वक्फ बोर्ड पर गठित जेपीसी पूरी तरह से अक्षम और लोकतंत्र विरोधी साबित हुई    

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केंद्रीय मंत्री, किरेन रिजिजू वक्फ बोर्ड के चेयरमैन हैं। देश में और विशेषकर बहुसंख्यक हिंदू समुदाय में से 90% से भी अधिक लोगों को यही नहीं पता होगा कि वक्फ बोर्ड असल में भारत सरकार में, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के तहत एक वैधानिक निकाय है जिसकी स्थापना 1964 में की गई थी। 

उन्हें तो व्हाट्सअप मैसेज, भाजपा के प्रवक्ताओं और गोदी मीडिया की चीख-पुकार से मिलने वाले ज्ञान का ही सहारा रहता है, जो उनके मुस्लिमों से घृणा को बढ़ाने में ही मददगार साबित होता है। ऐसे में जब देश में वक्फ़ बोर्ड संसोधन, 2024 को लेकर सरकार, विपक्ष संसद में एक-दूसरे से बुरी तरह से उलझ रही है, और देश का गोदी मीडिया अपने हिसाब से इसके अर्थ और निहितार्थ निकाल रहा है, तो जरूरी हो जाता है कि इसके बारे में थोड़ी बुनियादी बातें जान ली जायें।    

वक्फ का शाब्दिक अर्थ है किसी व्यक्ति के द्वारा धार्मिक कार्यों के लिए किया जाने वाला दान। इस्लामी कानून के तहत वक्फ एक तरह की धार्मिक बंदोबस्ती है, जिसे दान करने के बाद वापसी का दावा नहीं किया जा सकता है। इसमें आमतौर पर धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए इमारत, भूमि या अन्य संपत्ति दान किये जाने की परंपरा है। इसमें धर्मार्थ के लिए बनाया गया ट्रस्ट दान की गई संपत्ति को रख सकता है।

भारत में वक्फ बोर्ड वक्फ अधिनियम, 1995 के तहत स्थापित एक वैधानिक निकाय है, जो इस्लामी कानून के तहत धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए समर्पित वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन एवं विनियमन के लिए जिम्मेदार है। ये बोर्ड मस्जिदों, स्कूलों और अस्पतालों सहित विभिन्न संपत्तियों के प्रशासन की देखरेख करते हैं और मुस्लिम समुदाय के कल्याण के लिए काम करते हैं।

वक्फ बोर्ड के तहत आने वाली संपत्तियों में से बहुत सी संपत्तियां मस्जिदों, मदरसों, कब्रिस्तानों और अनाथालयों के लिए इस्तेमाल की जाती हैं, लेकिन कई अभी भी खाली हैं या उन पर अतिक्रमण हो रखा है, और मामला अदालतों में चल रहा है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में वक्फ की परंपरा 12वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत काल से जारी है, जब मध्य एशिया से पहले-पहल मुस्लिम शासक भारत आए थे।

अब ये संपत्तियां वक्फ अधिनियम, 1995 के तहत शासित हैं, और इसके बाद से राज्य-स्तरीय बोर्डों के गठन को अनिवार्य बना दिया गया था। इन बोर्डों में राज्य सरकार के नामित व्यक्ति, मुस्लिम कानून निर्माता, राज्य बार काउंसिल के सदस्य, इस्लामी विद्वान और वक्फ संपत्तियों के प्रबंधक शामिल हैं।

और यहीं पर वक्फ बोर्ड के मालिकाने में जमा संपत्तियों को लेकर सरकार, संपत्तिशाली समूहों और सांप्रदायिक एजेंडा के सहारे अपनी राजनीति चलाने वाले राजनीतिक दलों की भूमिका सामने आ जाती है। सरकार के आकलन के मुताबिक, वक्फ बोर्ड देश के सबसे बड़े भूमिधारकों में से एक है। पूरे भारत में वक्फ संपत्तियां कम से कम 8,72,351 तक हैं, जो 9,40,000 एकड़ से भी अधिक हैं। इनका अनुमानित मूल्य लगभग 1.20 लाख करोड़ रूपये है।

पिछले वर्ष अगस्त माह के दौरान संसद में केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू के द्वारा वक्फ संसोधन विधेयक पेश किया गया था, जिस पर विपक्ष की ओर से जमकर विरोध करने के उपरांत सरकार ने इसे जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) के हवाले कर दिया था।

जेपीसी की अध्यक्षता की कमान संभाली बीजेपी के सांसद, जगदंबिका पाल ने, जो 2014 से पूर्व कांग्रेसी सांसद हुआ करते थे। लेकिन जेपीसी की बैठकों के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्षी सांसदों के बीच की तीखी बहसों, यहां तक कि घायल होने की रिपोर्टों से पता चलता है कि जगदंबिका पाल की अध्यक्षता में इस संसदीय समिति का कैसा हाल रहा। 

विपक्षी सांसदों की ओर से कहा जाता रहा कि जेपीसी की बैठकों में उनके प्रतिनिधित्व को पूरी तरह से नकारा जा रहा है। आखिरकार कल जब सरकार जेपीसी की रिपोर्ट के साथ राज्य सभा में पेश हुई, तो लगभग सभी विपक्षी दलों ने जेपीसी की भूमिका को लेकर कड़ा ऐतराज जताया।

आम आदमी पार्टी के राज्य सभा सांसद, संजय सिंह कहते हैं, “”इतिहास हमें माफ़ नहीं करेगा। आज ये वक़्फ़ बोर्ड की ज़मीन कब्ज़ा कर रहे हैं। कल मंदिर, गुरुद्वारे, चर्च की जमीनों पर कब्ज़ा करके अडानी सहित अन्य पूंजीपतियों के नाम कर देंगे।” 

शिवसेना (यूबीटी) नेता अरविंद सावंत ने वक्फ संशोधन विधेयक पर कहा, “मैं वक्फ के बारे में इतना ही कहूंगा कि जो संयुक्त संसदीय समिति बनाई गई थी, उसके तहत चर्चा की आवश्यकता थी”

एआईएमआईएम के प्रमुख ओवैसी दो टूक शब्दों में वक्फ संशोधन बिल को असंवैधानिक करार देते हुए कहते हैं कि, “ये वक्फ को बचाने के लिए नहीं बल्कि वक्फ को बर्बाद करने के लिए  लाया जा रहा है, मुसलमानों से उनके इबादतगाहों को छीनने के लिए लाया जा रहा है। संविधान की धारा 14 का यह सीधा उल्लंघन है।

इसमें गैर-मुस्लिमों को इसका सदस्य बनाने का प्रावधान किया गया है। जिलाधिकारी को अधिकार दिए गये हैं कि कोई संपत्ति वक्फ संपत्ति है या नहीं। इस बिल के तहत लिमिटेशन एक्ट को लागू किया जा रहा है, जो हिंदू, सिख और ईसाई धर्म की संपत्तियों के ऊपर लागू नहीं है। यह सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम समुदाय के खिलाफ वैचारिक जेपीसी में अपना पक्ष रखने के लिए ऐसे-ऐसे हितधारकों को बुलाया गया, जिन्हें भारतीय संविधान पर कोई भरोसा नहीं रहा है। ऐसे संगठनों को बुलाया गया है, जिनके सदस्य आतंकी घटनाओं में गिरफ्तार हुए हैं।”  

राज्य सभा में बिल पर बहस के दौरान कर्नाटक से कांग्रेस के राज्य सभा सांसद नासिर हुसैन ने कहा कि “वक्फ रिपोर्ट पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण और एकतरफा है। सभी विपक्षी दलों ने सामूहिक रूप से बिल का विरोध किया है। सरकार वक्फ संपतियों को छीनना चाहती है और अपने मित्रों को देना चाहती है”।

“ये रिपोर्ट पूरी तरह से बायस्ड है, एक तरफा है, इसमें पूरी प्रकिया का पालन नहीं  किया गया है। जेपीसी में गैर-हितधारकों को अपनी बात रखने के लिए बुलाया गया। सिर्फ उन्हीं ने इसका समर्थन किया है, बाकी 97-98% ने इसका विरोध किया है। हमें मिनट्स ऑफ़ मीटिंग की रिपोर्ट नहीं दी गई”।

“जेपीसी सदस्यों की जब हितधारकों के साथ बैठक हो गई तो इस पर सदस्यों के साथ कोई बातचीत नहीं की गई। जो प्रमुख विवाद के मुद्दे थे, जिसमें हाई कोर्ट और सर्वोच्च न्यायलय के फैसले शामिल थे, उन मुद्दों पर कोई बहस नहीं की गई। पूर्व वक्फ बोर्ड चेयरमैन, जिनके समय में इसका निर्माण किया गया था, उन तक को जेपीसी ने बातचीत के लिए नहीं बुलाया।” 

पत्रकारों के साथ अपनी बातचीत में भी नासिर हुसैन का कहना था कि वक्फ बिल में संशोधन कर सरकार भूमि को अपने मित्रों को मुहैया कराने के फिराक में है। अभी यह कानून वक्फ के खिलाफ बनाया जा रहा है, अगला कदम गुरुद्वारों, गिरिजाघरों और मन्दिरों के ऊपर लिया जाना है। ये जो जमीनें हैं ये बोर्ड्स से छीनना चाह रहे हैं, और इसे छीन कर किसे देने वाले हैं? अपने मित्रों को, ये आप सबको पता है।” 

यहां पर सवाल उठता है कि वक्फ बोर्ड संशोधन बिल के तहत मोदी सरकार मुस्लिम समुदाय के द्वारा अपने समुदाय के धर्मार्थ के लिए संपत्ति यदि दान करता है, तो उसमें मुस्लिम समुदाय से बाहर के लोगों को सदस्य बनाने की क्या तुक है? क्या हिंदू समुदाय सहित अन्य धर्मों के मामले में भी सरकार ऐसा ही फैसला लेने के बारे में सोचती है? यदि सोचती है तो उसे पहले यह सत्कर्म अपने ऊपर लागू करना चाहिए। 

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने भी इस मुद्दे को उठाते हुए संसद में सवाल किया था कि दूसरे समुदाय के लोगों को इसका सदस्य बनाने का क्या औचित्य है? डीएमके सांसद, पुदुक्कोट्टई एम.एम.अब्दुल्ला का भी कहना है, “जिनका वक्फ से कोई लेना देना नहीं उनके विचार रिपोर्ट में लिए गए। प्रक्रियाओं का ठीक से पालन नहीं किया गया। जेपीसी की सभी बैठकें जल्दबाजी में हुई और बैठक के सभी नियमों को दरकिनार किया गया।”

कांग्रेस अध्यक्ष, मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी जेपीसी में शामिल विपक्षी सांसदों के डिसेंट नोट्स को शामिल नहीं किये जाने पर कड़ा प्रतिवाद जताते हुए इसे लोकतंत्र विरोधी कदम बताया। उन्होंने जेपीसी की रिपोर्ट को फर्जी करार देते हुए रिपोर्ट को सदन में पेश किये जाने के लिए नाकाबिल ठहराया और डिसेंट नोट को शामिल कर पुनर्विचार के लिए सदन में पेश किये जाने की मांग की। 

सबसे रोचक तथ्य यह है कि राज्य सभा में केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू, जो कि अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री होने के साथ-साथ केंद्रीय वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष भी हैं, ने राज्य सभा में साफ़ शब्दों में कहा कि उन्होंने जेपीसी की रिपोर्ट के बारे में मालूमात हासिल की है, और इसके भीतर डिसेंट नोट्स को शामिल किया गया है। उन्होंने निराशा जताते हुए कहा कि यह बड़े दुःख की बात है कि जो विपक्षी सासंद जेपीसी के सदस्य हैं, वे इसके बावजूद भी इसके विरोध में बोल रहे हैं।  

केंद्रीय मंत्री के वक्तव्य के बाद लोकसभा गृह मंत्री, अमित शाह ने जब कहा कि विपक्ष के कुछ सदस्यों ने जेपीसी की रिपोर्ट पर आपत्ति जताते हुए कहा है कि उनकी आपत्तियों को रिपोर्ट में नहीं शामिल किया गया है। मेरी पार्टी की ओर से मेरी अपील है कि इनके मतैक्य को इसमें जोड़ा जाए। इसमें मेरी पार्टी को कोई आपत्ति नहीं है।

यह साफ़ दर्शाता है कि सत्ताधारी पार्टी को अच्छी तरह से पता है कि जेपीसी के कर्ता-धर्ता जगदंबिका पाल या मंत्री किरेन रिजिजू कौन सा रोल अदा कर रहे हैं, और कब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को हस्तक्षेप कर मामले को बेकाबू नहीं होने देना है। बाकी मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरती अभियान को बदस्तूर जारी रख बहुसंख्यक हिंदुओं को भ्रम में आगे भी रखा जा सकता है। 

लेकिन जिस प्रकार से विपक्षी दल इस मुद्दे पर एकजुट हुए हैं, उससे एनडीए के सहयोगी दलों में भी बैचेनी बढ़ सकती है। खासकर जेडीयू, टीडीपी और लोजपा के खेमे में इसका असर देखने को मिल सकता है। इसमें नितीश कुमार और चिराग पासवान के लिए आगामी विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समर्थक मतदाताओं से भारी विरोध का सामना करना पड़ सकता है।

खासकर नितीश कुमार, जिनके राजनीतिक भविष्य को लेकर तमाम तरह की अटकलें चल रही हैं, और माना जा रहा है कि महाराष्ट्र में जिस प्रकार से एकनाथ शिंदे को चुनाव से पहले तक मुख्यमंत्री के चेहरे के बतौर आगे किया गया था, कुछ उसी प्रकार का हाल चुनाव में जीत के बाद उनके साथ भी होना तय है। 

इसके अलावा, आंध्र प्रदेश में टीडीपी सरकार के लिए भी संकट बढ़ सकता है। बता दें कि पिछले वर्ष नवंबर माह में जमीयत उलेमा हिंद के प्रमुख मौलाना अरशद मदनी ने नई दिल्ली में इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में आयोजित प्रमुख मुस्लिम संस्था के ‘संविधान बचाओ सम्मेलन’ में एनडीए के दो सहयोगी दलों जेडीयू और तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) को खासतौर पर चेताया था। 

मदनी का कहना था “देश के लोगों ने भाजपा को हराया है। उन्होंने उनकी नीतियों को स्वीकार नहीं किया है। यह सरकार दो बैसाखियों पर टिकी है – इसमें एक हैं चंद्रबाबू नायडू और दूसरे हैं बिहार के नीतीश कुमार। मैंने उन्हें (नायडू) आमंत्रित किया था, लेकिन उन्होंने खुद न आकर पार्टी के वरिष्ठ नेता नवाब जान को भेज दिया। मैं इसे सकारात्मक रूप से देखता हूं क्योंकि वह यहां एकत्र लोगों की भावनाओं को व्यक्त करेंगे।”

लेकिन इसके बाद मदनी ने जो कहा, वह गौरतलब है। उन्होंने जोर देकर कहा था, “अगर मुसलमानों की भावनाओं को नज़रअंदाज़ कर वक्फ बिल पारित किया जाता है, तो यह बैसाखियों की भी उतनी ही ज़िम्मेदारी समझी जाएगी, जितनी की केंद्र सरकार में अन्य शक्तियों की होगी।”

यह भी कहा जा रहा है कि मोदी सरकार ने इस बार वक्फ बोर्ड बिल का इस्तेमाल, महाकुंभ हादसे और अमेरिका से अप्रवासी भारतीयों को जिस अमानवीय तरीके से सैन्य विमानों से भारत में वापस भेजा है, से देश का ध्यान हटाने में इस्तेमाल किया है। 

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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