अकाली-भाजपा गठबंधन अभी भी एक संभावना क्यों है?

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दिग्गज अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल के निधन के बाद निरंतर यह सवाल उठ रहा है कि क्या शिरोमणि अकाली दल का भारतीय जनता पार्टी के साथ फिर गठबंधन संभव होगा? इस पर करोड़ों रुपये की अवैध सट्टेबाजी भी हो रही है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक पंजाब के साठ फिसदी लोगों का मानना है कि 2024 के आम लोकसभा चुनाव से पहले अकाली-भाजपा गठबंधन नया आकार ले सकता है। दोनों पार्टियों के नेताओं की जुबान प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ अमर्यादित होने तक जाती है लेकिन जब भाजपा नेता विपक्ष पर हमलावर होते हैं तो तेवर अकालियों के प्रति बेहद नरम हो जाते हैं।

अकाली नेता भी भाजपा पर तीखे कटाक्ष करने से बचते हैं। यह पुराने रिश्तों का लिहाज भी हो सकता है और नए सिरे से रिश्ते जोड़ने के लिए पुख्ता जमीन की तैयारी भी। नरेंद्र मोदी सरकार के 9 साल पूरे होने के मौके पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह चंडीगढ़ आए तो गठजोड़ की संभावनाओं को भी नए सिरे से बल दे गए।

मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा कि बेशक शिरोमणि अकाली दल का राजग के साथ रिश्ता फौरी तौर पर टूट चुका हो, लेकिन भविष्य में शिरोमणि अकाली दल के साथ हाथ मिलाने का रास्ता खुला हुआ है। राजनाथ सिंह का यह कथन इसलिए भी अहम है कि वह भाजपा के पहले ऐसे वरिष्ठ नेता हैं, जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि दोनों पार्टियों में गठबंधन की संभावनाएं प्रबल हैं। फिर यह भी कि वह अपने तईं ऐसा बड़ा बयान नहीं दे सकते। सर्ववदित है कि इन दिनों नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की अनुमति के बगैर किसी अन्य मंत्री अथवा बड़े नेता की जुबान नहीं खुलती। राजनाथ सिंह चंडीगढ़ आकर शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन की संभावनाओं को और ज्यादा पुख्ता कर गए हैं।        

शिरोमणि अकाली दल की ओर से इस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया आई है। दल के प्रवक्ता और पूर्व मंत्री डॉक्टर दलजीत सिंह चीमा ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह दिवंगत प्रकाश सिंह बादल के बहुत करीब थे। उन्होंने आज भी बादल परिवार के साथ अपने रिश्तों की मर्यादा बहाल रखी हुई है। भाजपा नेताओं के साथ बादल परिवार के निजी रिश्ते कभी खत्म नहीं होंगे। ऐसी कोई नौबत कभी नहीं आएगी।                   

बेशक केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी और भाजपा प्रदेशाध्क्ष अश्विनी शर्मा शिअद के साथ एकबारगी फिर गठजोड़ की संभावनाओं को बार-बार खारिज करते रहे हैं लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह सरीखे नेताओं ने इशारों- इशारों में कई बार संकेत दिए कि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन की पूरी-पूरी संभावना है।   

भाजपा की तरफ से पहले भी गठजोड़ की संभावनाओं के संदेश व्यवहारिक रूप से गए हैं। प्रकाश सिंह बादल की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें श्रद्धांजलि देने विशेष रूप से चंडीगढ़ गए। बादल की मृत्यु के अगले दिन नरेंद्र मोदी का आलेख हर भाषा के अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर था; जिसकी शुरुआत यहां से होती है कि बादल साहब मेरे पिता समान थे। अमित शाह, जेपी नड्डा सहित भाजपा शासित कई मुख्यमंत्रियों ने प्रकाश सिंह बादल की अंतिम रस्म में हिस्सा लिया। तमाम दिग्गज भाजपा नेता लगातार सुखबीर बादल के साथ बैठे रहे। यह एक संकेत था कि भाजपा बादल परिवार के निजी दुख में उसके साथ खड़ी है। पहले गठबंधन टूटने के वक्त से सुखबीर बादल भाजपा पर खूब बरसा करते थे।

बड़े बादल के जाने के बाद आलम सिरे से बदल गया है। अब बड़े से लेकर छोटे अकाली कार्यकर्ता तक भाजपा के प्रति नकारात्मक कुछ नहीं कहते। गोया कोई ‘खास हिदायत’ मिल गई हो। पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह अपने कई करीबियोंं के साथ भाजपा में शामिल हो गए थे। पिछले हफ्ते उन्होंने सुखबीर बादल के चंडीगढ़़ स्थित आवास पर उनसे लंबी बातचीत की। क्या वार्तालाप हुआ; यह किसी को नहीं मालूम। लेकिन इस मुलाकात के मायने बहुत गहरे हैं।

इसलिए भी कि सुखबीर और कैप्टन में अमर्यादित वाक्य युद्ध चलता रहता था। देश में विपक्षी एकता की कवायद जोरों पर है। गैरभाजपाई तमाम क्षेत्रीय दल जगह-जगह जुट रहे हैं। लेकिन भारत का प्रमुख क्षेत्रीय दल शिरोमणि अकाली दल प्रत्येक बैठक से नदारद रहा। पटना में होने वाली बैठक के लिए इसलिए भी न्यौता नहीं गया कि विपक्ष को यकीन है कि अकाली दल अंततः भाजपा के साथ जाएगा। पूर्व सांसद और वरिष्ठ अकाली नेता प्रोफ़ेसर प्रेम सिंह चंदूमाजरा कहते हैं,”हमें बुलाया भी जाता तो अकाली दल सूबे में प्रमुख प्रतिद्वंदी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के साथ कतई नहीं बैठता।”                   

शिरोमणि अकाली दल की कोर कमेटी के सदस्य और वरिष्ठ उपाध्यक्ष महेश इंदर सिंह भी कहते हैं कि शिअद को पटना बैठक के लिए बुलाया भी जाता तो वहां जाने का कोई मतलब ही नहीं था। जहां कांग्रेस हो, वहां जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। पंजाब के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक जितेंद्रर पन्नू के मुताबिक, “शिरोमणि अकाली दल जिस दिन कांग्रेस से दूरी से भी सलाम कर लेगा उसी दिन उसकी राजनीतिक मौत हो जाएगी। अकाली दल की सियासत कांग्रेस के विरोध के बल पर खड़ी है। बीजेपी बखूबी इसे जानती है। थोड़ा रुकिए अकाली-भाजपा गठबंधन फिर हो जाएगा।”      

पंजाब में आमफहम है कि दोनों पार्टियों का अपना-अपना हिंदू और सिख वोट बैंक है। इसी की बदौलत गठबंधन सत्ता में आता रहा है। शिरोमणि अकाली दल 1997 से एनडीए का हिस्सा था। 2020 को आंदोलनकारी किसानों ने सदा के लिए अकाली दल के बहिष्कार की धमकी दी तो शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा से नाता तोड़ लिया। बादलों ने फिर भी नरेंद्र मोदी के खिलाफ कभी कुछ नहीं कहा। जगजाहिर था कि गठबंधन टूटना तदर्थ है और मौकापरस्ती है। इतना तय है कि इस बार गठबंधन होता है तो शिरोमणि अकाली दल को भाजपा की महत्वाकांक्षाओं को अतिरिक्त गंभीरता से लेना होगा।

प्रकाश सिंह बादल के दिवंगत होने के बाद शिरोमणि अकाली दल का इकबाल कमजोर हुआ है। सुखबीर बादल सहित अन्य वरिष्ठ अकाली नेताओं को बखूबी इसका एहसास है। भाजपा में बड़े बादल का बड़ा रुतबा था। उनकी हर बात मानी जाती थी। उनके वारिस सुखबीर बादल इस मामले में फिसड्डी हैं। उनका अहंकार सिर चढ़कर बोलता है। गठबंधन तो यकीनन होगा लेकिन भाजपा इसे बर्दाश्त नहीं करेगी।

शहरी पंजाब में भाजपा की जड़े हैं तो ग्रामीण पंजाब में अकाली दल की। इस बार आप की आंधी ने पूरा चुनावी सर्कस उखाड़ दिया। जरूरी नहीं कि ऐसी आंधी हर बार आए। सियासी माहिर मानते हैं कि अगर 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले अकाली-भाजपा गठबंधन कायम हो जाता है तो कहीं न कहीं पंजाब के राजनीतिक समीकरण सिरे से बदलेंगे। निगाहें इस और लगी हुईं हैं कि अकाली-बसपा गठबंधन कब बेमौत मरेगा और अकाली-भाजपा गठबंधन का पुनर्जन्म कब होगा?    

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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