1 अगस्त को राजधानी दिल्ली में नौजवानों का बड़ा जमावड़ा होने जा रहा है, जिसमें वे रोजगार के अधिकार के लिए मोदी सरकार के ख़िलाफ़ हुंकार भरेंगे। जंतर-मंतर पर इंकलाबी नौजवान सभा (Revolutionary Youth Association-RYA) द्वारा आयोजित इस ‘युवा संसद’ (यूथ पार्लियामेंट) में देश के तमाम राज्यों से आने वाले युवा भाग लेंगे। इसे अनेक सामाजिक-राजनीतिक हस्तियां और बुद्धिजीवी भी सम्बोधित करेंगे।
नौजवान सभा के महासचिव नीरज कुमार द्वारा जारी बयान में कहा गया है, “मोदी सरकार अपना दूसरा कार्यकाल भी पूरा करने को है लेकिन इसने नौजवानों से किए गए अपने किसी भी वादे को पूरा नहीं किया गया। उलटे नौजवानों के भविष्य व सपनों पर बुलडोजर चलाने का काम किया है। हमारे देश ने तबाही-बर्बादी का ऐसा आलम पहले कभी नहीं देखा था।”
“सत्ता में आने से पहले हर साल दो करोड़ नौजवानों को रोजगार देने का वादा करने वाली सरकार की असलियत यह है कि संसद में सरकार ने खुद स्वीकार किया कि 8 साल में वह मात्र 7.2 लाख रोजगार ही दे पाई है जबकि 22 करोड़ नौजवानों ने इसके लिए आवेदन किया। नौजवानों को रोजगार देने की इस सच्चाई के बीच प्रधानमंत्री मोदी ‘रोजगार मेला’ लगा कर कुछ हजार नियुक्ति पत्र बांट कर गोदी मीडिया के माध्यम से रोजगार देने का ढोंग कर रहे हैं। प्रधानमंत्री द्वारा जितने नियुक्ति पत्र बांटे गए वह संख्या खाली पड़े पदों की 15% भी नहीं है।”
नौजवानों में इस बात को लेकर भी गहरी कुंठा घर कर रही है कि सीमित संख्या में उपलब्ध नौकरियों के लिए नियुक्तियों में जबरदस्त भाई भतीजावाद, पार्टीवाद और भ्रष्टाचार व्याप्त है। आज यह बात सर्वविदित है कि “अगर नौकरी चाहिए तो भाजपा/आरएसएस नेताओं से अच्छे रिश्ते या पैसे होने चाहिए।”
प्रतियोगी परीक्षाओं में धांधली इस सरकार की पहचान बन गई है। पेपर लीक व आरक्षण में घोटाले इन दिनों प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आम बात हो गई है। शायद ही कोई परीक्षा हो जिसका पेपर लीक न हो रहा हो या उसमें किसी तरह की धांधली न हो रही हो।
नौजवानों की यह गहराती हताशा और आक्रोश मोदी राज में समय समय पर विस्फोटक रूप ग्रहण करता रहा है। सरकारी क्षेत्र के सबसे बड़े employer रेलवे की परीक्षाओं में व्याप्त अनियमितताओं के ख़िलाफ़ जिस तरह पटना से लेकर प्रयागराज तक हजारों-हजार युवाओं ने रेल-ट्रैक पर कब्जा किया था, उससे पूरा सत्ता प्रतिष्ठान सकते में आ गया था। भारी राज्य दमन के बाद ही नौजवानों के प्रतिरोध को कुचला जा सका था।
बेरोजगारी की महा-त्रासदी के खिलाफ संचित युवा आक्रोश के इस विस्फोट ने खतरनाक आयाम ग्रहण करते भारत के रोजगार संकट की भयावहता की ओर पूरे देश-दुनियां का ध्यान आकर्षित किया था।
दरअसल, 140 करोड़ से ऊपर आबादी के साथ भारत आज न सिर्फ दुनिया का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बन गया है, बल्कि 1 अरब के ऊपर working-age population के साथ यह दुनिया का सबसे बड़ी श्रमशक्ति वाला देश है।
उससे महत्वपूर्ण यह कि 30 वर्ष से कम उम्र की 53% आबादी के साथ भारत दुनिया की सबसे बड़ी युवा श्रमशक्ति का देश है।
स्वाभाविक रूप से इसे भारत के लिए वरदान (डेमोग्राफिक डिविडेंड) माना जा रहा था। अर्थनीति की सही दिशा के साथ इस विराट युवा श्रमशक्ति को productive gainful employment में नियोजित कर भारतीय अर्थव्यवस्था सचमुच चमत्कार कर सकती थी।
लेकिन अफसोस यह न हो सका, क्योंकि 25 वर्ष से कम आयु के युवा जो देश की कुल आबादी का 40% हैं, उनमें करीब आधे (लगभग 45.8% ) आज बेरोजगार हैं (CMIE )। मोदी राज में आज आधे जवान हाथों के पास कोई productive काम ही नहीं है। विराट युवा शक्ति की यह रोजगार विहीनता, उनकी उत्पादक क्षमता की बर्बादी कई तरह से देश के लिए संकट का सबब बन रही है। उन्हीं बेरोजगार नौजवानों के हाथ रोजगार की जगह त्रिशूल और तलवार पकड़ाकर फासीवादी अभियान परवान चढ़ रहा है। बहुचर्चित डेमोग्राफिक डिविडेंड, डेमोग्राफिक डिजास्टर में तब्दील होता जा रहा है।
मोदी सरकार की धुर कॉरपोरेटपरस्त नवउदारवादी अर्थनीति तथा नोटबन्दी, दोष पूर्ण GST एवं अनियोजित लॉक-डाउन जैसे विनाशकारी कदमों का ripple effect अब तक जारी है। संसद में सरकार द्वारा दिये गए बयान के अनुसार 2022-23 में 10 हजार से ऊपर MSME उद्यम बंद हो गए। इसके पिछले साल ऐसी ही 6000 इकाइयां बंद हो गई थीं।
मोदी जी Free Trade Agreements आदि के माध्यम से वैश्विक पूंजी के लिए जो लाल गलीचा बिछा रहे हैं, प्रो अरुण कुमार के अनुसार, “भारत अगर कुछ कम्पनियों को यहां फैक्ट्री लगाने के लिए आकर्षित कर भी ले, तब भी ऑटोमेशन के चलते modern manufacturing में अब पहले की तुलना में बहुत ही कम रोजगार सृजन हो रहा है।”
“भारत अगर बेरोजगारी के संकट को कम करना चाहता है, तो शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे रोजगारोन्मुख क्षेत्रों में भारी निवेश करना होगा ताकि बड़े पैमाने पर योग्य अध्यापक, नर्स, टेक्नीशियन पैदा हो सकें।”
मोदी जी तीसरे कार्यकाल में भारत को दुनियां की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की गारंटी दे रहे हैं और इसके नाम पर चाहते हैं कि जनता उन्हें 3rd term दे दे! अव्वलन तो भारत जहां भी पहुंचेगा, वह मोदी के कारण नहीं बल्कि उनकी विनाशकारी नीतियों के बावजूद होगा, वह मेहनतकश जनता के बल पर होगा।
और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि भारत जिस भी पायदान पर पहुंच जाए, जॉबलेस ग्रोथ के इस मॉडल में रोजगार कहां से पैदा होगा?
आज हालत यह है कि post-covid दौर में विकास दर में तुलनात्मक वृद्धि के बावजूद रोजगार में वृद्धि नहीं हो रही है। प्रो प्रभात पटनायक के अनुसार इसका एक ही अर्थ है कि भारत में नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का संकट ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जहां रोजगार सृजन ठप है, labour-intensive सेक्टर्स में रिकवरी नहीं हो रही है और ऊपर से तमाम क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर छंटनी चल रही है।
वे कहते हैं, “बेरोजगारी को अब भारत में नवउदारवादी पूंजीवाद में कुछ पैबंद लगाकर दूर नहीं किया जा सकता। इसके लिए एक नए सामाजिक-आर्थिक ढांचे की जरूरत है जो न सिर्फ श्रमिकों की एक रिजर्व वाहिनी के बिना काम करता है बल्कि जहां मेहनतकश जनता के पक्ष में राज्य के सचेत हस्तक्षेप की भी इजाजत होगी।”
जाहिर है रोजगार की लड़ाई सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के पुनर्विन्यास की लड़ाई भी है।
यह स्वागत योग्य है कि नौजवान अपने भविष्य के साथ ही हमारे राष्ट्र और लोकतन्त्र के भविष्य को लेकर भी सजग और सचेत हैं। वे इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि देश और लोकतन्त्र ही नहीं बचेगा तो युवाओं के अधिकार की सारी लड़ाई भी बेमानी हो जाएगी।
युवा-संसद के प्रपत्र में कहा गया है, “विकास का वादा करके सत्ता में आई मोदी सरकार, भाजपा-आरएसएस और मुख्यधारा की मीडिया ने मिलकर देश में नफरत का कारोबार शुरू कर दिया। कभी गौ-हत्या, कभी लव जिहाद, कभी कोरोना जिहाद, कभी मस्जिद के माइक के नाम पर तो कभी सीएए-एनआरसी के खिलाफ़ आन्दोलन कर रहे आन्दोलनकारियों के खिलाफ नफरत-अफवाह फैला कर देश के नौजवानों को गुमराह किया जा रहा है।”
जाहिर है आज चुनौती बहुत बड़ी है, जरूरत इस बात की है कि सारे छात्र-युवा संगठन एक मंच पर आयें। इस दृष्टि से किसान आंदोलन का अनुभव मार्गदर्शक हो सकता है। किसान आंदोलन ने वह अचूक मारक क्षमता जिसने अंततः महाबली को घुटनों पर आने के लिए मजबूर कर दिया, तभी अर्जित की जब सब एक मंच पर आए।
आज जब दांव पर पूरी युवा पीढ़ी का भविष्य लगा है, हमारे लोकतंत्र और संविधान का समूचा अस्तित्व ही खतरे में है, तब किसी सांगठनिक संकीर्णता, वैचारिक पूर्वाग्रह, political one-upmanship के लिए जगह नहीं बचती। सारे छात्र-युवा संगठनों/आंदोलनों की व्यापकतम सम्भव एकता आज वक्त की पुकार है।
युवाओं को अपने भविष्य के लिए भी लड़ना है और हमारे लोकतान्त्रिक गणराज्य को फासीवाद के शिकंजे से बचाने के लिए भी, क्योंकि एक लोकतान्त्रिक खुशहाल भारत में ही उनके सपने परवान चढ़ सकते हैं।
(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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