Sunday, April 28, 2024

मध्य प्रदेश को लेकर सत्तारूढ़ भाजपा में भारी घमासान क्यों मचा है?

राज्य विधानसभा चुनावों की अभी तारीख तो नहीं घोषित हुई, लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से उम्मीदवारों की दूसरी सूची भी जारी कर दी गई है। पिछली सूची के समय यह खबर उड़ाई गई थी कि इसे मास्टर-स्ट्रोक समझा जाये। भाजपा ने राज्य की प्रत्येक विधानसभा के लिए गहराई से विश्लेषण किया है, और जिन स्थानों पर वह खुद को कमजोर पा रही है वहां के प्रत्याशियों की घोषणा कर अभी से तैयारी शुरू की जा रही है।

केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों के भरोसे मध्यप्रदेश की नैया पार होगी?

लेकिन कल जब एक बार फिर से 39 विधानसभा क्षेत्रों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा की गई तो उसमें कई नाम केंद्र सरकार में मौजूद मंत्रियों के भी थे। दूसरी लिस्ट में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, प्रह्लाद पटेल, गणेश सिंह, फग्गन सिंह कुलस्ते, राकेश सिंह, रीति पाठक और सांसद उदय प्रताप सिंह के नाम को शामिल किया गया है। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीज को भी विधानसभा का टिकट मिला है, जिसको लेकर वे खुद हैरान हैं। संभवतः इनमें से सभी लोगों के मन में लड्डू फूट रहे हों कि हो न हो, अगली बार मुख्यमंत्री पद के लिए उन्हें ही मौका दिया जा सकता है। इनमें से अधिकांश लोग पिछले एक दशक से भी अधिक समय से मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की हसरत पाले हुए हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या 18 वर्षों तक राज्य की सता पर काबिज शिवराज सिंह चौहान की विदाई की घड़ी आ गई है?

जिस चीज को टालने के लिए शिवराज सिंह ने दिन-रात एक किये, और पिछली बार जब एक भाजपाई नेता द्वारा एक आदिवासी युवक के सिर पर पेशाब करने की घटना सामने आई, उन्होंने फौरन पहल लेकर भाजपा की आपदा को अपने लिए अवसर के तौर पर लपक कर मीडिया में खूब सुर्खियां बटोर लीं। लेकिन कहते हैं न राजनीति में डर-डर कर कदम रखने वाले के लिए लंबे समय तक खैर नहीं रहती। अब चाहे भाजपा को जीत हासिल होती या हार, शिवराजसिंह का राजनीतिक भविष्य लगभग खात्मे की ओर है। जीत की सूरत में यदि वे किसी तरह मुख्यमंत्री बन भी जायें, तो भी इन दिग्गजों के साथ मंत्रिमंडल चलाना तलवार की धार पर चलने जैसा होगा।

नरेंद्र सिंह तोमर सहित दो अन्य को लेकर अटकलें

केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर मुरैना जिले के दिमनी विधानसभा सीट से भाजपा के उम्मीदवार होंगे। बता दें कि उन्हें चुनाव प्रबंधन समिति का भी अध्यक्ष बनाया गया है। इसका अर्थ है कि चुनावी प्रबंधन की सारी कमान उनके हाथ में रहने वाली है। तोमर की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी का अर्थ है सिंधिया गुट से नाराज पुराने भाजपाइयों को फिर से पार्टी के फोल्ड में लाना और सिंधिया समर्थकों को इतिहास के कूड़ेदान की जगह दिखाना।

तोमर के अलावा प्रह्लाद सिंह पटेल को नरसिंह पुर से टिकट दिया गया है। उन्हें भी भाजपा के भीतर एक बड़ा चेहरा माना जाता है। इसी तरह भाजपा ने अपने वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीज को भी चुनावी मैदान में उतारा है, और उन्हें इंदौर-1 सीट पर अपनी किस्मत आजमानी है। मंदसौर में किसान आंदोलन के दौरान जब कई किसानों की पुलिस गोलीबारी में जान चली गई थी, तो उस दौरान भी कैलाश विजयवर्गीज का नाम तेजी से मुख्यमंत्री पद के लिए उछला था। लेकिन शिवराजसिंह ने तत्काल इस घटना पर भारी दुःख जताते हुए अनशन पर बैठकर सत्ता संतुलन को साधकर अपनी कुर्सी बचा ली थी। कैलाश विजयवर्गीज की नजर लंबे समय से सीएम पद पर गड़ी हुई हैं।

मोदी की प्रतिष्ठा दांव पर

लेकिन साथ ही यह भी तय सा लग रहा है कि मध्य प्रदेश में जीत को सुनिश्चित करने के लिए पीएम मोदी कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हैं। अपने कैबिनेट के साथियों की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने के पीछे भला और क्या मंशा हो सकती है। लेकिन एक समस्या है, जिसको लेकर चुनावी विशेषज्ञ सोच में पड़े हुए हैं। यदि मध्य प्रदेश में भाजपा के हाथ में पराजय आती है, लेकिन केंद्रीय मंत्री और सांसद अपनी-अपनी सीटें जीतने में सफल रहते हैं, तो क्या वे विधायकी के सहारे अगले 5 साल को गुजारने के लिए तैयार रहेंगे? ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ने जिस प्रकार से देश में नोटबंदी, सीएए, एनआरसी, कृषि कानून, जीएसटी, कोविड-19 लॉकडाउन और हाल ही में कनाडा को सबक सिखाने की ठानी है, उसी प्रकार की जल्दबाजी और तात्कालिक लक्ष्य को ही साधने के चक्कर में उसने दूरगामी लक्ष्य को सिरे से नजरअंदाज कर दिया है। अभी तो किसी तरह मध्यप्रदेश और राजस्थान पर काबिज होकर साबित करना है, वो भी शिवराजसिंह और वसुंधराराजे के बिना। 

अगर मोदी ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं, जो कि आज के दिन लगभग असंभव नजर आ रहा है तो वे भाजपा और आरएसएस में स्वंय को पूरी तरह से अपरिहार्य बना देंगे। उनके बगैर वैसे तो पहले भी कोई चूं नहीं बोलता था, लेकिन इसके बाद तो योगी आदित्यनाथ ही एकमात्र क्षत्रप बच जाते हैं।

भाजपा की तीसरी लिस्ट

भाजपा द्वारा आज तीसरी लिस्ट जारी की गई है, लेकिन इसमें सिर्फ एक नाम को मंजूरी दी गई है। इस बार छिंदवाडा जिले की अमरवाड़ा सीट से 33 वर्षीय मोनिका बट्टी के नाम की घोषणा की गई है। बता दें कि 2018 में इस सीट पर कांग्रेस के कमलेश प्रताप शाह ने जीत दर्ज की थी। भाजपा दूसरे नहीं बल्कि तीसरे स्थान पर थी। हारने वाले प्रत्याशी गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के मनमोहन शाह बट्टी थे, और आदिवासियों के बीच इनका अच्छा-खासा प्रभाव है। अब उन्हीं की बेटी को बीजेपी ने अपना उम्मीदवार घोषित किया है।

बीजेपी के लिए मोदी के चेहरे पर सारा दारोमदार

जैसे-जैसे चुनावों की घड़ी नजदीक आने लगती है, भाजपा के लिए केंद्र हो या राज्य अथवा केंद्र शासित प्रदेश, हर जगह सिर्फ मोदी के चेहरे को आगे कर मतदाताओं से जीत की गारंटी की उम्मीद की जाती है। हालांकि हाल के वर्षों में हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में भाजपा की सरकार होने के बावजूद उसे हार का स्वाद चखना पड़ा है। मध्य प्रदेश में भी 2018 विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद, कांग्रेस से सिंधिया और उनके समर्थक विधायकों की सेंधमारी कर सत्ता हासिल करने में कामयाबी हासिल कर ली थी।

लेकिन शिवराज सिंह चौहान के लिए मौजूदा कार्यकाल बेहद चुनौतियों भरा रहा। 2014 से अपने पूर्व के कार्यकाल के दौरान शिवराज चौहान प्रदेश के मामा बने हुए थे। उनके खिलाफ व्यापम परीक्षा घोटाले और दर्जनों मौतों को छोड़ दें तो मध्यप्रदेश के किसानों के बीच में अच्छा-खासा समर्थन बना हुआ था। लेकिन 2014 में जबसे केंद्र में मोदी नेतृत्व के तहत भाजपा शासन सत्ता में आ गई, उसके बाद से मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान लगभग निस्तेज हो चले थे। 2018 का चुनाव वे हार चुके थे, जिसे केंद्र सरकार की बदौलत फिर से किसी तरह हासिल कर पाए थे।

मध्यप्रदेश में यूपी की तर्ज पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास प्रदेश में मुस्लिमों की तादाद यूपी या अन्य राज्यों की तुलना में बेहद कम है। हालांकि मध्य प्रदेश शैक्षणिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक तौर पर आज भी पिछड़े राज्यों की गिनती में आता है, और स्वभावतः धर्म-कर्म और अंधविश्वास आज भी बड़े पैमाने पर जारी है। इसके बावजूद मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की गुंजाइश यहां बाकी राज्यों से कम है।

लेकिन हाल के वर्षों पर नजर दौडाएं तो पाते हैं कि शिवराजसिंह चौहान के इर्दगिर्द मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के जमावड़े, केंद्र की भाजपा सरकार के रवैये और पड़ोस में बेहद कम अनुभवी मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ के हिंदुत्व के रथ पर सवारी कर अप्रत्याशित राष्ट्रीय पहचान ने संभवतः चौहान को उसी राह पर धकेल दिया, जो उनकी प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है। अपने पिछले कार्यकाल में किसानों के आंदोलन से वे जान चुके थे कि पूंजीवादी कृषि की सीमा पहले ही खत्म हो चुकी है, और अब उनके पास मौजूदा व्यवस्था में व्यापक कृषक समुदाय को देने के लिए कुछ खास नहीं है। मंदसौर कांड में उनकी कुर्सी लगभग जाते-जाते बची थी, और इसलिए उन्हें भी शासन में बने रहने के लिए जन-समस्याओं को संबोधित करने के बजाय उनके दिलों में अंजान दुश्मन के प्रति भय और घृणा का वातावरण बनाना ही ज्यादा श्रेयस्कर लगा।

उमा भारती की चुनौती

प्रधानमंत्री मोदी पिछले 6 माह में मध्यप्रदेश का सातवीं बार दौरा कर चुके हैं। इस प्रकार उन्होंने 22 जिलों के 94 विधानसभाओं को कवर कर लिया है। उधर पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने पीएम मोदी के मध्यप्रदेश आगमन पर स्वागत करते हुए महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण में से ओबीसी समुदाय के लिए आरक्षण की अपनी मांग एक बार फिर से दुहराई है। उनका साफ़ कहना है कि संसद में जब पहली बार महिला आरक्षण का मुद्दा आया था, तो उन्होंने ही सबसे पहले इसके भीतर ओबीसी समुदाय की महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग की थी। उनका दावा है कि वे तब जिस बात पर अडिग थीं, उसी बात पर आज भी कायम हैं। महिला आरक्षण के मुद्दे पर पीएम मोदी इसे अपनी बड़ी जीत बता रहे हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में उमा भारती और कांग्रेस पार्टी एक राय हैं। उमा भारती ओबीसी वर्ग की बड़ी नेता रही हैं और 90 के दशक में जब भाजपा मुख्य रूप से बनियों की पार्टी मानी जाती थी, तब यूपी में कल्याण सिंह और मध्य प्रदेश में उमा भारती ही थीं, जिन्होंने भाजपा और आरएसएस के लिए देश पर राज करने की कुंजी तैयार करने का काम किया था।

लेकिन चिंता उमा भारती से भी बड़ी आरएसएस के पुराने कार्यकर्ताओं और जनसंघ के जमाने से पार्टी की नींव के रूप में काम करने वाले बुजुर्ग कार्यकर्ताओं की है, जो या तो पार्टी छोड़-छोड़ सन्यास ले रहे हैं, या कांग्रेस का दामन थाम रहे हैं। कुछ लोगों ने तो स्वतंत्र रूप से क्षेत्रीय स्तर पर चुनावों में शिरकत करने की तैयारी तक कर ली है। मध्यप्रदेश के चुनावी समर में जैसे-जैसे घमासान तेज होगा, विभाजनकारी मुद्दों पर प्रदेश की जनता को अपने पाले में लाने की अब तक की कोशिशों का सिला सिफर होने की सूरत में भाजपा को एक बार फिर से आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग की ओर लौटना होगा, लेकिन इस मोर्चे पर राहुल गांधी ने अभी से जातिगत जनगणना की मुहिम तेज कर प्रवेश द्वार पर मजबूती से अपने पांव गाड़ दिए हैं।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles