झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन कल 30 अगस्त को भाजपा में शामिल हो गए। कोल्हान के टाइगर कहे जाने वाले सोरेन को साथ ले कर क्या भाजपा झारखंड में कोई बड़ा उलटफेर कर पाएगी?
झारखंड की 81 सदस्यीय विधानसभा का कार्यकाल वैसे तो 3 जनवरी को पूरा हो रहा है, लेकिन यह माना जा रहा है कि नवंबर दिसंबर में महाराष्ट्र के साथ वहां भी चुनाव सम्पन्न हो जायेगा। जाहिर है झारखंड अब पूरी तरह चुनावी मोड में प्रवेश कर चुका है।
माना जा रहा है कि जिन चार राज्यों में चुनाव होने जा रहा है, उनमें भाजपा के लिए अगर किसी राज्य में सरकार बनाने की कुछ संभावनाएं हैं, तो वह अकेले झारखंड है। हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव में वह 14 में से 8 सीटें जीतने में सफल रही और उसके सहयोगी AJSU को एक सीट मिली। लेकिन लोकसभा चुनाव के ये नतीजे कोई आश्वासन नहीं हैं कि विधानसभा चुनाव में उसे ऐसी ही सफलता मिल पाएगी। 2019 में उसे अपने सहयोगी AJSU समेत 14 में 12 सीटें मिली थीं, लेकिन चंद महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में वह सत्ता से बाहर हो गई। उसे मात्र 25 सीटें हासिल हुई थीं। सहयोगियों समेत 48 सीटें (JMM 30, कांग्रेस 16, आरजेडी एक, भाकपा-माले एक) जीत कर विपक्षी गठबंधन सत्ता में आ गया।
इसी तरह 2014 की मोदी लहर में उसे लोकसभा में 14 में 12 सीटें मिली थीं लेकिन विधानसभा चुनाव में 31.8% मत के साथ 37 सीटें ही मिलीं, हालांकि वह सहयोगियों की मदद से सरकार बनाने में सफल हो गई थी।
बहरहाल, 2024 के लोकसभा चुनाव की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह रही कि राज्य की सभी पांचों आदिवासी आरक्षित सीटों (खूंटी, लोहरदगा, सिंहभूम, राजमहल, दुमका) में भाजपा खेत रही। उनमें से तीन जेएमएम और दो कांग्रेस ने जीत लीं। यहां तक कि भाजपा के दिग्गज नेता पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा खूंटी सीट पर लगभग डेढ़ लाख मतों से हार गए। (कहा जाता है कि 2014 का चुनाव भी उन्हें बमुश्किल जिताया गया था।)
इसका संदेश बड़ा स्पष्ट है, तमाम दिग्गज आदिवासी नेताओं के होने के बावजूद भाजपा आदिवासी जनता के बीच विश्वास खो चुकी है। और यह तय है कि जिस राज्य में 26.5% आदिवासी और 16% मुस्लिम आबादी है, वहां आदिवासियों के बीच डेंट किए बिना कोई पार्टी सत्ता में नहीं आ सकती। करीब 40 सीटों पर आदिवासी मत प्रभावी माने जाते हैं।
भाजपा के एक समय के प्रभावशाली आदिवासी नेताओं बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, करिया मुंडा, मधु- गीता कोड़ा और हाल ही में शामिल हुई सीता सोरेन के निस्तेज हो जाने के बाद अब चंपई सोरेन भाजपा के लिए उम्मीद की आखिरी किरण हैं।
हालांकि बाबूलाल मरांडी जैसे नेता चंपई सोरेन के पूरे प्रकरण से नाराज बताए जा रहे हैं और इस आपसी अंतर्कलह का भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर विपरीत असर पड़ना तय है।
झारखंड में ओबीसी आबादी 45% और दलित आबादी 10% है। उम्मीद है इसका अच्छा खासा हिस्सा जाति जनगणना, आरक्षण और संविधान की रक्षा जैसे सवालों पर भाजपा के खिलाफ इंडिया गठबंधन के पक्ष में मतदान करेगा। हेमंत सोरेन ने पिछले दिनों शपथ ग्रहण करते हुए अपने नए मंत्रिमंडल में इस सामाजिक समीकरण के अनुरूप भागेदारी दी है, ST समुदाय से 5, ओबीसी 3, मुस्लिम 2, दलित 1 तथा सवर्ण समुदाय से 1 मंत्री बनाया है।
सोरेन सरकार ने 1932 खतियान बिल और एससी एसटी तथा ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षण 50% से बढ़ाकर 67% करने का बिल पास करवा कर हाशिए के तबकों में मजबूत पकड़ बना ली है। दरअसल झारखंडी पहचान और 1932 के लैंड रिकॉर्ड को डोमिसाइल तथा रोजगार नीति तय करने का आधार बना दिया गया है। इस कानून के अनुसार क्लास 3 और 4 श्रेणी की नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित कर दी गई हैं। बिल के प्रावधान के अनुसार सरकार ने इसे संविधान के शेड्यूल 9 में शामिल करने की मांग किया है ताकि न्यायिक समीक्षा द्वारा इसे बदला न जा सके और झारखंडी स्थानीय निवासियों के हितों की रक्षा हो सके।
दरअसल पहली बार यह बिल नवंबर 2022 में ही पास हो गया था। लेकिन भाजपा ने राज्यपाल के माध्यम से इसे साल भर फंसाए रखा। आखिर सोरेन सरकार ने राज्यपाल की अड़ंगेबाजी और उनके द्वारा अटॉर्नी जनरल से ली गई नकारात्मक राय को खारिज करते हुए दिसंबर 23 में फिर बिल को हूबहू उसी रूप में विधानसभा में पारित करवाया। जाहिर है इससे झारखंडी मूल निवासियों और वंचित तबकों के बीच भाजपा की जबर्दस्त किरकिरी हुई है।
हेमंत सोरेन की मुख्यमंत्री रहते हुए जिस तरह गिरफ्तारी हुई और उन्हें बेल देते हुए उच्चतम न्यायालय ने सरकार और एजेंसियों को जिस तरह फटकार लगाई, उससे भ्रष्टाचार को उनके खिलाफ मुद्दा बनाने की भाजपा की कोशिशों पर न सिर्फ पानी फिर गया, बल्कि आदिवासियों में भाजपा के खिलाफ आक्रोश भी पनपा। लोकसभा चुनाव के नतीजे इसके गवाह हैं जहां 2014 और 2019 की अपनी जीती हुई कई सीटें भी भाजपा गंवा बैठी। अब उनके पास ले देकर ध्रुवीकरण का ही सहारा बचा है। भाजपा में शामिल होते ही चंपई सोरेन को अचानक बांग्लादेशियों का भूत सताने लगा है।
इंडिया गठबंधन के लिए जनांदोलन की मजबूत ताकत भाकपा माले का साथ भी फायदेमंद साबित होगा। हाल ही में मार्क्सिस्ट कोऑर्डिनेशन कमेटी (एमसीसी) का भी भाकपा-माले में विलय हुआ है, जिससे कभी चर्चित मजदूर नेता एके राय धनबाद से सांसद हुआ करते थे। बताया जा रहा है कि इस विलय के बाद अब बगोदर, धनवार, निरसा, सिंदरी और जमुआ में भाकपा-माले की दावेदारी मजबूत हुई है।
इन परिस्थितियों में कोल्हान की चंद सीटों को छोड़कर लगता नहीं कि चंपई सोरेन भाजपा की कुछ खास मदद कर पाएंगे।आशा की जानी चाहिए कि झारखंड की जनता बेरोजगारी, महंगाई की जिम्मेदार मोदी सरकार की ध्रुवीकरण की राजनीति को शिकस्त देगी तथा इंडिया गठबंधन को पुनः सत्तारूढ़ कर वंचित तबकों के हितों तथा संविधान व लोकतंत्र की रक्षा की राजनीति को आगे बढ़ाएगी।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)