समाज में हिंसा और अहिंसा की भूमिका

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सम्+आज = समाज! समाज स्वयं को सार्वकालिक स्वरूप में देखता है। सम का अर्थ है समान और आज का अर्थ है अब, इस पल। कितनी खूबसूरत संकल्पना है समाज, जिसमें हर पल, हर कोई समान हो।

सबका साझा, सबका अपना, सबके लिए समान- यही तो समाज है। नातों से बुनी एक ऐसी चादर है समाज, जिसमें हर एक की सहभागिता और स्वामित्व होता है। जीवन जीने के लिए एक स्वावलंबी समूह का नाम है समाज। कितनी अद्भुत है समाज की साम्य संकल्पना, जिसमें हर कोई अपनी शक्ति और प्रकृति अनुसार, सर्व स्वीकार्य विधान के साथ जुड़ा होता है।

नीति में जब “राज” जुड़ जाता है, तो वह शासन प्रक्रिया के रूप में वैध हो जाती है और सर्वव्यापक हो जाती है। पर जब राजनीति में सत्ता अपना अस्तित्व खोजती है, तो सर्वस्वीकृति संख्याबल या शक्ति बल में बदल जाती है और समाज का सत्ताकरण हो जाता है, जहां सर्वशक्तिमान सिंहासन पर विराजमान हो समाज को साम, दाम, दंड, भेद से संचालित करता है।

सत्ता जब राजनीति पथ पर चलने में विफल होती है, तब वह मनुष्य की नियत को प्रभावित करती है। राजनीति की सर्वव्यापकता और सार्वभौमिकता को सत्ता चंद शक्तिशाली लोगों की जागीर बना देती है, जहां कहने को सत्ता निर्बल को सबल बनाने के लिए होती है, पर असल में शक्तिशाली और शक्तिशाली होते जाते हैं, और निर्बल सत्ता और समाज से बाहर हो जाते हैं या हाशिए पर जीवन व्यतीत करते हैं।

नियत, नियति को तय करती है। छोटा सा तात्कालिक सुख या सुख की अवधारणा मनुष्य की नियत बदल देती है। लोभ और लालच उसकी साम्य दृष्टि को बाधित कर अंधा बना देते हैं। व्यक्ति समग्र समाज को छोड़ अपने अल्पकालिक सुख को प्राथमिकता देकर समाज को गर्त में धकेल देता है और सत्ताधीश को समाज का शोषण करने का अनैतिक आधार दे देता है। अल्पकालिक सुख साम्य समाज को ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, सबल-निर्बल, वर्ग-वर्ण के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में उलझा देता है।

मनुष्य की नियत नीति और नियति को बदल देती है। दरअसल, नियत का नाता मनुष्य के विवेक से होता है। विवेक से जब नाता टूटता है, तब मनुष्य के पास केवल संवेदना रह जाती है, जो उसे पशु समान बना देती है। इस स्थिति में वह सुख-दुख का स्पर्श तो महसूस करता है, पर उनसे उबरने की दृष्टि पर मोतियाबिंद का परदा छा जाता है।

विवेक से नाता टूटने पर मनुष्य में हिंसा अपने पैर पसार लेती है और अपना रास्ता बनाती है। हिंसा का पथ न्याय, समता, समानता और प्रेम का नहीं होता। हिंसा का मार्ग अन्याय, हत्या, नरसंहार, शासक-गुलाम भेद और नफ़रत से भरा होता है। हिंसा पर सवार होकर मनुष्य अल्पकालिक न्याय खोजता हुआ राजनीति को केवल सत्ता का कलंक बना देता है।

मनुष्य जिस समाज को अपनी मुक्ति का आशियाना समझता था, वह आज उसके लिए घुटन बन गया है। समाज की साम्य नीति को सत्ता ने कुरीतियों में बदल दिया है, जिससे मनुष्य आज डरता है। सत्ता ने मनुष्य को डराने का एक अमोघ अस्त्र गढ़ा है — ‘लोग क्या कहेंगे!’ ‘लोग क्या कहेंगे’ समाज को गुलाम बनाने का मनोविज्ञान है। मनुष्य अपने जीवनभर ‘लोग क्या कहेंगे’ के भय में जकड़ा रहता है, और समाज इस भय का शिकार और शोषित होता रहता है।

सत्ता समाज का शोषण सदियों तक करती रहती है, फिर कहीं नियत से विवेक का धागा जोड़ने वाला बुद्ध या गांधी जन्म लेता है, जो विवेक की महत्ता को समझाता है और मनुष्यों में प्रेम और अहिंसा का धागा पिरोकर एक नया नाता निर्माण करता है।

(मंजुल भारद्वाज नाट्यकर्मी हैं।)

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