उपेक्षित समाज को विश्व मंच तक पहुंचाने वाले रामसहाय पाण्डेय नहीं रहे 

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जिस बेडिन समाज को भारत में एक समय तक आपराधिक जनजाति की श्रेणी में रखा जाता रहा, अंग्रेजों के समय से जो घुमंतू जीवन व्यतीत करते रहे और उन्हें सामाजिक रूप से भी सम्मान नहीं मिला, उस समाज की नाचनवारियों को विश्व के देशों में ले जाकर बड़ा मंच दिलाने वाले पद्मश्री राम सहाय पाण्डेय 08 अप्रैल, 2025 की सुबह दुनिया को अलविदा कह गये। उनकी उम्र नब्बे साल से ज्यादा थी और वो पिछले एक साल से अस्वस्थ चल रहे थे। राम सहाय पाण्डेय ने बुंदेलखंड की लोकनृत्य विधा राई को जो ख्याति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिलाई, उसके लिए कला जगत हमेशा उनका ऋणी रहेगा। 

राम सहाय पाण्डेय का जन्म मध्य प्रदेश के सागर जिले के कनेरा देव गाँव में 1933 में हुआ था। वैसे उनकी उम्र पंचानवे साल से ज्यादा की बताई जा रही है मगर दस्तावेजों के अनुसार वो बानवे साल के हो चुके थे। रामसहाय पाण्डेय से पहली बार मुलाकात इलाहाबाद में हुई थी। उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र प्रयागराज द्वारा आयोजित राष्ट्रीय शिल्प मेला 2019 में वो अपने दल के साथ राई नृत्य प्रस्तुत करने आये थे। पहली बार उनके ऊर्जावान रूप को देखने का अवसर मिला था।

मंच पर कमर में ढोलकिया और पैर में घुँघरू बांधकर जब वो कुलाटे मारते तो दर्शक दंग रह जाते। उनके इस दल में उनके साथ उनके पुत्र भी शामिल थे। सांस्कृतिक केंद्र प्रयागराज द्वारा ही उन्हें लोकविद सम्मान से भी नवाजा गया। 2019 में उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र प्रयागराज के निदेशक इंद्रजीत ग्रोवर ने सरकार को पत्र लिखकर रामसहाय पांडेय को पद्मश्री सम्मान प्रदान करने की मांग भी की। उन्होंने कई बार इसके लिए अपने स्तर पर प्रयास किए जो 2022 में सफल भी हुआ। 

रामसहाय जी के लिए राई लोकविधा की दुनिया में कदम रखना आसान नहीं था। एक उच्च जातीय समाज में जन्म लेने वाला व्यक्ति कैसे एक उपेक्षित समाज की कला से जुड़ सकता है, शुरुआत में उनके परिवार को यह बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं था। मगर कला की दुनिया में सामाजिक बंधन कभी भी बाधा नहीं बन पाते यह रामसहाय पाण्डेय ने सिद्ध कर दिया। आम तौर पर राई नृत्य को आज के समय में मंचों पर प्रस्तुत करने वाले कलाकार बेडिन समाज के ही हों यह जरूरी नहीं।

अब तो इस विधा को एक सांस्कृतिक विधा के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा है, अब किसी को इस नृत्य की प्रस्तुति से सामाजिक उलाहना की भी चिंता नहीं होती मगर यह रास्ता बनाने का काम रामसहाय पाण्डेय ने करीब सत्तर साल पहले ही किया जब सागर के एक बड़े मेले में उन्होंने उस समय की मशहूर बेडिन कलाकार को अपनी ढोलकिया से मात दे दी। बस उसी समय से उनके भीतर इस लोककला को लेकर प्रेम जगा और उन्होंने ठान लिया कि समाज द्वारा उपेक्षित और तिरस्कृत इस बेडिन समाज को सम्मान दिलाकर ही रहेंगे। अंततः वह समय आया जब 2022 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा। 

अभी कुछ महीने पहले ही कटनी के वरिष्ठ पत्रकार नन्दलाल सिंह के साथ रामसहाय पाण्डेय के गाँव कनेरा देव जाना हुआ था। हम आश्चर्यचकित थे कि वो इस लम्बी उम्र में भी चैन की नींद सो रहे थे। उनके पूरे बाल सफ़ेद भी नहीं हुए थे। दांत भी काफी बचे हुए थे। पान और सुपारी अभी भी चबा जाते थे। चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान खिली रहती थी। बात करते-करते हमेशा यह बात दोहराते कि एक बार बेडिनों के उस गाँव में जाना चाहता हूँ जहाँ से उन्होंने नृत्य की शुरुआत की थी।

संस्कृति मंत्रालय के मंचों पर रामसहाय पांडेय के कार्यक्रमों की गिनती नहीं है। भारत सरकार और राज्य सरकारों के संस्कृति विभागों द्वारा उनकी प्रस्तुतियां देश ही नहीं बल्कि देश की सीमा से बाहर फ्रांस, जापान, मिस्र आदि जगहों पर भी हो चुकी है। बकौल रामसहाय, राई नृत्य के प्रति समर्पण ने कभी भी उन्हें बढ़ती उम्र का एहसास नहीं होने दिया।

कई बार वो गंभीर रूप से अस्वस्थ हुए मगर कला ने उन्हें जीने की ताकत दी। वो बताते थे कि पहले उनके समाज बिरादरी के लोग उनके इस काम को बहुत ही निम्न कार्य के रूप में देखते थे मगर जैसे-जैसे उनको इस विधा से ख्याति मिलनी शुरू हुई, लोग साथ आते गए। रामसहाय की प्रस्तुतियों में हमेशा बेड़नी समाज की ही नृत्यांगनाएं रहीं। कनेरा देव गांव में उन्होंने कई बार राई की कार्यशालाएं भी आयोजित कराई और आज के लोगों को भी राई विधा से परिचित कराया।

उनके ढोलकिया की तान पर सिर्फ भारत ही नहीं पूरा विश्व झूमा। उनके घुंघुरू की आवाज़ ने पूरे विश्व को मोहित किया। बेड़नी समाज को मुख्य धारा से जोड़ने और उन्हें वाजिब सम्मान दिलाने के लिए उन्होंने जो त्याग किया, उसके लिए बेड़नी समाज हमेशा उनका ऋणी रहेगा। अपने सादगी भरे जीवन के साथ उन्होंने नौ दशक से ज्यादा की जो जिंदगी बिताई, वह आने वाली पीढ़ियों और समाज के लिए प्रेरणास्रोत रहेगा। 

(विवेक रंजन सिंह स्वतंत्र पत्रकार एवं लोककला शोधार्थी हैं।)

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