“वो आसमां झुक रहा है ज़मीं पर,
यह मिलन हमने देखा यहीं पर,
मेरी दुनिया, मेरे सपने शायद मिलेंगे यहीं“
लामोंट कुटिया (कॉटेज) का पर्दा हटाते ही मेरी आंखों के सामने नयनाभिराम दृश्य तीनों दिशाओं में छाया हुआ था। किसी एक दिशा में चंद पलों से अधिक आंखें सुस्ता नहीं रही थीं; देख रहा हूं मीलों लम्बे-चौड़े हरित खेत-मैदान आलिंगन करते जा रहे गहरे-सघन नीले गगन का; पृथ्वी और आकाश एकाकार हो रहे हैं-परस्पर अस्तित्व विमुक्त।
ऐसे ही क्षणों में स्कूली युग की फिल्म ‘मधुमती’ के दृश्य मस्तिष्क के चित्रपटल पर उभर आते हैं और नायक दिलीप कुमार पर चित्रित शैलेन्द्र का गीत होठों पर मचलने लगता है- यह सुहाना सफर और मौसम हंसीं, हमें डर है हम खो न जाएं कहीं। सच, कोई अतिशयोक्ति नहीं है यहां। जब भागमभाग-शो-संस्कृति (आज की भाषा में शोर-प्रदूषण) से मुक्ति के बाद जब प्रवेश होता है प्रकृति के आंगन में, तब की अनुभूति कुछ ऐसी ही होती है।
अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. करते समय स्कॉटलैंड के प्राकृतिक सौंदर्य से परिचय हुआ था कविताओं और निबंधों में। आज लगभग पांच दशकों के अंतराल के बाद इस अनुपम दृश्य श्रृंखला के मध्य स्वयं को पा रहा हूं। बिलकुल जीवंत; पृथ्वी आकाश की बांहों में विलीन हो रही है या आकाश विलुप्त हो रहा है पृथ्वी के आंचल में। दोनों की विभाजन सीमाओं का संज्ञान सात्विक अनुभूति का विखण्डन ही होगा !

लाउडर गांव में बसे एयरहाउस परिसर में कुछ कुछ फासले पर पांच छह कॉटेज हैं। प्रत्येक का नाम अलग-अलग है। हम लोग लामोंट में रुके हुए हैं। करीब तीन सौ डॉलर प्रतिदिन। कुछ सस्ते भी एक रूमी कॉटेज भी हैं। छड़ों के लिए तंबूनुमा इंतजाम भी है। वास्तव में, शहरी भीड़ से दूर एयरहाउस एक विशाल फार्म हाऊस है। इस परिसर में जहां खेती होती है वहीं पशुपालन भी।
अश्व अलग से हैं। पशुओं के लिए बड़े-बड़े बाड़े हैं। फार्म स्वामी स्कॉटी है और प्रकृति प्रेमियों को कॉटेज किराए पर देता है। बारह मास व्यापार चलता रहता है। अग्रिम बुकिंग की जरूरत होती है। उत्सव के दिनों में तो बात ही निराली है। इस शांत व एकांत प्रांगण में हमारा पड़ाव करीब सात दिन का है।
मेदिनी और गगन के इस पारदर्शी मिलन को देखते हुए मुझे रानीखेत, सरगुजा, अरुणाचल जैसे क्षेत्रों के नयनाभिराम दृश्य आंखों में तैरने लगे हैं। कई वर्षों पहले इन स्थानों में जाने का अवसर मिला था। तब देखा था निश्छल प्रकृति की छांव में छुपा छोटा -सा निराला भारत।
सरगुजा ज़िले के मैनपाट, सामरी पाट और अंबिकापुर से जशपुर और रांची निकल जाइये, हरियाली का मीलों लम्बा ग़लीचा आपके स्वागत में बिछा होगा। ऐसा ही स्वागत होगा जब आप ढिंढोरी से अमरकंटक जायेंगे। विराट बस्तर भी पीछे नहीं है। परिवेश में राज सत्ता और प्रतिरोध की अशांतिक उपस्थिति के बावज़ूद, बस्तर के क्षेत्रों में प्राकृतिक सौंदर्य के उपहारों की छटा बिखरी हुई मिलेगी।
चले जाइये दंतेवाड़ा से सुकमा व कोंटा या जगदलपुर से विशाखापट्नम, पहाड़ों -खेतों के मचान पर आंखों को पड़ाव की प्रतीक्षा रहेगी। उदयपुर से माउंटआबू निकलें तो प्रकृति सहचरी बनी रहेगी। इस दृष्टि से केरल अद्भुत है। ईश्वर की भूमि जो है; आप भीतरी केरल के हर स्थान पर स्वयं को पृथ्वी और आकाश के बांहों में लिपटे हुए पाएंगे।
अलबत्ता, कर्णाटक के कोडगू या कुर्ग को स्कॉटलैंड के सादृश्य माना जाता है। लेकिन शर्त है, सभी स्थानों पर जाइये वन मार्ग से, वाहनों तले दबी कोलतारी सड़कों से नहीं। तभी आपको एक प्रकार के आंतरिक आनंद की अनुभूति होगी। परिसर के एक कोने में बच्चों के मनोरंजन के लिए छोटा-प्यारा सा चिड़ियाघर भी बना रखा है; खरगोश, हिरण, नील गाय, भालू और न जाने कितने प्रकार के पशु-पक्षी हैं। घोड़े-घोड़ियां अलग से हैं। नातिनें मगन हैं। धमाचौकड़ी मचा रखी है।

लॉउडर गांव तक पहुंचने का मार्ग भी कुछ-कुछ ऐसा ही रहा है। इस गांव को इसलिए चुना है कि हम लोग बोस्टन ,लंदन, एडनबरा और दिल्ली की धींगा-धांगी से आज़ाद रहेंगे। कुछ दिन ही सही। कीट्स के शब्दों में,” a thing of beauty is joy for ever।” कवि से माफ़ी के साथ मैं अपनी तर्ज़ में अपने भावों को इस तरह से व्यक्त करना चाहूंगा-प्रकृति के संग बीते चंद पल ही अमरत्व की अनुभूति है। मीलों तक पसरी एकाकी- ख़ामोशी के क्षणों में कई दशकों पुरानी (शायद 1959 -62) चंद पंक्तियों की आवाज़ भीतर से सुनाई दे रही है :
तुम्हें ढूंढता हूं ,
“व्योम में खोये अज्ञात चित्रों में,
हिमकर की धवल चन्द्रिका में,
उड़गन के शांत स्वरों में,
मेदिनी के अप्रतिम सौन्दर्य में,
तुम्हें ढूंढता हूं।“
ये चंद पंक्तियां कविता का अंश है, पूर्ण नहीं है। मुझे एहसास है, मेरी चेतना के वर्तमान चरण में पांचों पंक्तियां सहित शेष सभी सिर्फ शब्दों का समूह मात्र है। लेकिन, भाव व विचार और आंतरिक व बाह्य जगत की विकास यात्रा की स्वाभाविक प्रस्थान स्थली भी है, यह कविता। परिवेश ही चेतना को तराशता है , उसे उन्नत बनाता है और विलोम की दिशा में भी खींचता है।
यह व्यक्ति की सतर्कता पर निर्भर करता है कि वह विलोम की दिशा को चुनता है या फिर प्रतिलोम। फिलहाल, कुटिया की काष्ठ मचान पर बैठे हुए सब कुछ भूल जाना चाहता हूं। बीयर की चुस्कियों के साथ नीले आकाश, चमकते तारे और बीच-बीच में जुगनुओं की चमक के हवाले स्वयं को करने का मन कर रहा है।
जीवन के इस चरण में ऐसे क्षणों से कौन वंचित रहना चाहेगा! कहने के लिए कुटिया है, लेकिन तमाम आधुनिक सुख-सुविधाओं से सुसज्जित है। टीवी है और पेंटिंग्स हैं। ड्राइंग रूम के एक कोने में चुनिन्दा पुस्तकों के सजा रैक है। आदतन पुस्तकों पर नज़र डाली तो एक बेहद चौंकानेवाली दुनियाभर में चर्चित पुस्तक आंखों के सामने थी- Diary Of Anne Frank।
दिलचस्प यह है कि इसकी दो प्रतियां थीं -हार्ड कवर और पेपर बैक। पुस्तक की काया को देखने से लगता है कि हम से पहले रहे अतिथियों ने इसे चाव से पढ़ा है; पृष्ठ के कोने मुड़े हुए हैं और निशान भी बना रखें हैं। ऐसा होना भी स्वाभाविक है।

डायरी को पढ़ना शुरू करें तो इसमें डूबते चले जायेंगे। आप हिटलर -युग के जर्मनी में पहुंच जायेंगे; पाठक परिचित होने लगेगा नाज़ीवाद -फासीवाद के अत्याचारों से; यहूदियों के नरसंहार के रूप में मानवता विनाश से; हिटलर की जातीय शुद्धतावादी विचारधारा से और इतिहास में महाविनाश (होलोकॉस्ट) की मौन साक्षी बनती हुई अबोध किशोरी के आंतरिक संसार से। डायरी या एक प्रामाणिक दस्तावेज़ ने विभिन्न भाषाओं के करोड़ों पाठकों को ही नहीं, इतिहासकारों को भी हिला कर रख दिया है।
डायरी में बाह्य संसार में चल रही हिटलर की महाविनाश लीला और किशोरी के आंतरिक जगत के द्वंद की अप्रतिम समानांतर यात्रा है। 1944 के नाजीवादी दौर में अपनी डायरी की अंतिम पंक्तियों में पंद्रह वर्षीय यहूदी किशोरी फ्रैंक स्वयं को परिभाषित करती हुई कहती है वह, ‘ विरोधाभासों का एक बंडल है”। स्वयं की भूमिका और अन्तर्द्वन्दों को सामने रखती है।
डायरी की पठन यात्रा से इतना सारांश तो निकाला ही जा सकता है कि किसी भी विचारधारा के हिंस्र वातावरण में मानवता का सृजनात्मक विकास तो अवरुद्ध रहेगा ही। मानव सभ्यता-यात्रा ठिठुरी रहेगी। इस डायरी पर दो घंटे की फीचर फिल्म भी बन चुकी है। देखने योग्य है मूवी।
क्या मेरे देश में यह आसन्न संकट उभरता हुआ नहीं लग रहा है! जातीय शुद्धता-श्रेष्ठता और बहुसंख्यकवाद के प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं, मिथकीय नायकों तथा सम्बोधनों के बेरीकेड को खड़ा कर दिया गया है। अल्पसंख्यकों में ‘दोयम दर्जे’ का नागरिक बनने के भाव पनपने लगे हैं। स्वतंत्र राष्ट्र में नए प्रकार के आंतरिक उपनिवेश जन्म लेने लगे हैं।
क्या इन उपनिवेशों में हज़ारों गुमनाम ऐनी फ्रैंकें सांसें नहीं ले रही होंगी! मेरे लिए यह पहेली है; चारों दिशाओं में फैले प्रकृति के विराट मौन के बीच ऐसी डायरी का होना और पढ़ा जाना स्वयं में आश्चर्य है। मुझे लगता है, डायरी के प्रति लगाव व उत्सुकता मनुष्य की सार्विक मानव प्रियता व शांति को दर्शाता है; मुक्त पंछी बन कर मानव आकाश में अपनी परवाज़ भरता रहे और सृजन के नए-नए आयामों से प्रकृति और मानव के परस्पर संबंध समृद्ध होते रहें।
मैं देख रहा हूं, जुगनू टिमटिमा रहे हैं, आकाश में तारे झिलमिला रहे हैं। ऐसे पलों में प्रकृति के चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत की दो पंक्तियां स्मृतिपटल पर थापें दे रही हैं:
“बिदा हो गयी सांझ, विनत मुख पर झीना आंचल धर,
मेरे एकाकी आंगन में मौन मधुर स्मृतियां भर…….“
सच कहूं, जीवन में पहली बार ऐसी आधुनिक कुटिया में रहने का आनंद मिल रहा है। आधुनिक भागम-भाग से कोसों दूर हैं; न वाहनों का पोंपों है, न भीड़ का शोरोगुल; कभी कभार घोड़ों के मिमयाने, गाय-भैंसों के रम्भाने, हिरणों के दौड़ने की आवाज़ें यदा-कदा स्पर्श कर जाती हैं कानों को।
ऐसे पलों में 19 वीं सदी के कथाकार थॉमस हार्डी का उपन्यास- FAR FROM THE MADDING CROWD याद आ रहा है। प्रकृति की गोद में एकाकीपन का अपना एक अलग सुख है। इस मौन एकान्तिका का सहयात्री बन रहा है आकाश में चक्राकार के रूप में टिमटिमाता इंद्रधनुष। तारों के कक्ष भी दिखाई दे रहे हैं। आकाशगंगा कभी लुप्त होती है, कभी प्रकट। चंचल शिशु बादल उन्हें ढकते रहते हैं। फिर वे खुद भी विलुप्त हो जाते हैं। क्षितिज पर आंखमिचौनी चलती रहती है।
भोर का होले-होले कुटिया के काष्ठ मंच तक पहुंचना भी कम निराला नहीं लगा। ऐसी भोर का स्वागत भी पहली बार ही हो रहा है। सामने छाई कुछ धुंध को चीरती हुई सूर्य की किरणें ताज़गी भर देती हैं पोर-पोर में। फिर चारों दिशाओं में फ़ैल जाती हैं।
कुनकुनी धूप में बैठना, वहीं नाश्ता करना या गर्म जल के टब में स्नान, क्षणिक स्वर्ग का भ्रम तो पैदा कर ही देता है। पक्षियों की चहचहाहट भोर को सुरीली बना देती है। आंखों के समक्ष बिछा खेतों का विराट हरा गलीचा और उस पर दौड़ते मवेशी किसी और ही दुनिया में दर्शक को पहुंचा देते हैं।
वास्तव में, स्कॉटलैंड विराट प्राकृतिक सुंदरता के लिए इंग्लैंड में ही नहीं, विश्वभर में प्रसिद्ध है। अठारवीं सदी के कवि रोबर्ट बर्न्स प्रकृति के गायक हैं। इन्हें राष्ट्रीय कवि के रूप में भी देखा जाता है। बर्न्स का सबसे चर्चित गीत है “Auld Lang Syne“। कैसी भी ऋतु रहे, कैसा भी स्थान व अवसर रहे, यह लोक गीत स्कॉटवासियों के लबों पर थिरकने लग जाता है।
कोने में सजी पुस्तकों में लोकगीत और लोक कथाएं भी हैं। जब बाहर धूप चुभने लगे तो भीतर गीतों और कथाओं का आनंद ले सकते हैं।
बर्न्स की इस प्रसिद्ध कविता में प्रेम, प्रकृति, संबंध और समाज को पिरोया गया है। कविता के माध्यम से कवि पूछता है: क्या पुराने परिचितों को भुला दें ?, और कभी मस्तिष्क में उनकी आहट न सुनें, क्या पुराने परिचितों को भूल जाएं…। ?
19वीं सदी के स्कॉटिश कथाकार, निबंधकार और कवि रोबर्ट लुइस स्टीवेंसन ने भी अपने देश की प्रकृति के विभिन्न रूप-रंगों का वर्णन किया है। स्टीवेंसन ने बच्चों के लिए भी कविता लिखी है। 19वीं सदी के अंतिम चरण में उनकी बाल कविता ‘मेरी छाया’ बहुत लोकप्रिय हुई थी। यह कविता भी पढ़ने को मिली। इसकी अंतिम पंक्तियां इस प्रकार हैं:
एक सुबह, बहुत तड़के, उगने से पहले सूरज के,
मैं उठा और देखा पीले फूलों पर बिखरी चमकीली ओसों को,
लेकिन, हठीले ऊंगू-सिर की भांति, मेरी छाया
रह गई मेरे पीछे बिस्तर में सोती, गहरी नींद में।
नातिन साथ में थी, उसे यह कविता अच्छी लगनी ही थी। स्कॉटलैंड के ही एक और 18वीं प्रसिद्ध कवि, उपन्यासकार और इतिहासकार हैं-सर वाल्टर स्कॉट। अगली सदी में उनके उपन्यास के साथ-साथ कवितायें भी चर्चित रहीं थीं। इतिहास पर आधारित उपन्यास भी लिखे। घर से दूर घररूपी कुटिया में ऐसे लेखकों का साहचर्य एक अलग ही आनंद की अनुभूति कराता है।
प्रकृति के मदमस्त आंचल के साथ-साथ स्कॉटलैंड की शोहरत सुरा के लिए भी विश्वविख्यात है। यह अलग बात है कि हम लोग किसी ‘मद-जननीशाला (ब्रेवरी) और मधु शाला’ में नहीं जा सके। कुटिया में ही लोकप्रिय ब्रांड उपलब्ध थे। दिल्ली और लंदन से चलते समय मित्रों की सिफारिश थी कि फलां-फलां ब्रेवरी में जाना।
वहीं रह कर ही स्कॉच-पान करना। उसका अपना ही आनंद है। लेकिन, मेदिनी के मद ने हमें इतना डुबोए रखा कि किसी बनावटी ‘मै और मैख़ाना’ की तलब ही नहीं उठी। वैसे वक़्त की भी पाबंदी थी।
एडिनबर्ग में यह भी पता चला कि स्कॉच अपने ही घर में ज़रुरत से अधिक महंगी है’ लंदन में सस्ती है। स्कॉच के निर्यात से खूब कमाई की जाती है। कहते हैं कि स्कॉच की यात्रा 18 वीं सदी से शुरू होती है। देश में 140 से अधिक व्हिस्की की आसवनी या व्हिस्की जन्मशालाएं हैं, इसका इतिहास बतलाता है कि 15 वीं सदी में साधु-संन्यासी ने वाइन का सेवन करके इसकी नींव डाली थी।
उस समय अन्न का प्रयोग किया जाता था; सिंगल माल्ट; सिंगल ग्रेन माल्ट; ब्लेंडेड ग्रेन माल्ट, ब्लेंडेड स्कॉच व्हिस्की आदि लोकप्रिय हैं। यह भी पता चला कि 2023 में भारत में रामपुर की सिंगल माल्ट को सर्वोत्तम श्रेणी में रखा गया था। इसे 12 जनवरी, 24 को जॉन बर्लेकरन पुरस्कार से पुरस्कृत भी किया गया था।
चूंकि, मैं मद का पारखी हूं नहीं। दुनिया भर के ब्रांडों के जामों को गटकने के बावज़ूद अभी तक कोई मेरी ‘दिलरुबा’ बन नहीं सकी है। व्हिस्की के एक पैग से कहीं ज़्यादा नशीली रही है मेरे लिए अमृतसरी लस्सी। कौन जाए चांदनीचौक की लस्सी के कुल्हड़ों को छोड़ कर स्कॉटलैंड की व्हिस्की के कटग्लासी प्यालों के लिए!
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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