देवरिया। यूपी में विधान सभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। सत्ता से लेकर विपक्ष तक चुनावी विसात बिछाने में लगे हैं। ऐसे में पूर्वांचल की फिजाएं इस बार क्या कह रही हैं। यह तो चुनावी प्रचार के शबाब पर पहुंचने के बाद ही तय हो पायेगा। लेकिन इसके पूर्व यह चर्चा एक बार फिर शुरू हो गई है कि पूर्वांचल की सीटों पर जिसका सबसे अधिक कब्जा होगा,सत्ता की कमान भी उसके हाथ ही आएगी।
पूर्वांचल की 164 सीटों पर सबकी नजर
यूपी की सियासत से वाकिफ लोगों का मानना है कि पूर्वांचल की सीटों पर जिसकी भी बड़ी जीत मिलती है,उसे ही राज्य की सत्ता हासिल होती है। पूर्वांचल में यूपी की 164 सीटें अर्थात 33 फीसदी विधानसभा सीटें आती हैं। पिछले तीन विधान सभा चुनावों की तस्वीरों का आकलन करें तो यह कयास सही साबित होता दिख रहा है। 2017 और उससे पहले राममंदिर लहर में 1991 में पूर्वांचल बीजेपी के साथ खड़ा दिखाई दिया था। अब बीजेपी उन्हीं समीकरणों को वापस बहाल करना चाहती है। गौरतलब है कि 2017 विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल और आसपास के जिलों की कुल 164 सीटों में से बीजेपी को 115 पर फतह मिली थी। सपा को 17, बीएसपी को 14 और कांग्रेस को मात्र 2 सीटें मिली थीं। इसी तरह 2012 चुनाव में सपा को इस क्षेत्र में 102 सीटें, बीजेपी को 17, बीएसपी को 22 और कांग्रेस को 15 सीटें मिली थीं। 2007 में जब मायावती यूपी में पूर्ण बहुमत के साथ आईं तो पूर्वांचल में उनकी पार्टी 85 सीटें जीतने में कामयाब रही। सपा को 48, बीजेपी को 13, कांग्रेस को 9 और अन्य को 4 सीटें मिली थीं।
पूर्वांचल में आते हैं यूपी के ये जिले
उत्तर प्रदेश के वाराणसी, जौनपुर, भदोही, मिर्जापुर, सोनभद्र, प्रयागराज, गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, महाराजगंज, संतकबीरनगर, बस्ती, आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर, बलिया, सिद्धार्थनगर, चंदौली, अयोध्या, गोंडा, बलरामपुर, श्रावस्ती, बहराइच सुल्तानपुर, अमेठी, प्रतापगढ़, कौशांबी और अंबेडकरनगर पूर्वांचल के क्षेत्र में आते हैं। इन सभी दलों की विशेष नजर है। जिसमें भाजपा व सपा में आगे बढ़ने की होड़ लगी है। जबकि बसपा व कांग्रेस पार्टी भी अपनी तैयारी में पीछे नहीं है।

रोजगार बनेगा मुद्दा या जाति व धर्म की राजनीति रहेगी प्रभावी
यूपी में पूर्वांचल का नाम आते ही यहां के पिछड़ेपन की चर्चा होने लगती है। कुशीनगर के मुसहरों की भूख से लड़ती जिंदगी तो चीनी का कटोरा के रूप में कभी सुमार रहे देवरिया जिले की बंद सूगर मिलों की स्थिति की बात तो होगी ही। उधर सोनभद्र व भदोही का उजड़ चुका कालीन उद्योग तो इसके आसपास के जिले समेत गोरखपुर तक फैले हथकरघा व हैंडलूम की खो चुकी पहचान की। ऐसे में बेरोजगारी व भुखमरी जिस इलाके के लोगों के लिए बड़ा सवाल है,वहां एक बार फिर धार्मिक उन्माद की फसलें तैयार कर अपने पक्ष में सत्ता की खेती करने की तैयारी शुरू हो गई है। अयोध्या को भगवान राम की जन्मभूमि से अधिक धार्मिक उन्माद की संस्कृति को हवा देने के रूप में लिया जा रहा है। काशी के विकास की बात करने वाली भाजपा को हमेशा इस बात का डर सताता रहा है कि सैकड़ों मंदिरों को ध्वस्त करने के बाद तैयार की गई यह तस्वीर उसके लिए उलटा न पड़ जाए। ऐसे में इससे आगे बढ़ते हुए एक कदम आगे मथुरा की चर्चा कर पूरे माहौल को धार्मिक उन्माद के रूप में बदलने की बार-बार कोशिश होने लग रही है। जिससे की लोगों के जेहन से रोजगार व भुखमरी का सवाल गायब हो जाए।
हालांकि इधर कुछ महीनों से रोजगार का सवाल एक बड़ा मुद्दा बनते दिखा था। प्रदेश के विभिन्न छात्र व युवा संगठनों के संयुक्त प्रयास से जगह-जगह प्रदर्शन व लखनऊ में घेराव के आयोजन हुए। जिस पर कई बार पुलिस की बर्बरता ने युवाओं को आक्रोशित किया। उधर शिक्षक समेत विभिन्न विभागों में भर्ती को लेकर मानकों की अनदेखी का आरोप लगाते हुए अभ्यर्थियों ने विभिन्न रूपों में अपनी नाराजगी का एहसास भी कराया।

दूसरी तरफ टीईटी समेत विभिन्न परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक होने से सरकार की भी खूब किरकिरी हुई। लेकिन यह सब कोशिश मतों के ध्रुवीकरण के रूप में कितना कारगर साबित होगा,यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा।
जातिगत गणित को पक्ष में करने में जुटा है भाजपा व सपा का नेतृत्व
पिछले चुनाव में भाजपा को मिली काफी बढ़त के पीछे हाल यह रहा कि हिंदू मतों के ध्रुविकरण में यह सफल रही थी। इस बार वह तस्वीर बनती नजर नहीं आ रही है। पूर्वांचल की अधिकांश सीटों पर पिछड़ा व अनुसूचित जाति ही हमेशा निर्णायक रहा है। पिछले चुनाव में राजभर जाति को सुभासपा के झंडे तले एक करने में भाजपा को बड़ी सफलता मिली थी। जिसके अगुवा ओमप्रकाश राजभर इस बार सपा के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। यूपी में एक आकलन के मुताबिक राजभर की संख्या 3 फीसदी है। जिसमें पूर्वांचल की सभी सीटों पर यह संख्या 12 से 22 फीसदी तक है। इसके अलावा संजय चैहान भी इस बार सपा के साथ हैं। चैहान समाज पूर्वांचल की 10 से ज्यादा सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं। ऐसे में सपा के अखिलेश यादव के साथ मुस्लिम व यादव के बाद अगर राजभर व चौहान साथ हुए तो भाजपा सत्ता से काफी दूर चली जाएगी। ये राजनीतिक कयास कितना कारगर होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
(जितेंद्र उपाध्याय स्वतंत्र पत्रकार हैं और आजकल देवरिया में रहते हैं।)