‘समयांतर’ में अटकी है हिंदी की राजनीतिक और वैचारिक पत्रकारिता की जान: असद जै़दी

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हिन्दी के वरिष्ठ कवि, गद्यकार और विचारक असद ज़ैदी ने कहा कि हिन्दी पत्रकारिता में बतौर संपादक पंकज बिष्ट से ज़्यादा योगदान शायद ही किसी का रहा हो। इस बेशर्म युग में हिन्दी की राजनीतिक और वैचारिक पत्रकारिता की जान `समयांतर` में ही अटकी है।

`समयांतर` के संपादक और हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार पंकज बिष्ट के 75वें जन्मदिन के मौके पर `बया` पत्रिका ने उन पर विशेषांक प्रकाशित किया है। इस अंक के लोकार्पण के मौके पर बृहस्पतिवार शाम को कला विहार में आयोजित कार्यक्रम में असद ज़ैदी ने पंकज बिष्ट और उनकी पत्रिका के महत्व को बड़े ख़ूबसूरत और सारपूर्ण ढंग से रेखांकित किया। उन्होंने 1970 के मध्य में दिल्ली में `आजकल` के दफ्तर से शुरू हुई मुलाक़ातों को याद करते हुए कहा कि जिस धज के साथ वे तब रहते थे, उसी धज के साथ आज भी हैं बल्कि वैसे के वैसे ही बने हुए हैं। 

आज के ज़माने में अपने को बनाए रखना, इससे बड़ी क्रांतिकारी चीज़ क्या हो सकती है कि इस आदमी ने अपने मूल्य नहीं बदले, अपनी धज नहीं बदली, अपना ईमान नहीं बदला। इसी बात के लिए हम सारे मित्र इनके मित्र बने हैं, इनका सम्मान करते हैं और किसी हद तक हममें से कुछ इनसे डरते भी हैं। ये इनका डर ही था जो मुझे 50 किलोमीटर दूर यहां खींच लाया वरना इस मौसम में और इस समय में आना मुश्किल होता।

असद ज़ैदी ने कहा कि पंकज बहुमुखी प्रतिभा हैं। समयांतर पत्रिका के महत्व पर रोशनी डालते हुए उन्होंने कहा कि अगर हिन्दी में कुछ जान बची हुई है और हिन्दी की राजनीतिक व वैचारिक पत्रकारिता में इस बेशर्म युग में ज़रा सी जान अटकी रह गई है तो वह समयांतर में है। 

यह बात बार-बार कही गई है कि पंकज बिष्ट रचनाकार के रूप में अचर्चित रहे या कम चर्चित रहे। बया के संपादक गैरीनाथ से फोन पर भी यही बात हो रही थी तो मैंने कहा, ऐसा नहीं है, पंकज बहुत मशहूर आदमी हैं। इनकी उपस्थिति सबको पता है। अगर ये अचर्चित हैं तो अपने कारनामों के कारण हैं। इन्हीं कारनामों पर हमें गर्व है। ये जिस पत्रिका का संचालन कर रहे हैं, मेरे ख्याल से वह बड़े त्याग और तपस्या से निकल रही है। मान लीजिए किसी दिन समयांतर बंद हो गई तो वह हिन्दी की पत्रकारिता के इतिहास में एक बुरा दिन होगा। 

यह होता है कि हम अतीत के लोगों को बहुत हीरो बना लेते हैं। हम हिन्दी पत्रकारिता की शानदार परंपरा का ज़िक्र पुराने-पुराने नामों से शुरू करके प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर एसपी सिंह इत्यादि तक आते हैं जिनके बारे में मेरी राय कुछ भिन्न है। हमने ये बड़ी-बड़ी मूर्तियां खड़ी कर ली हैं। हम ये मानते हैं कि ये मिथकीय चरित्र हैं। उनके पास लगभग एक मिथकीय शक्ति है। हम यह भूल जाते हें कि हमारे बीच में हमारा साथी कितना हीरोइक काम कर रहा है। 

मैं यह समझता हूँ कि अगर ऑबजेक्टिविटी से देखा जाए और समय के स्केल पर भी देखा जाए तो मेरी याददाश्त में हिन्दी पत्रकारिता में एक संपादक के बतौर पंकज से ज़्यादा योगदान शायद ही किसी का रहा हो। यह सही है कि इससे पहले एक दिनमान युग भी था। उसने बहुत महत्वपूर्ण, कहना चाहिए एक फाउंडेशनल काम किया। लेकिन, वह हिन्दी का अच्छी पत्रकारिता से एक ब्रीफ रोमांस था। उसे ख़त्म होना था और वह बड़ी ज़ल्दी ख़त्म किया गया।

असद ज़ैदी ने कहा कि हिन्दी की पत्रकारिता की जान-सांस ऐसे ही (पंकज बिष्ट जैसे) लोगों के बस में बच रही है जो प्रतिष्ठान में नहीं हैं जो (पत्र-पत्रिका) किसी सरकारी मदद से नहीं निकाल रहे हैं, जो कॉरपोरेट दया पर निर्भर नहीं हैं, जो अपनी प्रेरणा से और अपने कर्त्वयबोध से और लोगों में अपने विश्वास के बल पर (पत्र-पत्रिका) निकाल पा रहे हैं। ऐसे कामों से जो इंटलेक्चुअल और मॉरल एनर्जी पैदा होती है, उससे हम सब बखूबी वाकिफ़ हैं। 

चाहे नज़र न आए लेकिन मैं समझता हूँ पंकज बिष्ट की उपस्थिति बहुत सारे ज़्य़ादा चर्चित नामों से कहीं ज्यादा महसूस की जाती है। और कहीं न कहीं एक जिस शब्द को मैंने आतंक कहा, इनका एक ख़ामोश किस्म का रौब हिन्दी जगत में छाया हुआ है। असद ज़ैदी ने पंकज बिष्ट पर `बया` का अंक निकालने और इस बहाने इस आयोजन के लिए गौरीनाथ की सराहना भी की।

(जनचौक के रोविंग एडिटर धीरेश सैनी की रिपोर्ट।)

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