भारत छोड़ो आंदोलनः गांधी नहीं, अंग्रेजों ने तय कर दी थी तारीख

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आज की तारीख अर्थात 9 अगस्त को गाँधी जी ने अंग्रेजी साम्राज्य से कहा था कि भारत छोड़ो। यह तारीख वर्ष 1942 की है। यद्यपि गाँधी जी ने उनसे भारत छोड़ने की कोई तारीख तय नहीं की थी परंतु उनसे यह अपेक्षा की थी कि वे शीघ्र भारत को आज़ाद कर दें। 9 अगस्त भारत छोड़ो आंदोलन की तिथि ब्रिटिश शासन ने लगभग स्वयं तय कर दी थी। 7 और 8 अगस्त 1942 को बंबई में आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन आयोजित किया गया था। 

दो दिन की लंबी बहस के बाद यह तय हुआ था कि गाँधी ब्रिटिश वायसराय को एक पत्र लिखेंगे जिसमें उनसे कहा जायेगा कि वे भारत को आज़ाद करने का इरादा साफ कर दें। यह पत्र उन्होंने अपनी अंग्रेज़ शिष्या मीरा के हाथ भेजने का तय किया। परंतु वायसराय ने मीरा से मिलने का समय नहीं दिया और उलटे 9 अगस्त की प्रातः बंबई में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के जितने सदस्य थे प्रातःकाल से उनकी गिरफ्तारी प्रारंभ कर दी। गाँधी जी कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य नहीं थे परंतु उन्हें भी गिरफ्तार किया गया।

कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेता जिनमें जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जो उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे, सरोजनी नायडू, आदि को गिरफ्तार करके बंबई की सबसे बड़ी स्टेशन विक्टोरिया टर्मिनस ले जाया गया। वहाँ एक पैसेंजर गाड़ी खड़ी थी। इस गाड़ी में सभी को बैठा दिया गया और उसे पुणे की तरफ रवाना कर दिया गया।

नेताओं की गिरफ्तारी की खबर जंगल में आग की तरह फैल गई और रास्ते में जितने भी स्टेशन आये लोगों की भारी भीड़ गुस्से में खड़ी मिली। भीड़ के लोग अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ नारे लगा रहे थे। गाँधी जिन्दाबाद, नेहरू जिन्दाबाद, पटेल जिन्दाबाद, मौलाना जिन्दाबाद आदि नारे लगा रहे थे। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस लाठी और अश्रु गैस आदि का उपयोग कर रही थी। इसमें कई लोगों को चोट लगी। नेहरू जी यह बात सहन नहीं कर सके और ट्रेन से उतरकर पुलिस से मुठभेड़ लेने लगे।

यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कांग्रेस के भीतर अंग्रेजों को भारत छोड़ने को कब कहा जाए, इस पर मतभेद था। उस समय द्वितीय महायुद्ध प्रारंभ हो चुका था। इस महायुद्ध में एक तरफ ब्रिटेन और अन्य वो देश थे जहाँ प्रजातंत्र था और उनके विरोध में वे देश थे जिनके राज्यों में तानाशाही थी और जो संकुचित विचारधारा में विश्वास करते थे। 

इनमें सबसे प्रमुख था हिटलर, जो जर्मनी का तानाशाह था। जिसकी राजनीति का आधार यहूदियों के प्रति घृणा थी। उसने घोषित किया था कि वह दुनिया से यहूदियों का नामोनिशान मिटा देगा। दूसरे थे इटली के मुसोलिनी। इसके अतिरिक्त उन दोनों से सहयोग किया एशिया के राष्ट्र जापान ने। नेहरू, मौलाना आज़ाद आदि यह मत रखते थे कि ऐसे मौके पर हमको ब्रिटेन के लिए कोई मुश्किल पैदा नहीं करनी चाहिए और इसलिए फिलहाल अंग्रेजों को भारत छोड़ने को न कहा जाए।

यह सोच भी थी कि यदि जर्मनी, इटली और जापान द्वितीय महायुद्ध में विजयी हो जाते हैं तो वे सारी दुनिया में अपना साम्राज्य स्थापित करेंगे। आज़ादी के बाद जब नेहरू जी बर्मा गये तो वहां के प्रधानमंत्री ने नेहरू जी से कहा कि यदि युद्ध में जापान विजयी हो जाता तो क्या वह हमें आजाद रहने देता?

गाँधी जी की राय थी कि इसी मौके पर अंग्रजों से आज़ादी छीनी जा सकती है। वे यह भी कहते थे कि यदि हमें आज़ाद कर दिया जायेगा तो हमारे देश का एक-एक बच्चा ब्रिटेन और अन्य राष्ट्रों की मदद करेगा। इस मुद्दे पर बात करने के लिए ब्रिटेन ने एक कमीशन भेजा। सर स्टेफोर्ड क्रिप्स नाम के उनके एक बड़े नेता को उसका अध्यक्ष बनाया गया। 

क्रिप्स ने आश्वासन दिया कि युद्ध के बाद हम भारत को आज़ाद कर देंगे। गाँधी जी को यह बात मंजूर नहीं थी और ब्रिटेन के इस आफर को उन्होंने कहा (postdated cheque on a crashing bank) यह एक ऐसा चेक है जो दिवालिया होने वाले बैंक से हमें दिया जा रहा है। बापू का मतलब यह था कि द्वितीय महायुद्ध के बाद ब्रिटेन दिवालिया हो जायेगा और उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं होगा। 

इस मुद्दे पर बहस होती रही और अंततः जैसा हमेशा होता था बापू की बात मान ली गई। परंतु फिर भी अंग्रेजों को भारत छोड़ने की कोई तिथि नहीं दी गई। बंबई में पारित प्रस्ताव की प्रतिलिपि ही बापू के दस्तखत से वायसराय को जानी थी जो उन तक नहीं पहुंच पाई। अंग्रेजों ने कोई अवसर नहीं छोड़ा और उन्हें यह लगा कि बापू और कांग्रेस शीघ्र ही आंदोलन छेड़ देंगे इसलिए उन्होंने सभी नेताओं को सारे देश में गिरफ्तार कर लिया और शायद कहने लगे कि न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी। पूरे देश में गुस्से की लहर फैल गई।

सभी नेताओं को गिरफ्तार करके ब्रिटिश साम्राज्य ने बापू और कांग्रेस को आंदोलन की रूप रेखा बनाने का मौका ही नहीं दिया। साधारणतः जब बापू कोई आंदोलन छेड़ते थे तो उस आंदोलन का संचालन करने के लिए जिम्मेदारियां बांट देते थे, परंतु यह आंदोलन किन लोगों के नेतृत्व में चलेगा यह तय नहीं हो पाया और पूरे देश में आग लग गई। 

शुरू के एक दो दिन तो कुछ नहीं हुआ परंतु बाद में सारे देश में तूफान आ गया और हिंसक घटनाएँ होने लगीं। बापू कभी किसी भी आंदोलन को हिंसक नहीं होने देते थे। पर इस बार स्थिति कुछ और ही थी। पूर्व में जब भी उनका छेड़ा हुआ आंदोलन हिंसक रूप लेता था तो वह उसे स्थगित कर देते थे। परंतु इस बार हिंसक होने के बावजूद बापू ने ऐसा नहीं किया। इससे अंग्रेजी शासकों में घबराहट हुई। फिर भी बापू ने इस आंदोलन को और ज्यादा हिंसक नहीं होने दिया।

कांग्रेस में एक और समूह था जो आंदोलन में तोड़-फोड़ और ऐसी घटनाओं के करने में पीछे नहीं रहता था जिससे सरकार को नुकसान पहुंचे। जैसे-सरकारी इमारतों में आग लगाना, रेल की पटरी उखाड़ फेंकना, सरकार को सहयोग नहीं देना, नदी के पुल तोड़ देना। इस समूह का नेतृत्व करने वालों में सबसे प्रमुख थे जयप्रकाश नारायण। उनका साथ देने वालों में थे डा. राममनोहर लोहिया और श्रीमती अरुणा आसफ अली। 

अरुणा आसफ अली उन लोगों में से थीं जो भूमिगत हो गईं। उन्हें खोजकर गिरफ्तार करना बहुत कठिन काम हो गया। बाद में यह भी पता लगा कि उन्होंने कुछ दिन भोपाल में भी शरण ली थी। इनके साथ बड़ी संख्या में अनेक कांग्रेसी हो लिए। जयप्रकाश को गिरफ्तार कर लिया गया था परंतु वे किसी तरह जेल से भाग निकले और इस तरह के आंदोलन को नेतृत्व देने में सबसे अगुवा रहे।

यद्यपि अंग्रेजों के शासन के दौरान उन्हें तोड़-फोड़ करने वाले आंदोलनों का नेतृत्व करने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी परंतु बाद के जीवन में वे अहिंसा के पुजारी हो गए और बापू के प्रमुख शिष्यों में हो गये। एक मौका ऐसा आया जब उन्होंने इन्दिरा गाँधी का तख्ता पलटने वाले आंदोलन की अगुवाई की। जयप्रकाश नारायण ने अंग्रेजों की दिक्कतों को बहुत बढ़ा दिया था।

एक और समूह था जिसका नेतृत्व कम्युनिस्ट कर रहे थे। प्रजातांत्रिक देशों पर हमला बोलने के साथ हिटलर ने अपने इस इरादे की भी घोषणा की थी कि वह दुनिया के पहले कम्युनिस्ट देश को भी नेस्तनाबूद कर देगा। यह देश था सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक। सारी दुनिया के कम्युनिस्टों के लिए सोवियत संघ एक आदर्श था। 

उसकी रक्षा करना सभी कम्युनिस्ट अपना प्राथमिक उत्तरदायित्व समझते थे। चूंकि हिटलर प्रजातांत्रिक और कम्युनिस्ट राज्य को समाप्त करने पर आमादा था इसलिए विभिन्न राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के बावजूद प्रजातांत्रिक देश और कम्युनिस्ट रूस एक दूसरे के घनिष्ठ सहयोगी बन गए। यदि कम्युनिस्ट, अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन में शामिल होते हैं तो इससे रूस की रक्षा में बाधा आयेगी। इसलिए भारतीय कम्युनिस्टों ने स्वयं को भारत छोड़ो आन्दोलन से अलग कर लिया।

जब भारत छोड़ो प्रस्ताव अखिल भारतीय कांग्रेस के बंबई सम्मेलन में रखा गया तो कम्युनिस्टों ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए कहने का यह उचित समय नहीं है। बापू ने उनकी निंदा करने के स्थान पर उनकी प्रशंसा ही की। बापू ने कहा कि इतने बड़े जन-समूह की राय के विरोध में जो अपनी बात कहने का साहस रखते हैं, यदि इसी तरह की स्थिति आज़ाद भारत में आती है तो हमारे देश में प्रजातंत्र को कोई नष्ट नहीं कर पायेगा।

अंततः भारत छोड़ो आंदोलन अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका और उसे असफल क्रांति ही कहा जा सकता है। क्योंकि इतने ज़ोरदार आंदोलन के बावजूद अंग्रेजों को हम भारत से भगा नहीं सके और उसके बाद भी पांच साल तक अर्थात 1947 तक अंग्रेज भारत पर शासन करते रहे। परंतु 1942 के आंदोलन से एक लाभ यह हुआ कि हमारे देश के आम आदमी में एक अद्भुत साहस ने जन्म लिया और यह बाद में भी हमारे देश में प्रजातंत्र बनाये रखने में सहायक सिद्ध हुआ। 1942 के आंदोलन की असफलता के बाद भी देश के लोग बापू पर श्रद्धा करते रहे और वे हमारे देश का नेतृत्व करते रहे।  

(एलएस हरदेनिया सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार हैं।)

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