Saturday, April 27, 2024

बीटेक छात्र की सांस्थानिक हत्या: क्या सिलचर एनआईटी के छात्रों को न्याय मिलेगा?

सिलचर। एनआईटी सिलचर में हंगामा बरपा हुआ है। यहां बीटेक इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का तृतीय वर्ष का एक छात्र 15 सितंबर को गले में फांसी का फंदा लगाकर आत्महत्या कर लिया। छात्र का नाम कोज बोकर था और वह अरुणाचल प्रदेश का रहने वाला था। शाम 5 बजे जब कोज के मौत की खबर कैंपस में फैली, तो सनसनी फैल गई और बड़ी संख्या में छात्र एकत्र होने लगे। सभी छात्र बीटेक के विभिन्न वर्षों के थे। कुछ ही समय में डेढ़ से दो हज़ार छात्र एक हुजूम में डायरेक्टर डीके वैद्य से मिलने और गुहार लगाने चल पड़े।

छात्रों के अनुसार डायरेक्टर कैंपस पर उपस्थित नहीं थे, तो छात्रों ने तय कर लिया कि कोज के शव को प्रशासन हाथ नहीं लगा सकेगा। उनका कहना था कि कोज उन्हीं के बीच का था, भाई समान था और लगातार विनती कर रहा था कि उसे अगले सेमेस्टर में पंजीकरण करवाने दिया जाए। पर प्रशासन ने उसकी एक नहीं सुनी और उसे निराश कर दिया, इसलिए उसकी आत्महत्या के लिए एनआईटी प्रशासन सीधे जिम्मेदार है।

छात्रों ने डीन (अकादमिक) बीके राॅय की तलाश शुरू कर दी। एक अध्यापिका से जब उनके घर का पता पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्हें नहीं पता। आन्दोलन कर रहे छात्रों के भीतर इतना गुस्सा भरा हुआ था कि उनके घर के शीशे, टीवी व अन्य सामान को क्षतिग्रस्त करते हुए आगे बढ़ गए। जब डीन का घर मिला तब तक छात्र काफी उग्र हो गए थे। चश्मदीद गवाह बताते हैं कि उन्होंने डीन के घर में घुसकर उनकी सम्पत्ति को तोड़ना शुरू कर दिया और चिल्लाते रहे- ‘बाहर आओ, बाहर आओ’।

डीन राॅय ने अपने को बेडरूम में बंद कर लिया और पत्नी व बेटा बाथरूम में बंद हो गए। इस बीच गुस्से से बेकाबू छात्रों ने उनकी फ्रिज, टीवी, खिड़कियां, किचन टाइल्स वगैरह तोड़ डाले। गैस चूल्हे से सिलिंडर अलग कर लिया और उसे खोलने की बात कर रहे थे। डीन अन्य अध्यापकों को लगातार वॉट्सऐप पर मेसेज कर रहे थे कि ‘मुझे बचाइये, प्लीज़’। कुछ अध्यापकों ने पुलिस को बुलाया और राॅय की पत्नी व बच्चे को बचाकर दूसरी जगह ले गए।

पूरे दो घंटे बीत गए, तब पुलिस आई। फिर पुलिस की गाड़ी और एक पत्रकार की मोटरसाइकिल भी ध्वस्त कर दी गई। ईंटों से उन्हें कूच डाला गया। एसपी पर बोतलों से हमला भी हुआ। कोज के शव को कब्जे में लेने के लिए पुलिस को बर्बर लाठीचार्ज करना पड़ा। पुलिस का कहना है कि समझाने पर भी छात्र काबू में नहीं आ रहे थे। इसमें करीब 40 छात्र-छात्राओं को गंभीर चोटें आईं और उन्हें एसएमसीएच में भर्ती कराया गया।

असम के न्यूज़ चैनल पर दिखाया जा रहा था कि कैसे पुलिस ने लड़कियों तक को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा और उनके सिर पर लाठियां भांजी। बराक बुलेटिन में नुकसान की भयावह तस्वीरें छपीं और कुछ बयान भी आए। आज तक छात्रों का संघर्ष जारी है। पर कक्षाएं शुरू कर दी गई हैं और एक जांच कमेटी का गठन कर मामले को शान्त करने की कोशिश हो रही है।

पर कुछ छात्रों, शायद अब तक 5, पर प्राथमिकी दर्ज की गई है। कुछ छात्रों ने जिला प्रशासन को माफीनामा भी लिख कर दिया है और कुछ ने वायदा किया है कि वे जांच में मदद करेंगे। कुछ छात्रों ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि वे हिंसा में भागीदार नहीं होना चाहते हैं पर कुछ दबंग सीनियर छात्रों द्वारा उन्हें बलात इसमें घसीटा जा रहा है, वह भी धमकी देकर।

कुछ अन्य छात्रों के घरों से अभिभावक चिंतित होकर फोन कर रहे हैं कि उनके बच्चों का कैरियर बर्बाद न हो, इसके लिए एनआईटी प्रशासन कुछ कदम उठाए। पर आन्दोलन जारी है और 18 सितम्बर को शोक दिवस मनाया गया। दूसरी ओर क्लास भी चले क्योंकि सेमेस्टर परीक्षाएं नज़दीक हैं। पर डायरेक्टर और अध्यापक चैकन्ना हैं। अंदरूनी जांच की रिपोर्ट के आने का इंतज़ार है।

छात्रों में बढ़ती निराशा

पूरे घटनाक्रम को देखने पर लगता है कि यह सारा गुस्सा केवल एक घटना को लेकर नहीं हो सकता। कहीं-न-कहीं बड़े पैमाने पर छात्र समुदाय के भीतर एक गहरा असुरक्षा बोध घर कर गया है। यह असुरक्षा बोध ज़िन्दगी की अनिश्चितता से पैदा होता है- प्रवेश मिला, पर आगे क्या होगा?, अपने पसंद का विषय मिलेगा या नहीं?, सेमेस्टर क्लियर होगा कि नहीं?, बीटेक के बाद क्या करेंगे?, एमटेक कितना कठिन होगा?, माता-पिता के दबाव को कैसे झेलेंगे और बाद में नौकरी मिलेगी भी या नहीं?

हम देख रहे हैं कि राजस्थान के कोटा में कोचिंग के लिए जा रहे छात्र एक-के-बाद-एक आत्महत्या कर रहे हैं। लेकिन इस पर गहरी चिंता होने की जगह प्रशासन ऐसे पंखे लगवाने की सोच रहा है जिनसे लटककर कोई जान नहीं दे सकेगा। अभिभावक भी सोचते हैं कि दूसरे का बच्चा मरा, हमारा थोड़े ही। तो खेल जारी है।

कड़े कानून क्या समस्या का हल है?

बताया जाता है कि कैंपस में कड़े कानून बनाए जा रहे थे। रैगिंग की एक घटना पर और किसी कर्मचारी को थप्पड़ जड़ने के बाद त्वरित ऐक्शन हुआ था। पर लगता है कि छात्र इस कड़ाई के लिए तैयार नहीं थे। आखिर छात्र जब निराश और फ्रस्ट्रेट होते हैं तो वे अपनी भड़ास निकालने का कोई ज़रिया ढूंढ लेते हैं। न उनका कोई संगठन है न यूनियन, जो उनके मुद्दे उठाए। एक जिमखाना क्लब है, पर वह अकादमिक मामलों पर हस्तक्षेप नहीं करता।

गरीब घर के दलित, आदिवासी, ओबीसी लड़के प्रवेश तो पा जाते हैं पर उन्हें बाद में बहुत दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। उच्च वर्ग वाले तो ड्रग्स और शराब में सुकून ढूंढते हैं और गरीब व वंचित समुदाय के बच्चे ड्राॅप-आउट करते हैं या आत्महत्या। इससे पहले भी एक छात्र ने आत्महत्या की थी। उदाहरण के लिए कोज अरुणाचल प्रदेश के आदिवासी समुदाय से ही था।

उसका कहना था कि कोविड महामारी के समय वह घर चला गया था और वह राज्य के सुदूर गांव में होने के कारण इंटरनेट सुविधा से वंचित रहा। कोज को ऑनलाइन क्लास करने से महरूम रहना पड़ा, जिसके चलते वह अपने कई विषयों के बैकलाॅग को- यानि जिन पर्चों में वह फेल था- क्लियर नहीं कर पाया और पिछड़ता चला गया गया। वह डीन से एक और मौके के लिए गिड़गिड़ा रहा था। शायद घर से दबाव भी रहा हो। पर डीन ने मना कर दिया- ‘आफ्टर ऑल रूल्स आर रूल्स’।

यह समस्या कोज जैसे अनेकों छात्रों की हो सकती है। वे जब पिछड़ जाते हैं, अपने सहपाठियों से अलगाव में पड़ जाते हैं। कैंपस में काउंसलिंग सेल तो है, पर उसका रवैया आम समाज जैसा ही होता है। सुनना कम, हिदायत अधिक देना। ऐसी स्थिति में आत्महत्या ही अंतिम राहत बन जाती है।

ड्राॅपआउट्स में सबसे अधिक दलित, आदिवासी, पिछड़े

2021 में एचआरडी मंत्रालय ने राज्यसभा को बताया था कि आईआईटी गुवाहाटी में जो बीटेक छात्र आगे नहीं जा सके, यानि ड्राॅपआउट कर गए, उनमें से 88 प्रतिशत आरिक्षत सीटों वाले छात्र थे- एससी/एसटी/ओबीसी। लगभग सभी आईआईटी में 60 प्रतिशत से अधिक ड्रापआउट आरक्षित कोटा के छात्र थे। मंत्रालय का कहना था कि अधिकतर ड्राॅपआउट अपने निजी कारणों से या किसी अन्य पाठ्यक्रम में जाने के लिए संस्थान छोड़कर गए।

पर ये आंकड़े क्या दर्शाते हैं- अधिकतर दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय के बच्चे गरीब या निम्न मध्यम वर्ग के परिवारों से आते हैं। कोविड के समय कोज की तरह उन्हें 10-12 घंटे इंटरनेट की सुविधा मिली होगी क्या? उनके पास इंजीनियरिंग की महंगी किताबें रही होंगी क्या? क्या उनके माता-पिता में से कोई इतना पढ़ा-लिखा होगा कि उन्हें गाइड कर सके? यदि नहीं, तो वे इतने कठिन पाठ्यक्रम को कैसे साध सकेंगे?

ऑल कछार करीमगंज हैलाकान्दी स्टूडेन्टस ऐसोसिएशन के संयोजक रूपम नन्दी पुरकायस्थ अलग ही राग अलाप रहे हैं। वह मांग कर रहे हैं कि ऐसी संस्था, जहां ‘सब्सटैंस ऐब्यूज़’ चलता है और कैंपस में प्रशासन तमाशबीन बना रहता है, को बंद कर देना बेहतर है। उन्होंने कहा कि ‘आरक्षण को भी समाप्त कर दिया जाय, क्योंकि ऐसे प्रवेश पाने वाले छात्र माहौल को खराब कर रहे हैं और पढ़ने वालों का नुकसान हो रहा है’।

यह एक खतरनाक दक्षिणपंथी विचार है जो गरीब व सामाजिक रूप से वंचित छात्रों को अराजकता के लिए जिम्मेदार ठहराना चाहता है। ये लोग एनआईटीज और आईआईटीज के अभिजात्यीकरण के हिमायती हैं, जो सरकार की ‘एजुकेशन फाॅर ए प्राइस’ की नीति के साथ मेल खाता है।

इंजीनियरिंग की पढाई करके बेरोज़गार

भारत में 30 हजार से अधिक इंजीनियरिंग काॅलेज हैं। और 1,396 एआईसीटीई द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। फिर क्या कारण है कि छात्र भारी मात्रा में पैसा खर्च करने के बाद इनमें प्रवेश पाकर, फिर भारी फीस देकर पढ़ते हैं, लेकिन उनके पास वह कौशल नहीं होता जिसकी बाज़ार को ज़रूरत होती है? नतीजा है कि वे रोज़गार पाने के योग्य ही नहीं होते। ज्यादातर इंजीनियरिंग स्नातक और स्नातकोत्तर छात्र अपनी पढ़ाई को जाॅब मार्केट के हिसाब से सटीक नहीं पाते।

पाठ्यक्रम मार्केट डिमांड के हिसाब से काफी पिछड़े हैं। इसलिए एमटेक डिग्री लेकर भी उन्हें कम कौशल वाले कामों में लिया जाता है। दूसरी समस्या है ऐट्रिशन रेट यानि काम छोड़ने की दर। यह भी, कोई उद्योग ले लें, कुल मिलाकर 20-35 प्रतिशत रहता है।

हुंडई मोटर इंडिया लिमिटेड के एक वरिष्ठ अधिकारी स्टीफेन सुधाकर का कहना था कि ‘बहुत कम इंजीनियरिंग काॅलेज हैं जहां से पढ़कर छात्र रोज़गार-योग्य यानि एम्प्लॉयबल हो पाते हैं। कारण है कोर्सेस का पुराना होना और मार्केट डिमांड के साथ तालमेल नहीं बैठा पाना।

दूसरी बात है कि 21 सदी में कम्पनियां कर्मी को ट्रेन नहीं करना चाहतीं क्योंकि उसमें पैसा लगता है। वह ट्रेंड वर्कर की मांग करती हैं। पर काॅलेज केवल एक डिग्री थमाकर बाहर भेज देता है, उसे रोज़गार-योग्यता से मतलब नहीं है। चौथे वर्ष तक आते-आते छात्र समझ जाता है कि वह जाॅब मार्केट में नौसिखिया भी नहीं है। तब तक माता-पिता की अच्छी खासी कमाई खर्च हो चुकी होती है।

इसलिए जो छात्र सिलचर एनआईटी में भूख हड़ताल पर बैठे हैं और डीन के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं, वे नहीं समझ पाते कि व्यवस्था में ऐसे ही प्रशासक आएंगे जो नित नए और अधिक कड़े कानून बनाएंगे और उन पर अड़ेंगे वरना उनका अस्तित्व खतरे में होगा। आखिर उन्हें इसी व्यवस्था को चलाना है।

यह लगभग सभी कैंपसों की कहानी है- लोकतंत्र का ह्रास, किसी भी प्रकार के छात्र संगठन और यूनियन पर प्रतिबंध और बढ़ती अराजकता। फिर अराजकता का जवाब होगा कैंपसों का पुलिस छावनी बनना और छात्रों का निष्कासन। जब रास्ता ही गलत हो तो भला मंज़िल कैसे मिलेगी? छात्र-युवा आंदोलन को शिक्षा के व्यवसायीकरण और बेरोज़गारी के प्रश्नों पर देशव्यापी आंदोलन की तैयारी करनी होगी।

(कुमुदिनी पति, सामाजिक कार्यकर्ता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की पूर्व उपाध्यक्ष हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles