संविधान विरोधी गीता प्रेस के शताब्दी समारोह में प्रधानमंत्री

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज गीता प्रेस के शताब्दी वर्ष के समापन समारोह मे मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए। इस अवसर पर उन्होंने ‘कल्याण’ पत्रिका के शिव पुराण विशेषांक का विमोचन भी किया। एक साल पहले गीता प्रेस के शताब्दी वर्ष के समारोहों की शुरुआत हुई थी और उस समारोह का उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्र्पति रामनाथ कोविंद ने किया था। अभी कुछ दिनों पहले ही गीता प्रेस, गोरखपुर को गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा भी की गयी थी। गीता प्रेस की स्थापना सौ साल पहले 1923 में राजस्थान के मारवाड़ी व्यवसायी जयदयाल गोयंदका और घनश्यामदास जालान ने की थी और तीन साल बाद 1926 में गीता प्रेस ने मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ का प्रकाशन आरंभ किया था जिसके संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार थे।

गीता प्रेस अब तक 15 भाषाओं में 1800 से अधिक शीर्षकों वाली 93 करोड़ पुस्तकें प्रकाशित कर चुका है। पिछले एक साल में लगभग ढाई करोड़ पुस्तकें जिनकी कीमत 111 करोड़ रुपये हैं, वो बेच चुके हैं। कहने को यह हिंदू धर्म से संबंधित पुस्तकें प्रकाशित करने वाला प्रकाशन संस्थान है लेकिन उन कथित धार्मिक पुस्तकों में क्या लिखा गया है और पिछले सौ साल में उन्होंने हिंदू समाज के बीच किस तरह के विचारों का प्रचार-प्रसार किया है, उसे जानना और समझना जरूरी है।

आमतौर पर इस बात की बहुत प्रशंसा की जाती है कि यह गीता प्रेस ही है जिसने हिंदू धार्मिक ग्रंथों को बहुत सस्ते दामों में स्तरीय अनुवाद और स्तरीय प्रकाशन के द्वारा उपलब्ध कराया। लेकिन इस उपलब्ध कराने के पीछे उनका मकसद क्या था, क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए। गीता प्रेस केवल प्रकाशन संस्थान नहीं है। पत्रिका और धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करना उनके बहुत से उद्देश्यों में से एक है। सदैव से उसका मुख्य उद्देश्य सनातन धर्म के अनुसार समाज को ढालने का अभियान चलाना रहा है। और इस अभियान में जो साहित्य उनके लिए उपयोगी था, उनके प्रकाशन को उन्होंने प्राथमिकता दी।

उन्होंने चारों वेदों में से एक को भी प्रकाशित नहीं किया। उन्होंने किसी निर्गुण भक्त कवि की रचनाएं पुस्तक रूप में प्रकाशित नहीं की। उन्होंने जैन, बौद्ध और सिख साहित्य को भी प्रकाशित नहीं किया। यहां तक कि गीता प्रेस ने महात्मा गांधी की गीता पर लिखी टीका भी छापने से इन्कार कर दिया था। कारण स्पष्ट है कि उन्होंने सनातन धर्म के नाम पर हिंदू धर्म के उन ग्रंथों को ही प्रकाशित करने और उन्हें घर-घर पहुंचाने की कोशिश की जो हिंदू धर्म की उनकी व्याख्या को पुष्ट करती हों। जिन्हें पढ़ा और समझा नहीं जाता बल्कि धार्मिक कर्मकांड के साथ जिनका पाठ किया जाता है। यही नहीं उन्होंने छोटी-छोटी पुस्तकें लिखवाकर तैयार करवायी जिनके द्वारा उन्होंने उन विचारों का प्रचार किया जो गीता प्रेस का मुख्य मकसद था। ये किताबें जो 10-15 रुपये कीमत की हैं लाखों की संख्या में हर हिंदू के घर में पहुंचायी जाती रही हैं।

सनातन धर्म के नाम पर गीता प्रेस दरअसल उन प्रतिगामी विचारों का प्रचारक है जो हमारे संविधान के बिल्कुल विपरीत है। गीता प्रेस वर्णव्यवस्था का समर्थन करता है, छुआछूत का समर्थन करता है। दलितों के मंदिर प्रवेश का विरोध करता है। लड़कियों के स्कूल भेजने का विरोध करता है। सहशिक्षा का विरोध करता है। बाल विवाह का समर्थन करता है। विधवा विवाह का विरोध करता है और सती प्रथा को महिमामंडित करता है। यही नहीं गीता प्रेस स्त्रियों के नौकरी करने का विरोधी है, उनके सार्वजनिक जीवन में कदम रखने का विरोधी है। वह पर्दा प्रथा का समर्थक है।

गीता प्रेस मनु स्मृति की इस बात में यकीन करता है कि स्त्री को बचपन में अपने पिता के अधीन रहना चाहिए। युवावस्था में पति के अधीन और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि पिछले दो शताब्दियों में जो समाज सुधार के आंदोलन चले थे और जिसके कारण हिंदू समाज में कुछ प्रगतिशील बदलाव आये थे और कुछ कानून बने थे और जिसकी अभिव्यक्ति संविधान में भी दिखायी देती है, गीता प्रेस उन सबका विरोध करता है। यहां तक कि संविधान की बहुत सी ऐसी बातें जिनका विरोध करना अपराध है और जिस पर सजा हो सकती है, गीता प्रेस को उनका प्रचार-प्रसार करने की भी छूट मिली हुई है।

स्पष्ट है संविधान में विश्वास करने वाला कोई भी व्यक्ति और जिसने संविधान की शपथ ली है और उसके प्रति निष्ठावान रहने और उसके अनुसार कार्य करने की शपथ ली है, वह किसी ऐसी संस्थान में मुख्य अतिथि बनकर कैसे जा सकता है जो संविधान बनने के समय से आज तक संविधान का विरोध करता रहा है। लेकिन इसमें आश्चर्य क्या। यह कैसे भूला जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसके प्रचारक हमारे प्रधानमंत्री रह चुके हैं, वह भी तो गीता प्रेस की तरह संविधान का विरोध करता रहा है।

जब संविधान स्वीकार किया जा रहा था, तब आरएसएस ने कहा था कि जब हमारे पास मनुस्मृति है तो हमें संविधान की क्या जरूरत? क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री की आस्था भी मनुस्मृति और गीता प्रेस द्वारा प्रचारित उन सब प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी मूल्यों में है, न कि संविधान में जिसकी भले ही उन्होंने शपथ ली हो। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि हमारे पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जो स्वयं दलित समाज से हैं, उस संस्थान के शताब्दी समारोह का उद्घाटन करने के लिए तैयार हो गये जो आज भी छुआछूत में यकीन करता है और दलितों के मंदिर प्रवेश का ही विरोधी नहीं है बल्कि जो उन्हें किसी भी तरह की बराबरी का हक देने का भी विरोधी है।

यह सही है कि ‘कल्याण’ के लंबे समय तक संपादक रहे हनुमान प्रसाद पोद्दार किसी समय महात्मा गांधी के काफी नजदीक थे और आत्मीय संबंध था। लेकिन जब गांधीजी दलितों के मंदिर प्रवेश करने का समर्थन करने लगे, छुआछूत का विरोध करने लगे यहां तक कि अंतर्जातीय विवाह का भी समर्थन करने लगे तो उनके बीच न केवल दूरी बढ़ती गयी बल्कि हनुमान प्रसाद पोद्दार उनका ‘कल्याण’ के पृष्ठों पर भी और सार्वजनिक रूप से भी गांधी का विरोध करने लगे।

यही नहीं यहां इस तथ्य को भी याद दिलाने की जरूरत है कि हनुमान प्रसाद पोद्दार उस हिंदू महासभा के भी सदस्य थे जिसके सदस्यों ने महात्मा गांधी की हत्या की थी। हिंदू महासभा की सदस्यता के कारण ही महात्मा गांधी की हत्या के बाद हनुमान प्रसाद पोद्दार को कुछ दिनों के लिए कैद कर लिया गया था। गीता प्रेस की निकटता आरएसएस से भी कभी कम नहीं रही। यह भी कहा जाता है कि 1949 में बाबरी मस्जिद में गुप्त रूप से मूर्ति रखने की साजिश में हनुमान प्रसाद पोद्दार भी शामिल थे। आरएसएस आज भी गीता प्रेस की किताबों का प्रचार भी करते हैं और बेचते भी हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपनी विचारधारा जो भी हो, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री होने के कारण और संविधान की शपथ लेने के कारण एक ऐसी संस्थान के शताब्दी समारोह में वे मुख्य अतिथि बनकर कैसे जा सकते हैं, जिसका अभियान ही संविधान की मूलभूत संकल्पनाओं और अधिकारों का विरोध करना रहा है। जो स्वतंत्रता, समानता और समाजिक न्याय में यकीन ही नहीं करता, जिसके लिए आज भी वर्णव्यवस्था आधारित पितृसत्तात्मक समाज ही सत्य है और जो स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों को गुलाम बनाये रखने का प्रचार करता है।

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(जवरीमल्ल पारख स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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