Sunday, April 28, 2024

उत्तर प्रदेश से मौजूदा सांसदों का टिकट काटने से क्यों डर रहा भाजपा नेतृत्व ?

कुल 33 मौजूदा सांसदों का टिकट काटा गया है। दिल्ली में घोषित 5 सीटों में से सिर्फ एक (मनोज तिवारी) को ही एक बार फिर से मौका दिया गया है। उधर उत्तर प्रदेश की 51 सीटों में सिर्फ 4 मौजूदा सांसदों को ही सांसद के तौर पर अपनी किस्मत आजमाने से मरहूम रखा गया है। ये वे सीटें कही जा सकती हैं, जिनपर भाजपा नेतृत्व को ज्यादा माथापच्ची करने की जरूरत नहीं थी। असल सीटें अगले चरण में घोषित की जानी हैं। लेकिन चूंकि चर्चा थी कि भाजपा में मोदी-शाह नेतृत्व इस बार कम से कम एक तिहाई सांसदों को बदलने जा रही है, ऐसे में उत्तर प्रदेश में वह ऐसा करने का साहस क्यों नहीं कर सका, और यूपी क्यों दिल्ली की जंग के लिए सबसे महत्वपूर्ण धुरी बन गई है, को समझना आवश्यक हो गया है।

दिल्ली में तो 5 में से 4 को घर बिठा दिया गया है। इस लिहाज से दिल्ली का स्ट्राइक रेट 80% होता है। इसी प्रकार मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में भी देखने को मिलता है। फिर यूपी में ऐसा क्यों नहीं हुआ?

गुजरात की कुल 26 सीटों में से 15 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर दी गई है। यहाँ 5 मौजूदा सांसदों का पत्ता कट चुका है। लेकिन गुजरात में किस चुनाव में किसका पत्ता कट जाये, कोई नहीं जानता और न ही परवाह करता है, क्योंकि गुजरात के वर्चस्ववादी समाज के लिए यह विचारणीय प्रश्न अब रहा ही नहीं।

छत्तीसगढ़ की सभी 11 सीटों पर भाजपा ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। इसमें 4 मौजूदा सासंदों का नाम काट दिया गया है, जबकि 3 सांसद पहले ही विधानसभा चुनाव जीतकर प्रदेश सरकार में शामिल हो चुके थे। सिर्फ दो मौजूदा सांसदों को ही दोबारा टिकट दिया गया है। राज्य में भाजपा के पास 9 जबकि कांग्रेस के पास 2 लोकसभा सीटें थीं।

झारखण्ड की 14 सीटों में से 11 पर उम्मीदवार घोषित किये जा चुके हैं। यहां से दो मौजूदा सासदों का टिकट काटा गया है। 5 दिन पहले ही कांग्रेस से भाजपा का दामन थाम चुकी मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा को सिंहभूम से ही उतारा जा रहा है।

जहां तक मध्य प्रदेश का प्रश्न है तो यहां की अधिकांश सीटों पर उम्मीदवार तय किये जा चुके हैं। राज्य की कुल 29 सीटों में से 24 पर उम्मीदवारों के नाम की घोषणा कर दी गई है। राज्य में 7 मौजूदा सांसदों का टिकट काट दिया गया है, जिसमें प्रज्ञा ठाकुर (भोपाल), केपी यादव (गुना), राजबहादुर सिंह (सागर), जे एस डामोर (रतलाम), रमाकांत भार्गव (विदिशा), विवेक शेजवाकर (ग्वालियर) और नंद कुमार चौहान (खंडवा) से सांसद हैं।

विदिशा से शिवराज सिंह चौहान को टिकट देकर, उन्हें राज्य की राजनीति से दूर करना समझदारी भरा कदम है, लेकिन कई राज्य सभा सासंदों को चुनावी मैदान में उतारकर पुराने समीकरण अवश्य प्रभावित कर दिए गये हैं। 2019 में सिंधिया कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर गुना सीट पर केपी यादव से मात खा चुके थे। आज उन्हीं केपी यादव की सीट काटकर महाराज को सौंप दी गई है, जो भारी असंतोष का कारण बन सकती है।

मालेगांव ब्लास्ट में अभियुक्त साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, जिन्हें 2019 में भोपाल संसदीय सीट पर भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया था, ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को अच्छे-खासे अंतर से शिकस्त दी थी। इस बार भी माना जा रहा था कि उन्हें जीत में कोई दिक्कत नहीं आने वाली है। फिर भी उन्हें इस बार टिकट से बेदखल कर दिया गया। इस बारे में विशेषग्य मानते हैं कि साध्वी प्रज्ञा का कार्यकाल विवादित बयानों से भरा रहा है।

मुंबई ब्लास्ट में दिवंगत हेमंत करकरे के बारे में उनकी टिप्पणियां देश को बेहद नागवार गुजरीं, जिन्हें मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया था। इसी प्रकार महात्मा गांधी के हत्यारे नाथू राम गोडसे को महान बताने की उनकी टिप्पणी से पीएम मोदी के लिए मुश्किलें खड़ी होती रही हैं। ये बातें अगर पार्टी कार्यकर्ता या आरएसएस से जुड़े सैकड़ों संगठनों के नेता कहते हैं, तो हिंदुत्व की परियोजना में नुकसान नहीं होता है। लेकिन यही बात अगर कोई कानून निर्माता के मुख से निकलता है, तो देश ही नहीं दुनिया में भारतीय लोकतंत्र की दशा-दिशा का हाल बयां होने लगता है।

कुल-मिलाकर कहें तो मोदी-शाह आज उस युग में प्रवेश कर चुका है, जहां स्पष्ट रूप से धुर दक्षिणपंथी सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए खुद के हाथ जलाने की जरूरत नहीं है। उसके लिए सैकड़ों की संख्या में संगठन जमीन पर ही मौजूद हैं। लेकिन इन्हीं में से यदि किसी कार्यकर्ता को देश के सासंद के रूप में प्रतिष्ठापित किया जाता है, तो उसे ज्यादा चतुराई से मामलों को हैंडल करने की दरकार है। दिल्ली के रमेश बिधूड़ी और साहिब सिंह वर्मा के पुत्र परवेश वर्मा के साथ भी यही मामला बताया जा रहा है।

अब कोई कह सकता है कि ऐसे तो तेलंगाना के भाजपा विधायक राजा सिंह का रिकॉर्ड तो सबसे अधिक सनसनीखेज है। उनके साथ ऐसी कार्रवाई क्यों नहीं होती? उसका सीधा उत्तर है कि तेलंगाना जैसे दक्षिण भारतीय राज्य में सिर्फ राजा सिंह के विवादास्पद बयानों के कारण ही भाजपा को सुर्खियाँ मिल पाती हैं। दूसरा, हैदराबाद आरएसएस को निज़ाम राज की याद दिलाता है, जिसके सहारे राष्ट्रीय नैरेटिव को रचने में सहूलियत होती है।

लेकिन हमारा मकसद यहां पर उत्तर प्रदेश की गुत्थी को समझना है, जिसके दो तिहाई उम्मीदवारों की घोषणा की जा चुकी है, लेकिन मुश्किल से किसी नाम को काटा गया है। आखिर इन 44 सांसदों में ऐसा क्या देख लिया गया, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में जमकर पसीना बहाया हो? सभी जानते हैं कि यूपी के लोग सिर्फ एक नाम योगी आदित्यनाथ और उनके बुलडोजर न्याय को ही अब पहचानते हैं।

यूपी में कानून और व्यवस्था के लिए योगी और देश में कुशल नेतृत्व, विदेशों में भारत की वाहवाही और डंका बजाने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी का सिक्का चलता है। उत्तर प्रदेश में माफिया, हिस्ट्रीशीटर डरते हैं, इसका ऐसा नैरेटिव तैयार किया गया है, जिसे आमतौर पर उत्तर प्रदेश में प्रभुत्वकारी वर्ग मान्यता देता है, और इसे ही आम धारणा में स्वीकार्य मान लिया जाता है।

हर पांच वर्ष में चुनावों से पहले नींद से जागकर विपक्ष यदि विरोधस्वरूप प्रतीकात्मक संकेत देता भी है, तो पहले से स्थापित नैरेटिव उन बातों को हवा में उड़ाकर खत्म कर देता आया है। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भी यह बात स्पष्ट हुई। यूपी चुनाव की गंभीरता को देखते हुए पीएम मोदी ने 15 महीने से दिल्ली के विभिन्न बॉर्डर्स पर जारी किसानों के धरने-प्रदर्शन के आगे हार मानते हुए, तीन विवादास्पद कृषि कानून वापिस ले लिये थे। इस प्रकार भाजपा को राज्य में लगातार दूसरी बार सफलता प्राप्त हुई।

देश भले ही इस जीत से एक बार फिर योगी-मोदी की अपराजेयता को लेकर निश्चिंत हो गया हो, लेकिन भाजपा इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकती है कि उस जीत के लिए भाजपा को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। वस्तुतः यूपी पूरी तरह से दो विरोधी राजनीतिक गुट में बंट गया था। चूंकि योगी सरकार के खिलाफ राज्य में समाजवादी पार्टी का ही सांगठनिक ढांचा मौजूद था, इसलिए कांग्रेस और बसपा की ओर से मुकाबले में होने के बावजूद वोटर का ध्रुवीकरण दोनों दलों में हो गया था।

भले ही भाजपा को अच्छीखासी बढ़त के साथ जीत हासिल हुई हो, लेकिन समाजवादी पार्टी को भी 32% वोट हासिल हुए थे, जो उसे 2012 में हासिल पूर्ण बहुमत से भी अधिक थे। 2012 में सपा को करीब 29% वोट के साथ 224 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। 2017 में यह मत प्रतिशत गिरकर 22% हो गया था, और सपा 47 सीटों तक सिमट गई थी। लेकिन 2022 विधानसभा चुनाव में सपा के वोट बैंक में उछाल देखने को मिला, जब उसके पास 32.1% वोट और 111 सीटें आ गईं। इसकी तुलना में भाजपा के पक्ष में 41.29% वोट (255 सीट) दर्ज की गई। 2022 विधान सभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में 2017 की तुलना में 1.62% अधिक मत प्राप्त हुए, लेकिन सपा के पक्ष में 10.24% का उछाल आया था। जिसका अर्थ है मात्र 5% की हेराफेरी दोनों के बीच के अंतर को पूरी तरह से बराबर कर देती है।

यह सही है कि लोकसभा चुनावों में मतदाताओं का मूड बदल जाता है, और वे राष्ट्रीय मुद्दों पर ज्यादा फोकस करते हैं। 2014 से पीएम मोदी देश की राजनीति में धूमकेतु की तर्ज पर उगे हैं, और मीडिया सारा नैरेटिव उन्हीं को ध्यान में रखकर बुनता है। पूरे देश में भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने के लिए वे पार्टी की ओर से अकेले प्रचार करते नजर आ रहे हैं। किसी अन्य का कोई अस्तित्व नहीं रह गया है, क्योंकि भाजपा अब पूरी तरह से मान चुकी है कि सिर्फ मोदी के नाम को आगे कर ही उसे वोट मांगने की जरूरत है, और वह आसानी से 10 वर्ष की एंटी इनकंबेंसी का मुकाबला कर सकती है।

लेकिन यह तो एक नैरेटिव है, जिसपर भाजपा ही बल्कि विपक्ष पर भी इसका आतंक हावी है। लेकिन इतिहास पर नजर डालें तो ऐसे उलटफेर हो चुके हैं। लोगों की जुबान पर 2004 के वाजपेई सरकार के इंडिया शाइनिंग और 1977 के ‘इंदिरा हटाओ-देश बचाओ’ का उद्घोष मुखरित होता है। लेकिन अभी कुछ माह पूर्व, दक्षिण भारत के तेलंगाना राज्य में कांग्रेस इस करिश्मे को दुहरा चुकी है।

इस विधानसभा चुनाव में एक असंभव सा लगने वाला लक्ष्य कांग्रेस ने कैसे हासिल किया, इस बारे में किसी ने खास ध्यान नहीं दिया। करीब 20% वोट मार्जिन को पार पाना किसी भी दल के लिए लगभग असंभव होता है, लेकिन मात्र 2 वर्ष तक एक व्यक्ति के परिश्रम और 2 महीने तक तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस और राहुल गांधी के प्रयास ने बीआरएस के 9 वर्षों के शासन को अपदस्थ कर दिया। इस तथ्य पर भाजपा के रणनीतिकार निश्चित रूप से ध्यान दे रहे हैं।

देश में सबसे अधिक 80 सांसद देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश पर पूर्ण आधिपत्य ही भाजपा के लिए 2024 की राह को निष्कंटक बना सकती है। 2019 में सपा-बसपा गठबंधन, जिसके राष्ट्रीय विकल्प बनने की कोई संभावना नहीं थी, ने हल्का झटका अवश्य दे दिया था। इस चुनाव में सपा को 5 तो बसपा को 10 सीटें जीतने में कामयाबी हासिल हुई थी। भाजपा+ के हिस्से में 62+2 सीटें आ सकी थीं। इसकी तुलना में 2014 में अकेले भाजपा के हिस्से में 71 और सहयोगी पार्टी अपना दल के हिस्से में 2 सीटें आई थीं, जबकि 2019 की तुलना में 2014 का वोट प्रतिशत 7% कम था।

2024 में पहली बार विपक्ष इंडिया गठबंधन के साथ एकजुट होकर लड़ाई के मैदान में उतरा है। कागज पर भले ही यूपी में 2019 के मुकाबले सपा+कांग्रेस का गठबंधन कमजोर नजर आ रहा हो, लेकिन चूंकि यह गठबंधन राष्ट्रीय आधार पर बना है, इसलिए इसमें तमाम दलों का समर्थन और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक विकल्प और नैरेटिव खड़ा करने में मदद मिलती है। ऐसे में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को वोट देने का अर्थ है, इंडिया गठबंधन के एक दल को अपना मत देना।

भाजपा नेतृत्व उत्तर प्रदेश में सर्जरी से क्यों बच रहा है?

यही वह प्रश्न है, जो यूपी की ख़ास स्थिति को जटिल बनाता है। पहली चीज तो यह है कि भाजपा के लिए देश में अपने लिए नए आधार क्षेत्र निकालना लगभग नामुमकिन हो गया है। उसके लिए एकमात्र क्षेत्र दक्षिणी राज्य थे, जहां से सीटों की गुंजाइश थी, लेकिन हिंदुत्ववादी परियोजना के उसके प्रयोग और बिग ब्रदर सोच की वजह से आज पूर्व सहयोगी अन्नाद्रमुक तक कन्नी काट चुकी है। भाजपा के लिए एकमात्र उम्मीद टीडीपी है, अब वह अपनी झोली से उसे कितने सीट देती है, यही देखना है।

भाजपा के लिए कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना, बिहार, हरियाणा, दिल्ली और यहां तक कि पूर्वोत्तर से भी सीटों के कम होने की पूरी-पूरी संभावना है। इसके अलावा, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तक में भाजपा का ग्राफ उपर की जगह नीचे ही जा सकता है। ऐसे में इन राज्यों से कम से कम 50-60 सीटों के नुकसान को उत्तर प्रदेश से ही कुछ हद तक भरपाई की जा सकती है। अर्थात, 10 सीटों का इजाफा कर अकेले दम पर 272 के आंकड़े को हर हाल में छूने की जद्दोजहद।

यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में लगभग सभी पुराने सांसदों को रिपीट किया गया है। यह भाजपा के लिए नुकसानदायक भी हो सकता है, लेकिन अगर यूपी में बगावत होती है तो सारा किया-कराया तमाम भी हो सकता है। अपनी पहली सूची को जारी करते वक्त, भाजपा के लिए गुजरात सहित अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों में यह संकट नहीं है, क्योंकि अधिकांश राज्यों में उसका मुकाबला सिर्फ कांग्रेस से है। कांग्रेस के पास न तो संसाधन हैं और न ही इन राज्यों में बड़े अंतर को पाटने का उसके पास वक्त ही बचा है।

उत्तर प्रदेश की यही विशिष्टता इतनी बड़ी संख्या में मौजूदा सांसदों को बचाने में कामयाब रही, वरना इसमें से शायद ही आधे सांसद अपने होने का औचित्य बता सकने की स्थिति में हैं। यह दूसरी बात है कि भाजपा ने अपनी पहली सूची में ही लखीमपुर-खीरी से अजय मिश्रा ‘टेनी’ का टिकट पक्का कर, किसान संगठनों के जले पर नमक छिड़ककर कहीं न कहीं अपना नुकसान किया है।

संभवतः उसे लगा हो कि 2022 विधानसभा चुनाव में पार्टी को जिले से जबर्दस्त कामयाबी हासिल हुई थी। लेकिन तब टेनी या उनके परिवार का कोई सदस्य चुनाव मैदान में नहीं था। आज 2024 में किसान एक बार फिर से सड़क पर है, और खुद को छला हुआ महसूस कर रहा है। देखना होगा कि भाजपा एक अन्य बाहुबली सांसद, बृज भूषण शरण सिंह का टिकट काटती है या नहीं?

दिल्ली में अवश्य कांग्रेस+आम आदमी पार्टी मजबूत टक्कर देती दिख सकती है। लेकिन महानगरीय आबादी होने की वजह से इसे उत्तर प्रदेश में मतदाताओं के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। उत्तर प्रदेश के अधिकांश निर्वाचन क्षेत्र ग्रामीण एवं छोटे शहरी पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं, जहां आज भी लाल बत्ती का भौकाल बना हुआ है। उसकी तुलना में महानगरीय आबादी के लिए सांसद की बजाय केंद्रीय नेतृत्व और उसकी नीतियां कहीं अधिक मायने रखती हैं।

उत्तर प्रदेश में मौजूदा सांसदों के टिकट काटने की तो बात दूर रही, जिन 3 सीटों पर पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा था, वहां से भी उन्हीं हारे हुए उम्मीदवारों पर दांव आजमाने की तैयारी हो रही है। अमरोहा सीट से इस बार भी भाजपा ने कंवर सिंह तंवर को ही अपना प्रत्याशी घोषित किया है। इस सीट पर बसपा से कुंवर दानिश अली ने कंवर सिंह तंवर को करीब 61,000 मतों के अंतर से शिकस्त दी थी।

इस बार यह सीट कांग्रेस के पाले में आई है, और संभावना है कि कांग्रेस इस सीट पर कुंवर दानिश अली को ही मैदान में उतरने जा रही है। संभल सीट से भाजपा ने परमेशवर लाल सैनी को टिकट दिया था, जिसे सपा के दिवंगत शफीकुर्रहमान बर्क ने 1.75 लाख वोटों के अंतर से जीता था। इसी प्रकार लालगंज सुरक्षित सीट से पिछली बार बसपा की उम्मीदवार संगीता आज़ाद ने भाजपा की उम्मीदवार नीलम सोनकर को करीब 1.62 लाख मतों के अंतर से पटखनी दी थी। आगे की राह तो और भी कठिन है, देखना होगा इंडिया गठबंधन के मुकाबले भाजपा अपनी चुनावी बिसात के लिए क्या-क्या सरप्राइज सामने रखने जा रही है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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