता है कि न्यूज़ चैनल वाले कितनी जल्दबाजी में सिर्फ नंबर बनाने के लिए स्टूडियो में चारण गीत सुनाने के लिए बेकरार रहते हैं।

ऊपर से देशभर में मोदी की गाड़ी घूम-घूमकर मतदाताओं के पास जा रही है, और बता रही है कि पिछले 10 वर्षों में उनके लिए कौन-कौन सी योजनायें केंद्र सरकार लाई है, जिससे वे आज भी जुड़ सकते हैं। खाद्य पदार्थों में जारी महंगाई पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है, और निर्यात पर प्रतिबंध एवं आयात के लिए सारे दरवाजे खोल दिए गये हैं। जल्द ही देश को पेट्रोल-डीजल के दामों में भी 8-10 रुपये प्रति लीटर की छूट मिलने की संभावना है, जबकि पिछले 19 माह में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम 29% तक कम हुए हैं।

5 किलो अनाज अगले 5 वर्षों तक 81 करोड़ गरीबों को देने का वादा मोदी जी ने करके बता दिया है कि 2024 में भी वे ही आ रहे हैं। इस प्रकार हर प्रकार से देश की 80% आबादी को समझाने की कोशिश हो रही है कि इससे आगे सोचने और देखने की तुम्हें जरूरत ही नहीं है। 2024 के बाद क्या होगा, यह तो तभी पता चलेगा।

मध्य वर्ग के लिए विकसित भारत, अमृत काल, विश्व गुरु, 2047 जैसे कई गोल-पोस्ट तैनात किये जा चुके हैं। धारा 370 हटाकर बताया जा चुका है कि अब कश्मीर के पास शेष भारत की तुलना में कोई विशेष दर्जा नहीं रहा। अब कोई भी कश्मीर में प्लाट खरीद सकता है। लेकिन प्लाट कश्मीर के बजाय उत्तराखंड में खरीदे गये, और इतनी बड़ी संख्या में खरीदे गये हैं कि उत्तराखंड हाल के दिनों में राजधानी देहरादून में भू-कानून की मांग करता हुआ धमक पड़ा।

उल्फा के एक गुट से समझौता किया गया, लेकिन यह नहीं बताया जा रहा है कि धारा 370 की तर्ज पर उनके साथ जिले स्तर से भी नीचे के स्तर पर केंद्र सरकार समझौता करने के लिए तैयार है। अर्थात धारा 370 के तहत जम्मू-कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र को जो विशेसाधिकार मिले हुए थे, उसे असम में और भी कड़ाई से लागू किये जाने के समझौते पर हस्ताक्षर किये जा चुके हैं।

कांग्रेस पार्टी ने पिछले वर्ष ‘भारत जोड़ो’ और 14 जनवरी से ऐन चुनाव के वक्त ‘न्याय यात्रा’ निकालने का साहस दिखाया है। कहा जा रहा है कि पूर्वोत्तर से महाराष्ट्र की इस यात्रा का लाभ कांग्रेस के बजाय इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों को ही मिलने जा रहा है। यह यात्रा बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से होकर गुजरेगी और इन सभी राज्यों में ममता बनर्जी, नीतीश-तेजस्वी, अखिलेश यादव-मायावती और शरद पवार-उद्धव ठाकरे गुट को ही इसका सबसे बड़ा फायदा मिलने जा रहा है।

2024 में 80% के लिए क्या?

मोदी हटाओ या विपक्ष मुक्त भारत के इस चुनावी द्वन्द में 80% आबादी के लिए भले ही कुछ खास न हो, लेकिन कॉर्पोरेट के लिए तो बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। देश में मैन्युफैक्चरिंग के नाम पर आयातित वस्तुओं की असेम्बलिंग को ‘मेक इन इंडिया’ बताकर पीएलआई स्कीम के तहत सरकारी खजाना लुटाया जा रहा है।

मोदी सरकार के द्वारा चीन के खिलाफ आर्थिक कार्रवाई की तमाम बंदर-घुड़की के बावजूद व्यापार घाटा हर साल तेजी से बढ़ता जा रहा है, क्योंकि कल तक भारत में एमएसएमई उद्योगों से जुड़े व्यवसायी भी अब चीन से आयात कर डबल मुनाफा कमाने की जुगत को सीख चुके हैं।

ले-देकर यदि कहीं कोई उछाल है तो वह आईटी, स्टार्टअप या फिन-टेक क्षेत्र के बजाय शेयर बजार और म्यूच्यूअल फंड बाजार में है। इस वर्ष भी 2.70 करोड़ नए डीमेट अकाउंट खुले हैं। विदेशी संस्थागत निवेशक (एफपीआई) भले ही कितना भी पैसा देश से निकाल लें, अगले ही दिन बाजार में म्यूच्यूअल फंड उतना पैसा डाल दे रहा है।

2017-18 में बिस्किट के पैकेट की साइज़ पर जो बहस शुरू हुई थी, वह अब एक आम नियम बन चुकी है। बड़ी संख्या में शहरी और ग्रामीण आबादी में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग ही नहीं रही। सस्ते टीवी, फ्रिज, स्कूटर और यहां तक कि किफायती दरों वाले एलआईजी और एमआईजी मकानों के दिन लद चुके। बायजू जैसी एड-टेक कंपनियां इतनी बुरी तरह से पिट चुकी हैं कि उन्होंने अपने 80% स्टाफ को निकाल दिया है।

आईटी सेक्टर में नई नियुक्तियों के बजाय छंटनी का दौर है। भारत जल्द ही दुनिया को सस्ते दरों पर श्रमिकों की आपूर्ति को सुनिश्चित करने वाला सबसे प्रमुख देश बनकर उभरने जा रहा है। देश में अब सिर्फ बेहद महंगा आईफोन, एसयूवी और 1.5 करोड़- 40 करोड़ रुपये वाले कोठी या पेंटहाउस ही बनकर तैयार हो रहे हैं।

इस सच्चाई को कोई भी राष्ट्रीय दल बताने को तैयार नहीं। पिछले 10 वर्षों में देश को भूखे भजन भी करा लिया गया। 22 जनवरी को अयोध्या में एक और चरण पूरा हो जायेगा। संसद के भीतर घुसने की अनधिकृत चेष्टा करने वाले युवाओं को निश्चित ही अंदाजा होगा कि उनके इस कदम को देश की मौजूदा संवैधानिक संस्थाएं किस निगाह से देखेंगी, और उसकी क्या सजा है। लेकिन उन्होंने आत्महत्या के विकल्प की बजाय इस रास्ते को चुना। बाकी बड़ी संख्या में आत्महत्या का दौर तो चल ही रहा है।

समय है सच देखने का। जिस संकट से भारत का अवाम गुजर रहा है, थोडा कमी-बेशी के साथ पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार और श्रीलंका की जनता भी दो-चार हो रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि हमारा साइज़ इतना बड़ा है कि हम जल्दी फेल नहीं होने जा रहे, और दूसरा फर्क यह है कि जब हम फेल होंगे तो हमारा आकार ही हमारे महाविनाश का कारण भी बनेगा।

श्रीलंका, बांग्लादेश या नेपाल जैसे देशों की बर्बादी के बावजूद अपेक्षाकृत कम आबादी उनके लिए किसी न किसी मददगार को सामने ला सकती है। भारत को बर्बादी से बचाना है तो 140 करोड़ अवाम को ही जिम्मेदारी लेनी होगी, और सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए पहले पहल सच और झूठ में फर्क करना होगा।

विविधता को अपनाते हुए भी वर्गीय और उत्पीड़न के आधार पर देश के किसी भी कोने पर होने वाले अन्याय, शोषण और जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव-नफरत और विचारों को नेस्तानाबूद करना होगा। उसके बाद ही साफ़-साफ़ दिखने की बारी आती है, जो कॉर्पोरेट के भारी लूट के एजेंडे को ज्यादा देर सहन नहीं कर सकती।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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