संघ में इजाज़त: न्योता या जाल !

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इन दिनों अब मुसलमानों पर हमला उमड़ रहा है; आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा “क़ानून बनाकर संपत्ति हड़पो” घोटाला वक़्फ़ कब्ज़ा कांड करने के साथ ही देश के इस सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाकर बयान दागे जा रहे हैं। यह बात अलग है कि वे शब्दों में कुछ भी हों, भावों में और पंक्तियों के बीच के अर्थ में एक समान हैं। इसी तरह का एक बयान ख़ुद संघ प्रमुख का है, जिसमें उन्होंने कहा है कि “मुसलमान भी संघ में शामिल हो सकते हैं।”

इसी के साथ यह दावा भी किया है कि “संघ किसी की पूजा-पद्धति या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता।” वे यहीं तक नहीं रुके, इससे आगे बढ़ते हुए यह भी बोले कि “संघ केवल हिंदुओं के लिए नहीं है। संघ का दरवाज़ा हर जाति, संप्रदाय और धर्म के लिए खुला है। चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो, सिख हो या ईसाई-हर कोई इसमें शामिल हो सकता है।”

संघ मतलब RSS के सरसंघचालक मोहन भागवत वाराणसी में यह एकदम नई पेशकश तब कर रहे थे, जब होली और जुमे को लेकर उसी के कुनबे द्वारा घमासान मचाया जा चुका था। यह बात वे उस उत्तर प्रदेश में कह रहे थे, जिसमें ईद की नमाज़ को कहाँ, कैसे, कब पढ़ना है, की सख़्त हिदायतें जारी की जा रही थीं। खुले मैदानों की बात अलग रही, घर की छतों तक पर नमाज़ अदा करना प्रतिबंधित किया जा रहा था। यह बात वे तब कह रहे थे, जब उनके ही मंत्री, संत्री, मुख्यमंत्री यहाँ तक कि ख़ुद प्रधानमंत्री मुसलमानों के ख़िलाफ़ उन्माद भड़काने में पूरे प्राणपण से जुटे हुए थे।

हालाँकि इस ऐलान के साथ उन्होंने ‘शर्तें लागू’ का किंतु-परंतु भी जोड़ा है। इन शर्तों में “भारत माता की जय” का नारा स्वीकार करना और भगवा झंडे का सम्मान करना तो है ही, एक अतिरिक्त चेतावनी भी नत्थी कर दी है कि “जो ख़ुद को औरंगज़ेब का वारिस समझते हैं, उनके लिए संघ में कोई जगह नहीं है।”

और जैसा कि इस तरह के बयान देने के पीछे का मक़सद होता है, इस बार भी था, वही हुआ; कईयों ने यह मानना शुरू कर दिया कि बताइए, बेचारे को यूँ ही बदनाम करते रहते हैं, देखिए संघ तो मुसलमानों के लिए भी बाँहें खोले खड़ा है। भले ही हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़ा हो, लेकिन वह ऐसे मुस्लिमों को भी स्वीकार करने को तैयार है, जो भारत की संस्कृति को अपनाते हैं और राष्ट्रवाद में विश्वास रखते हैं।

क्या सच में बात इतनी ही सीधी-सादी और सरल है? नहीं!! यह औरंगज़ेब के नाम पर योजनाबद्ध तरीक़े से सुलगाई गई ध्रुवीकरण की भट्टी में ख़ुद श्रीमुख से सूखी लकड़ियाँ झोंके जाने की कोशिश है। क्या भारत में ऐसा कोई मुसलमान है, जिसने अपने आपको औरंगज़ेब का वारिस बताया हो? कोई नहीं। अविभाजित भारत को भी जोड़ लें, तो ऐसा कोई है, जिसने औरंगज़ेब को अपना पुरखा या किसी भी तरह का नायक बताया हो? हाँ, वंशावली के आधार पर देखा जाए, तो औरंगज़ेब की एक सचमुच की वारिस और निकटतम जैविक रिश्तेदार ज़रूर हैं, और वे राजस्थान में भाजपा सरकार में उपमुख्यमंत्री पद की शोभा अवश्य बढ़ा रही हैं।

बहरहाल, बयानों की शिगूफ़ेबाज़ी को अलग रखते हुए असल मुद्दे पर आते हैं कि जैसा कि भागवत साहब ने फ़रमाया है, क्या वैसा संघ में हो सकता है? क्या कोई मुसलमान या ग़ैर-हिंदू RSS का सदस्य बन सकता है? बिल्कुल नहीं!! पहली बात तो यह है कि ख़ुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कहना है कि उसकी कोई औपचारिक सदस्यता नहीं होती। जो लोग RSS की शाखाओं में भाग लेते हैं, उन्हें स्वयंसेवक कहा जाता है। अब स्वयंसेवक कौन बन सकता है?

संघ के मुताबिक़, कोई भी “हिंदू पुरुष” स्वयंसेवक बन सकता है। यहाँ “हिंदू पुरुष” पर ग़ौर फ़रमाने की ज़रूरत है, क्योंकि यह वह संगठन है, जो दावा तो अखिल ब्रह्मांड के हिंदुओं को एकजुट और संगठित करने का करता है, लेकिन जिसमें महिलाएँ-हिंदू महिलाएँ भी-सदस्य नहीं बन सकतीं।

इसकी वेबसाइट के FAQ यानी ‘फ़्रीक्वेंटली आस्क्ड क्वेश्चन्स’ मतलब ‘अक्सर पूछे जाने वाले सवालों’ के अध्याय में लिखा गया है कि “उसकी स्थापना हिंदू समाज को संगठित करने के लिए की गई थी और व्यावहारिक सीमाओं को देखते हुए संघ में महिलाओं को सदस्यता नहीं दी जाती, सिर्फ़ हिंदू पुरुष ही इसमें शामिल हो सकते हैं, इसके स्वयंसेवक बन सकते हैं।” सौवें साल में भी संघ महिलाओं के प्रवेश के बारे में कोई पुनर्विचार करने को तैयार नहीं है। बस इतना भर कहा गया है कि “अपने शताब्दी वर्ष में महिला समन्वय कार्यक्रमों के ज़रिए वो भारतीय चिंतन और सामाजिक परिवर्तन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को बढ़ाना चाहता है।”

बहरहाल, फ़िलहाल चूँकि भागवत साहब ने अपने संघ में हिंदू महिलाओं की नहीं, ‘म्लेच्छ’ मुसलमानों के दाख़िले की बात की है, इसलिए उसी पर संघ की धारणा और नीति पर नज़र डालना ठीक होगा। मुसलमानों के बारे में संघ की सोच की झलक इसके दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर की किताब “बंच ऑफ़ थॉट्स” में मिलती है।

गोलवलकर ने लिखा था, “हर कोई जानता है कि यहाँ-भारत में-केवल मुट्ठी भर मुसलमान ही दुश्मन और आक्रमणकारी के रूप में आए थे। इसी तरह यहाँ केवल कुछ विदेशी ईसाई मिशनरी ही आए। अब मुसलमानों और ईसाइयों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है।”

इसी रौ में वे आगे लिखते हैं कि “वे मछलियों की तरह सिर्फ़ गुणन से नहीं बढ़े, उन्होंने स्थानीय आबादी का धर्मांतरण किया। हम अपने पूर्वजों का पता एक ही स्रोत से लगा सकते हैं, जहाँ से एक हिस्सा हिंदू धर्म से अलग होकर मुसलमान बन गया और दूसरा ईसाई बन गया। बाक़ी लोगों का धर्मांतरण नहीं हो सका और वे हिंदू ही बने रहे।” यही वह किताब है, जिसमें गोलवलकर-जिन्हें संघ अपना परम पूज्य गुरु मानता है-ने मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को “राष्ट्र का आंतरिक शत्रु” बताया था।

सनद रहे कि वर्ष 2018 में जब भागवत से गोलवलकर के उनकी किताब “बंच ऑफ़ थॉट्स” में मुसलमानों को शत्रु कहे जाने के बारे में पूछा गया था, तो उन्होंने कहा था कि “बातें जो बोली जाती हैं, वह स्थिति विशेष, प्रसंग विशेष के संबंध में बोली जाती हैं, वह शाश्वत नहीं रहतीं।”

अब गोलवलकर के विचारों के संकलन के नए संस्करण में आंतरिक शत्रु वाला प्रसंग हटा दिया गया है। कहने की ज़रूरत नहीं कि सिर्फ़ किताब में से ही हटाया गया है, एजेंडे में वह पहले से भी कहीं अधिक प्राथमिकता पर ले आया गया है। क्या इस सबसे भागवत जी ने किनारा कर लिया है? अब उनकी बाँहें और उनके संघ के दरवाज़े मुसलमानों और बाक़ी ग़ैर-हिंदुओं के लिए खुल गए हैं? क्योंकि अगर ऐसा है, तो फिर इसे अपने संस्थापक के कहे से भी पल्ला झाड़ना होगा। अपने संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की स्वयं RSS द्वारा प्रकाशित आधिकारिक जीवनी में से एक में यह साफ़ किया गया है कि हेडगेवार स्वतंत्रता संघर्ष से क्यों अलग हुए।

जीवनी बताती है कि “यह साफ़ है कि गांधीजी हिंदू-मुस्लिम एकता को हमेशा केंद्र में रखकर ही काम करते थे…लेकिन डॉक्टरजी को इस बात में ख़तरा दिखाई दिया। दरअसल, वे हिंदू-मुस्लिम एकता के नए नारे को पसंद तक नहीं करते थे।”

1937 में महाराष्ट्र के अकोला में सीपी एंड बरार (अब महाराष्ट्र) की हिंदू महासभा के सावरकर की अध्यक्षता में हुए प्रांतीय अधिवेशन से लौटने पर, कांग्रेस छोड़ने की वजह पूछे जाने पर हेडगेवार का जवाब था, “क्योंकि कांग्रेस हिंदू-मुस्लिम एकता में विश्वास करती है।” उनका मुस्लिम विरोध किस ऊँचाई का था, यह संघ के शुरुआती दिनों में उनके स्वयं के व्यवहार से समझ आ जाता है। उनकी एक जीवनी में बताया गया है कि मस्जिदों के आगे बैंड बाजा बजाने, शोर मचाने की कार्यविधि उसी की खोज थी, जिसे संघ आज तक आज़मा रहा है। जब कभी-कभी बैंड (संगीत) बजाने वाली टोली मस्जिद के सामने बैंड बजाने में हिचकिचाती, तो हेडगेवार “ख़ुद ड्रम ले लेते और शांतिप्रिय हिंदुओं को उत्तेजित कर उनकी मर्दानगी को ललकारते थे।”

गौरतलब है कि 1926 तक, मस्जिदों के बाहर ढोल-बाजे बजाना सांप्रदायिक दंगों के उकसाने की मुख्य वजह था। हेडगेवार ने हिंदुओं में आक्रामक सांप्रदायिकता उकसाने में निजी तौर पर भूमिका अदा की। इस तथ्य को उनके घनिष्ठ और RSS के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे नागपुर की इस्पात मिल के मालिक अन्नाजी वैद का कथन पुष्ट करता है। उन्होंने बताया है: “सन् 1926 में कई जगह हिंदू-मुसलमान दंगे होना प्रारंभ हुआ था। इसलिए हम लोगों ने तय किया कि हर एक मस्जिद के सामने से जुलूस निकलते समय ढोल बजने ही चाहिए। एक बार शुक्रवार के दिन जब वाद्य बजाने वाले एक मस्जिद के दरवाज़े पर पहुँचे, तो संगीत बजाना बंद कर दिया। तब डॉक्टरजी ने स्वयं ढोल खींचकर अपने गले में बाँधकर बजाया। उसके बाद ही बाजा बजना प्रारंभ हुआ।”

क्या भागवत साहब ने हेडगेवार के इन सब किए-धरे को अनकिया करने का मन बना लिया है और सचमुच में RSS को मुसलमानों और बाक़ी धर्मों के मानने वालों के लिए खोलने का फ़ैसला कर लिया है? यदि हाँ, तो फिर वे अपने उस संविधान का क्या करेंगे, जिसमें कुछ और ही दर्ज किया हुआ है। गांधी हत्याकांड में प्रतिबंधित होने के बाद भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा रखते हुए और गोपनीयता से दूर रहते हुए और हिंसा से दूर रहते हुए राष्ट्रीय ध्वज को मान्यता देते हुए एक लोकतांत्रिक, सांस्कृतिक संगठन के रूप में कार्य करने की अनुमति हासिल करने के लिए बनाए गए संघ के संविधान में क्या इसकी गुंजाइश है?

संघ के इस संविधान की शुरुआत ही “हिंदू समाज में अलग-अलग पंथों, आस्थाओं, जाति और नस्लों, राजनीतिक, आर्थिक, भाषाई, प्रांतीय फ़र्कों को समाप्त कर हिंदू समाज का सर्वोन्मुखी उत्थान” करने के वाक्य से होती है। संघ के साथ जुड़ने का एकमात्र तरीक़ा उसका स्वयंसेवक बनना है और संविधान में स्वयंसेवक बनने के लिए ली जाने वाली शपथ में दर्ज है कि “सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपने पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति तथा हिंदू समाज की अभिवृद्धि कर भारत वर्ष की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ…”

इस संविधान का पहला लक्ष्य ही “हिंदू समाज के विविध समूहों को साथ लाना, उन्हें धर्म और संस्कृति के आधार पर पुनर्जनन और पुन: यौवन प्रदान करने” का है। क्या मुसलमानों, सिखों और बाक़ियों को शामिल करने के लिए भागवत अपने संघ का संविधान बदलेंगे?

वे कुछ नहीं बदलने वाले। अपने इस तरह के दिखावटी बयानों से भी वे अपने एजेंडे को ही आगे बढ़ाने का जाल बिछा रहे होते हैं। ऐसे भ्रामक, निराधार और कभी भी अमल में न लाए जा सकने वाले बयानों के ज़रिए जहाँ जनता के एक हिस्से में वे अपने सुधरे, सुथरे और भले रूप की मरीचिका का आभास देना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय के बारे ऐसा अहसास दिलाना चाहते हैं, जैसे वे इतनी बड़ी पेशकश को भी ठुकराकर अपनी संकीर्णता का परिचय दे रहे हों।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)

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