चारधाम परियोजना पर हाईपावर कमेटी गठित करने वाला सुप्रीम कोर्ट आखिर टनल हादसे पर क्यों है चुप?

नई दिल्ली। देश में केंद्र सरकार और उसकी तमाम एजेंसियां, उत्तराखंड भाजपा सरकार और राष्ट्रीय मीडिया जहां सिलक्यारा टनल हादसे के 15 दिन बीत जाने के बाद भी रेस्क्यू-रेस्क्यू खेल रही है, उसमें ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन्हें आपकी आंखों से ओझल किया जा रहा है। इसे हाथ की सफाई भी कह सकते हैं, यह हमारी नजरों का धोखा भी माना जा सकता है, लेकिन यह हो रहा है इसलिए ऐसा करने वाले लोगों को इसका क्रेडिट दिया जाना चाहिए।

इस दुर्घटना को लेकर कुछ बातें ठोस रूप से सामने आ रही हैं, जिनके बारे में कुछ जरूरी सवाल हैं जिनका जवाब दिया जाना शेष है:

1- यह दुर्घटना उस दिन हुई, जब देश दीपावली के जश्न की तैयारियों में जुटा था। उस दिन तो देश में अखबार तक नहीं छपा, फिर ये मजदूर सुबह-सुबह सुरंग के भीतर कैसे काम कर रहे थे? पहले 40 श्रमिकों की सूची जारी की गई, लेकिन बाद में यह संख्या बढ़कर 41 हो गई। आमतौर पर एक पाली में 60-65 मजदूर टनल के भीतर काम करते थे, इसलिए संख्या को लेकर सवाल अभी भी बना हुआ है। प्रोजेक्ट की समय सीमा 2022 के अंत तक थी, क्या दीपावली के दिन टनल में काम की वजह 2024 के आम चुनाव की घोषणा से पहले इसे पूरा करना था? 

2- टनलिंग में काम के दौरान escape route tunneling का प्रावधान किया जाता है, लेकिन इस परियोजना में यह नदारद पाया गया। अगर ऐसा होता तो हॉरिजॉन्टल ड्रिलिंग, वेर्टिकल ड्रिलिंग जैसी कवायद करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। यह आपराधिक कृत्य किसकी लापरवाही के कारण हैदराबाद स्थित कंस्ट्रक्शन कंपनी नवयुग कंस्ट्रक्शन ने अंजाम दिया? एनएचएआई ने यह ठेका किसे दिया, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।

खबर तो यहां तक है कि नवयुग कंस्ट्रक्शन ने भी इस काम को तीन पार्टियों को सब-लेट किया हुआ था। ऐसे में सवाल उठता है कि प्रोजेक्ट कंसलटेंट और चारधाम परियोजना पर कड़ी नजर रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित हाई पॉवर कमेटी की ओर से क्या निगरानी की जा रही थी?

3- 23 दिसंबर 2022 को उत्तराखंड में चारधाम परियोजना की निगरानी कर रही ओवरसाइट कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया था कि केंद्र सरकार के द्वारा 578.6 किमी सड़क विस्तार का काम पूरा कर लिया गया है। इसका अर्थ है कि ओवरसाइट कमेटी सक्रिय रूप से सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार रिपोर्ट भेज रही थी। अब जबकि सिलक्यारा टनल हादसे में पिछले 15 दिनों से 41 मजदूर फंसे हुए हैं, तो कमेटी या सुप्रीम कोर्ट की ओर से कोई स्वतः संज्ञान लिया गया क्या?

4- चारधाम परियोजना या ऑल वेदर रोड परियोजना के शुरूआती चरण में इसके खिलाफ प्रदेश के पर्यावरण प्रेमियों, एनजीओ एवं नागरिक संगठनों ने विरोध जताया था। इसके खिलाफ पीआईएल पर उच्च न्यायालय से होते हुए सर्वोच्च न्यायालय तक ने सुनवाई की थी। पहले पहल सर्वोच्च न्यायालय भी सहमत था कि उत्तराखंड जैसे अति-संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में सड़क निर्माण से पहले पर्यावरणीय प्रभाव आकलन होना आवश्यक है, और सड़क चौड़ीकरण को 5.5 मीटर से अधिक नहीं किया जा सकता।

लेकिन दिसंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश में डबल लेन सड़क निर्माण को मंजूरी दे दी गई, और इस प्रकार 10 मीटर तक सड़क चौड़ीकरण संभव हो सका। इसके लिए केंद्र सरकार की ओर से देश की सीमाओं की सुरक्षा के लिए हथियारों और सेना की तत्काल तैनाती का हवाला दिया गया था। क्या सर्वोच्च न्यायालय को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए? उत्तराखंड के एक वेब पोर्टल में इस हादसे से पहले सिलक्यारा टनल की चौड़ाई 12 मीटर बताई गई है। क्या टनल के भीतर सड़क की चौड़ाई के लिए अलग से विशेष मंजूरी ली गई थी?

5- आम धारणा है कि पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) को धता बताने के लिए सरकारों के द्वारा समय-समय पर तमाम तरीके के हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। चारधाम परियोजना को लेकर भी मोदी सरकार ने यही उपाय आजमाया और सर्वोच्च न्यायालय की नाक के नीचे ईआईए नियमों को ताक पर रखने को संभव बनाया जा सका, जिसके चलते भूकंप के लिहाज से जोन-5 में होने के बावजूद बगैर पर्याप्त आकलन के टनल निर्माण के काम को संभव बनाया जा सका।

जी हां, ईआईए नियमों को दरकिनार करने के लिए 889 किमी लंबे ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट को 53 हिस्सों में तोड़कर टेंडर जारी किया गया, क्योंकि 100 किमी लंबी सड़क परियोजना पर ही ईआईए नियम लागू होते हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट को इस बात का स्वतः संज्ञान नहीं लेना चाहिए कि जिस ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट को बड़े ही धूमधाम से प्रचार कर शुरू किया गया था, उसे बाद में कोर्ट में चुनौती मिलने के बाद सीमा सुरक्षा के लिए अनिवार्य जरूरत बताते हुए 53 हिस्सों में विभाजित कर दिया गया?

6- और आखिर में सबसे महत्वपूर्ण, सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित हाई पॉवर कमेटी की अध्यक्षता कर रहे रवि चोपड़ा का इस्तीफ़ा। बेहद निराश होकर पर्यावरणविद रवि चोपड़ा ने यह इस्तीफ़ा इसलिए सौंपा था क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने जस्टिस एके सीकरी की अध्यक्षता में एक ओवरसाइट कमेटी के गठन को अपनी मंजूरी दे दी थी।

इस कमेटी का काम ऋषिकेश से गंगोत्री और टनकपुर से पिथौरागढ़ सड़क परियोजना की देखरेख करना था, जिसे रक्षा मंत्रालय के द्वारा शीर्ष अदालत के समक्ष सुरक्षा जरूरतों का हवाला देते हुए ‘डिफेंस रोड’ के रूप में वर्गीकृत किया गया था। इसके करण चोपड़ा की अध्यक्षता वाली एचपीसी के अधिकार क्षेत्र में मात्र दो ‘गैर-रक्षा’ वाले हिस्से- रुद्रप्रयाग-केदारनाथ (70 किमी) और धरासू से जानकी चट्टी (70 किमी) ही बचे रह जाते थे।

चोपड़ा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में सड़क चौड़ीकरण को खारिज करते हुए 5.5 मीटर को ही पर्याप्त बताया था। अपने इस्तीफे के अंत में उन्होंने अंग्रेजी कवि जॉन डोने को उद्धृत करते हुए अपनी वेदना कुछ इस प्रकार व्यक्त की थी, “प्रत्येक इंसान की मौत मुझे कमतर बना देती है, क्योंकि मैं मानव जाति में शामिल हूं। इसलिए, न जानने के लिए भेजें। यह घंटी किसके लिए बजती है, यह आपके लिए बजती है।” आज रवि चोपड़ा के एक-एक शब्द सच बनकर, भारतीय लोकतंत्र और न्याय-व्यवस्था पर बड़ा सवाल उठा रहे हैं।

स्थानीय जनता, समाचार पत्रों और एनजीओ की शिकायतों को अनसुना कर दिया गया 

इसके अलावा यदि स्थानीय समाचार पत्रों, एनजीओ एवं पर्यावरणविदों एवं स्थानीय लोगों की शिकायतों के प्रति भी सरकार संवेदनशील होती तो यह हादसा नहीं हुआ होता। एसएएनडीआरपी की रिपोर्ट बताती है कि बरकोट-सिल्कयारा सुरंग भी सीडीपी का हिस्सा थी और भूवैज्ञानिक एवं अन्य खतरों के आकलन के लिए इसे किसी ईआईए या अन्य विश्वसनीय पर्यावरणीय जांच प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ा है। सुरंग पर काम तब भी चल रहा था जब सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2019 में अपने अंतिम फैसले तक सीडीपी के काम पर रोक लगा दी थी।

इससे पहले भी स्थानीय लोगों द्वारा सुरंग के मलबे को गैर-जिम्मेदाराना तरीके से डंप करने और अंधाधुंध ब्लास्टिंग का विरोध किया था। इतना ही नहीं निर्माण कंपनी को क्षेत्र में यमुना नदी की बारहमासी और मौसमी धाराओं और आसपास में सुरंग का मलबा डालते पाया गया था, जिसके करण पीने के पानी और सिंचाई के पानी की आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित हो गई है।

स्थानीय लोगों ने कंपनी पर भूवैज्ञानिक रूप से संवेदनशील और वन्यजीव समृद्ध क्षेत्रों में रात के समय विस्फोट कार्य करने का भी आरोप लगाया था, जिसके परिणामस्वरूप पानी के झरने सूख गए और मानव बस्तियां आपदा के प्रति लगातार सशंकित बनी हुई हैं।

सिलक्यारा टनल हादसा कोई अकेली घटना नहीं

सिलक्यारा सुरंग हादसा अपने आप में कोई अकेली घटना नहीं है, जिसको लेकर आज तमाम एजेंसियों को सुरंग के मुहाने पर खड़ा कर दिया गया है। हाल में इससे मिलते जुलते कई हादसे हुए हैं, लेकिन राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने उन हादसों पर उतनी तवज्जो नहीं दी, और मामला रफा-दफा हो गया।

इसी माह 5 नवंबर, 2023 की शाम को रुद्रप्रयाग जिले के नगरासू में निर्माणाधीन रेलवे सुरंग के भीतर आग लगने से 44 श्रमिक बाल-बाल बच गए थे। इस सुरंग का निर्माण रेल विकास निगम लिमिटेड (आरवीएनएल) द्वारा ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे परियोजना के तहत किया जा रहा है। उत्तराखंड में इस रेल परियोजना के लिए कहीं बड़ी मात्रा में जगह-जगह सुरंगों का निर्माण चल रहा है, और स्थानीय लोगों के द्वारा पहाड़ों में कंपन की घटनाओं में वृद्धि की बात आये दिन कही जा रही है।

इससे पहले 14 अगस्त, 2023 को शिवपुरी, श्रीनगर में निर्माणाधीन रेलवे सुरंग में अचानक से बाढ़ आ जाने के बाद करीब 114 श्रमिकों को बचा लिया गया था। उस दिन यह खबर देश के विभिन्न मीडिया और सोशल मीडिया पर सुर्खियां बटोरती रही, लेकिन अगले ही दिन इस घटना को भुला दिया गया। यह सुरंग भी ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे परियोजना का हिस्सा है और लार्सन एंड टुब्रो कंपनी के द्वारा इसे अंजाम दिया जा रहा। ये मजदूर परियोजना की एडिट-2 सुरंग के 300 मीटर अंदर सीने तक गहरे पानी में फंसे हुए थे।

इसी प्रकार अगस्त 2023 की शुरुआत में राज्य सरकार ने उत्तरकाशी में गंगोत्री एनएच पर तांबाखानी सुरंग के भीतर पानी के रिसाव की समस्या की जांच के लिए एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया। सितंबर 2023 में, अगस्त 2023 से कई दिनों तक सुरंग के भीतर रिसाव होने के बाद सुरंग के निर्माण की गुणवत्ता पर सवाल उठने लगे थे। इसमें सबसे विचित्र पहलू यह है कि 370 मीटर लंबी सुरंग के निर्माण के लिए 13 करोड़ रुपये की लागत तय की गई थी। लेकिन सुरंग के भीतर लाइनिंग एवं जल निकासी के काम पर अबतक 15 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए जा चुके हैं, इसके बावजूद रिसाव खत्म नहीं हो पाया है।

इसी प्रकार टिहरी गढ़वाल के चंबा शहर में लगभग दो वर्षों के अंतराल के बाद चंबा सुरंग अप्पोर्च रोड को गुल्डी गांव के पास भू-धंसाव का सामना करना पड़ा है। इसी तरह, तपोवन-विष्णुगाड एचईपी सुरंग 2009 से ही जल रिसाव से प्रभावित है और फरवरी 2021 में चमोली आपदा के दौरान सुरंग और परियोजना में बाढ़ आपदा की वजह से सौ से भी अधिक श्रमिकों की मौत हो गई थी।

उत्तराखंड के लिए काल बन चुकी हैं परियोजनाएं

इस बात को कोई और नहीं, स्वयं उत्तराखंड सरकार का राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद तक मानता है। 14 फरवरी 2022 को हिंदी समाचार पत्र हिंदुस्तान ने राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद (यूकॉस्ट) के हवाले से बताया था कि उत्तराखंड के जलस्रोतों पर कई वर्षों का उनका अनुभव बताता है कि राज्य में कम से कम 1200 जलस्रोतों के सूखने का खतरा बना हुआ है। इसके लिए संस्थान ने प्रमुख रूप से अनियोजित तरीके से राजमार्गों के निर्माण और विस्फोटों को जिम्मेदार ठहराया था।

यूकॉस्ट के प्रदेश कोऑर्डिनेटर डॉ प्रशांत सिंह के अनुसार, “हमारे कई शोधार्थी राज्य बनने के बाद से पेयजल की स्थिति पर लगातार शोधरत हैं। इस पर कई प्रोजेक्ट भी चल रहे हैं, और सभी आने वाले दिनों में गंभीर पेयजल संकट की ओर इशारा करते हैं। इससे बचने के लिए हमें अपने प्राकृतिक पेयजल स्रोतों के बचाव हेतु ठोस कदम उठाने होंगे। जलस्रोतों के लिए अनियोजित सड़क निर्माण सबसे बड़ी समस्या है। भविष्य में कई पेयजल योजनाओं में पानी की भारी कमी हो सकती है। पानी के डिस्चार्ज में कमी से निपटने के लिए हम विभिन्न वैज्ञानिक तरीकों पर काम कर रहे हैं।”

उत्तराखंड राज्य सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की संस्तुति पर पुष्कर सिंह धामी सरकार ने क्या कदम उठाये हैं, इसे आप सिल्क्यारी टनल से समझ सकते हैं। चारधाम तक हर साल लाखों-लाख आस्था रखने वाले लोगों को सहूलियत देने और धर्म से वोट पाने की हसरत में कैसे इस पहाड़ी राज्य के हजारों गांवों को पीने के पानी से मरहूम किया जा रहा है, यह बात सरकार की रिपोर्ट खुद बता रही है।

सवाल उठता है कि देश में केंद्र सरकार, राज्य सरकार, राष्ट्रीय मीडिया सहित सत्ता प्रतिष्ठान जब विकास की हवा-हवाई मुहिम में लगा हो और देश के प्रतिष्ठित पर्यावरणविदों, स्थानीय हितधारकों और सामजिक कार्यकर्ताओं की चिंताओं को दरकिनार करते हुए उस हिमालय के सीने को लगातार छलनी किया जा रहा हो- जो देश के लिए न सिर्फ सबसे बड़ी सीमा सुरक्षा के रूप में मुफ्त में दीवार बनाता है, बल्कि देश की कम से कम 60% आबादी को सीधे पीने के पानी और खेती के लिए सिंचाई की व्यवस्था मुहैया कराता हो, देश के फेफड़े के लिए आवश्यक आक्सीजन प्रदान करता हो- को सिर्फ इसलिए होते रहने दिया जा सकता है क्योंकि ऐसा करने से भारतीय मध्य वर्ग को विकास की झूठी आस बंधती है और हिंदुत्व की परियोजना के दायरे में उसे लाना आसान बन जाता है? 

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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