स्वर काफी धीमा था पर आवाज अरुण की ही थी, वो अस्पताल से लौटे थे पहली बार, कमल भाई, समय लगेगा मगर मैं ठीक हो जाऊँगा। अपने पर घनघोर विश्वास ही अरुण की ताकत थी। यह अक़ीदा उनमें बार-बार दिखा, हमें पिछले करीब चालीस साल में। जब 93, 94 में उपेंद्र मिश्रा जी के कहने पर अखबार की नौकरी करने पहली बार लखनऊ से दिल्ली निकले तो गोमती एक्सप्रेस में हम और मयंक राय उन्हें नौकरी पकड़ाने साथ गए थे। तीन लोगों में दो बेटिकट। ऐसी ही जिंदगी थी। दिल्ली में रहने-रुकने का कोई ठौर तय नहीं था।
ट्रेन में कह रहे थे, चाहे अब जो हो जाये, काम मिले या न मिले, अब दिल्ली से लौटेंगे नहीं। यही जीवट था। सन् अस्सी से चौरानवे तक इलाहाबाद और लखनऊ में जिसके पास कभी कोई अपना कमरा न रहा हो, उसके नाम के आगे जब पता में लिख उठा, 50, चेतना अपार्टमेंट या ऊना अपार्टमेंट, तो कौन माई का लाल है जो इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, गोरखपुर, बलिया से दिल्ली पहुंचा हो और अपना झोला-बैग सीधे मदर डेरी के पीछे चेतना अपार्टमेन्ट में ले जाकर न रख दिया हो। इतने लोगों की मदद की, काम दिलवाया, नौकरी दिलवाई, जिसकी एक डायरेक्टरी बनानी पड़े। एक फकीर नुमा शख्स, उसके झोले में जो कुछ था, बांटता ही गया।
सबमें समा जाना और सबको समेट लेने की खूबी जन्मजात नहीं थी। यह मिली थी अरुण को अस्सी के दशक में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में बह रही उस गर्म हवा से, जो कैंपस को इंकलाब की प्रयोगशाला बना देने पर आमादा थी। उस नई क्रांतिकारी, परिवर्तनकामी राजनीति में इतना आकर्षण था कि व्यापक पैमाने पर प्रतिभाशाली, संवेदनशील छात्र-छात्राएं उसमें खिंचते चले गए और उसने इलाहाबाद के डिग्री कालेजों में पांव रखते, पूरे प्रदेश के विश्वविद्यालयों को अपनी गिरफ्त में ले लिया। यह गढ़ों और मठों को नेस्तनाबूद करने के विद्युतीय तरंग को साथ लेकर चल रहा था।
इसके अग्रणी शिल्पकारों में अरुण जी भी थे, जिन्होंने देखते-देखते संगठन, आंदोलन और प्रबंधन के क्षेत्र में सबसे अपना लोहा मनवा लिया। बक्सर उजियार के पास चार महीने पानी से घिरे रहने वाले इनके गांव टुटुआरी (जिला बलिया) में कम्युनिस्ट आंदोलन का प्रभाव तो पहले से मौजूद था पर इनका परिवार बहुत पारंपरिक और सम्मानित था। अध्यापकों, कर्मचारियों, शहर के नामचीन नागरिकों, अन्य धारा के वरिष्ठ छात्र नेताओं में सबसे ज्यादा पहचान जाने वाला चेहरा अरुण पांडे का ही था। यह खूबी बाद में सिर्फ पंकज श्रीवास्तव में दिखी।
अरुण कुल वक्ती थे। पूरी तरह राजनीति को समर्पित। कभी श्यामकृष्ण गुप्ता के यहां अल्लापुर, कभी अतुल सहाय के यहां जार्ज टाउन, कभी चितरंजन भाई, डॉ. राम प्रकाश के साथ हैमिल्टन रोड, लाल बहादुर भाई के कमरे में 55 एएन झा, मेरे साथ जीएन झा या फिर छठे ब्लॉक तारा चंद होस्टल में शरद के कमरे में और आखिर में संगठन के दफ्तर 171 कर्नल गंज। बहुतों को याद होगा लाल बहादुर भाई के कमरे में चावल और न्यूट्रीनगेट की तहरी को सीधे अखबार पर परोस कर खाई जाती थी।
एक टारगेट सामने रख कर हमेशा डूबे रहने वाले अरुण के पास नकारात्मक सोच के लिए न तो समय था न जगह। बस कार्याधिक्य के कारण कभी-कभी सिगरेट और अक्सर पान की तलब हो गई थी। इसीलिए जो पान के अड्डे थे, राम बहादुर, ठाकुर, सत्यनारायण या राजू, सब अपने पाण्डे जी से यूनिवर्सिटी पॉलिटिक्स पर जरूर चर्चा करते थे।
उस समय अरुण को देखकर उनकी खूबियों का अंदाजा करना बहुत मुश्किल था। ईसीसी डिग्री कॉलेज में संगठन बनाने का कठिन काम उन्हें मिला और देखते ही देखते वहां के स्टूडेंट यूनियन पर हमारा कब्जा हो गया। आंदोलन की ताकतें निकल पड़ी। जोखिम लेने और नया कुछ करने की सीख जो उन्हें इस क्रांतिकारी राजनीति से मिली थी, उसी के बदौलत वो अकेले आए लखनऊ यूनिवर्सिटी में संगठन बनाने। दीपक सिंह चौहान, मिथिलेश, इंदु, भाषा, शैलेन्द्र मल्ल जैसे तेजतर्रार लोगों को खोज कर शामिल किया। और इसी लखनऊ से चल पड़े दिल्ली की ओर पत्रकारिता करने और आखिरी समय तक इसी से जुड़े रहे।
एक बात गौर करने लायक है कि कुछ नया करने और जोखिम उठाने की फितरत वो दिल्ली लेकर आये थे। राष्ट्रीय सहारा में समाज में चल रही बेचैनियों, तनावों, उतार-चढ़ाव, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक हलचलों और घटनाक्रमों पर पैनी नज़र डालने और उसे समझने के लिए एक नया मंच सृजित किया ‘हस्तक्षेप’। यह समाचार और सम्पादकीय से अलग था और किसी विषय विशेष पर केंद्रित था। इसकी लोकप्रियता इसी से समझी जा सकती है कि शनिवार के सारे हॉस्टल के करीब आधे से ज्यादा कमरों में राष्ट्रीय सहारा खरीदा जाता था। इतिहासकारों, विचारकों, चिंतकों, विशेषज्ञों के साथ नए लेखकों की एक पीढ़ी तैयार होने लगी। इस दौर में अरुण जी चंद्रशेखर, रवि राय, प्रभाष जोशी, देवी प्रसाद त्रिपाठी, आनंद कुमार के बहुत करीब रहे। इसी समय में उन्होंने ज्योति बसु पर एक किताब लिखी और फिर सूचना के अधिकार पर बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी जो इस स्तर पर हिंदी की पहली किताब थी।
प्रभाष जोशी जी को लेकर मेरे सहयोग से उत्तर प्रदेश में कई बड़ी गोष्ठियां कीं, जिसमें वैकल्पिक समाज और वैकल्पिक राजनीति की गुंजाइश तलाशते रहे। इसी के बाद मुझे अरुण जी में एक चिंताजनक ठहराव दिखा जो नौकरी की एकरसता और गुणदोष के साथ सामज के यथास्थिति से पैदा हो रही थी।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में दो चैनेल की नौकरी के दौरान यह और पुख्ता होती गयी। वह कहने लगे कि अगर चैनेल में नौकरी करनी है तो मालिक की ही मर्जी से चलना है। थोड़ी-मोड़ी स्पेस अगर निकल जाए तो बहुत बड़ी बात। इस दौरान उनके फोन ज्यादा आने लगे। तरह-तरह का प्लान बनाते। कोई मीडिया संस्थान बने, कोई इंस्टिट्यूट बने। कुछ किया जाए। नौकरी में कुछ है नहीं।
किसान आंदोलन को वो पहले दूर से देखते रहे तो उसके नजदीक पहुंचे तो लगा कि यह तो एक बड़े उलटफेर का एपिसेंटर है। चुनाव में बंगाल पहुंचे तो बोले अगर कमल भाई, ममता जीत गयी (जिसकी संभावना पर उन्हें शक भी था) और किसान आंदोलन पुनर्गठित हो गया तो देश नए रास्ते पर चल पड़ेगा।
अरुण को यही कसक थी कि कुछ नया नहीं हो रहा है। दिल्ली से लौटे तो फोन किया। जल्द ही आता हूं, इलाहाबाद फिर चलते हैं कलकत्ता। ज्ञानवंत का जलवा है। सुंदर वन जाएंगे। वहीं बाते होंगी। तारिक नासिर से कहा, तुम भी चलना इस बार।
अभी भी यही लगता है कि अपनी पुरानी आदत के अनुसार बिना बताए उठ कर गए हैं और थोड़ी देर में आएंगे और कहेंगे, मैं तो यहीं था, मैं कहा गया था। दो प्यारे बच्चे गौरी और तन्मय, जीवनसंगिनी पुतुल, बृज, गुड्डू, हम सब के लिए यहीं कहीं हैं, कहीं गए नहीं हैं अरुण!
(लेखक केके राय इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। पीयूसीएल से जुड़ें हैं और इलाहाबाद हाईकोर्ट में अधिवक्ता हैं।)
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