कुछ सवाल आदिवासियों और उनके संगठनों से भी?

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7 सितंबर 2021 को आहूत आदिवासी संगठनों के मानव श्रृंखला का एजेंडा:

1.CNT एक्ट के तहत आने वाली थाना क्षेत्र की बाध्यता खत्म हो।

2. जाति प्रमाण पत्र के निर्गत में होने वाली विसंगतियों का सरलीकरण हो।

3. आदिवासी महिला के दिक्कू से शादी करने पर आरक्षण खत्म हो, ST का स्टेटस खारिज हो।

इन तीनों मांगों पर गौर करें। एक छोटी टिप्पणी यहां अपनी समझदारी से साझा कर रही हूं।

आदिवासी जमीन की सुरक्षा में CNT, SPT एक्ट की महती भूमिका रही है। यह थाना क्षेत्र की बाध्यता को हटाने से कितने आदिवासी जमीन खरीदने की स्थिति में हैं या कितने दिक्कू को आसानी होने वाली है यह बात गौर कर लें संगठन।

दूसरी बात जो जाति प्रमाण पत्र की विसंगति है वह पर्चे में स्पष्ट नहीं बताया गया है कि वह क्या चाहते हैं,

रघुवर सरकार की ही तरह ही क्या इस जाति प्रमाण पत्र को ईसाई आदिवासी को न दिए जाने की मंशा के साथ इसमें सरलीकरण की बात उठा रहे हैं।

और तीसरी बात..

आदिवासी महिला का गैर आदिवासी से शादी करने पर St का आरक्षण न दिया जाए यह बात की जा रही है।

7.5 % आरक्षण में कितनी vacancy है जो खाली है, गवर्मेंट को सूटेबल कैंडिडेट नहीं मिलते या जबरन वे खाली छोड़ दिए जाते हैं “नॉट फॉउंड सूटेबल” कह कर। इस पर आंदोलन नहीं करना है।

आदिवासी लड़कों को दिक्कू स्त्री लाने पर कोई आपत्ति नहीं।

वाह रे आदिवासी संगठनों की समझदारी।

यह सभी एजेंडा जो तीन पर मानव श्रृंखला बनाने की बात कर रहे

उससे आदिवासी जमीन हाथों से और निकलेगा या यह संरक्षण के उद्देश्य से किया गया है यह बताया जाए।

जाति प्रमाण पत्र में धर्म को आधार लेकर ईसाई आदिवासियों के प्रति जो घृणा और हिंसा फैलाई जा रही वह संघ के खाकी पैंट वालों का आईडिया अगर सरना समाज भी आंख मूंदकर, अपने धर्मांतरित भाइयों से लड़ने के मूड में है तो कौन जाने आप सभी भी मोब लिंचिंग की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। जैसा कि पूरे भारत भर में मुसलमानों के प्रति हिंदू वादी शक्तियां करती हैं।

यहां झारखंड में हिन्दू-मुसलमान नहीं कर पा रहे तो सरना-क्रिस्तान करके नफरत की दूरी को तो बढ़ाया जा ही सकता है।

चलिए नारंगी देश हित में संघ के इस एजेंडे पर भी आदिवासी सरना सामाजिक संगठन आगे कंधे से कंधा मिलाकर काम कर पा रहे हैं।

ग्रेट। लगे रहिये।।

और रही बात आरक्षण आदिवासी महिलाओं से छीनने की…

तो वह आप कोशिश करते रहिए, क्योंकि आदिवासी समाज बहुत समानता पर आधारित समाज है। वह अपनी महिलाओं को बहुत आज़ाद रखता है। इसका ढिंढोरा नही पीट सकेंगे आगे से।

परत दर परत हिंदूवादी संगठनों की “लव जिहाद”, “बेटी बचाओ”, “चादर फादर मुक्त भारत” जैसे एजेंडे पर ही आप सब भी काम करने में अपना मेजर कॉन्ट्रिब्यूशन दीजिये।

इस मांग को कानूनी जामा पहना दीजिये, लोग शादी किये बिना रहेंगे। “लिव इन रिलेशनशिप” को मान्यता है।

और इससे भी जरूरी बात की आदिवासी होना उसके जन्म से तय होता है, ना कि उसकी विवाह जैसी संस्था से। यह न्यायपूर्ण बात अगर संविधान के आधार पर आप सभी नहीं मानते तो उसका कुछ किया नहीं जा सकता है।

आदिवासी लड़कों का भी ST स्टेटस छीन लिजयेगा? कुछ पर्चे तो आये थे उन न्याय के पुरोधाओं की तरफ से कि आदिवासी लड़कों को भी दिक्कू लड़की लाने से आरक्षण का फायदा नहीं दिया जा सकेगा। पर ऐसा तो इस पर्चे में कहीं देखा नहीं जा सकता।

यह सिर्फ महिलाओं को केंद्र में रखकर किया जाने वाला कार्य है।

हम सभी मानते हैं कि शादियां अपनी कम्युनिटी में हो तो इससे बेहतर विकल्प कुछ और नहीं, पर अगर कुछ प्रतिशत जो नगण्य है, वह हो रही है तो उनको टारगेट कर आपको क्या मिल जाएगा?

कुर्सी ? रुपये ? आखिर क्या ?

देश तो बचा नहीं पा रहे बिकने से, न ही privitization से ।

सरकारी तंत्र बचेंगे नहीं,

आरक्षण बचेगा नहीं,

और आप बात कर रहे हैं यहां उन आदिवासी महिलाओं की नौकरियों को छीनने की जिसे आदिवासी लड़के पा नहीं सके।

कब तक अपनी स्त्रियों से ईर्ष्या स्वरूप लड़ते भिड़ते रहोगे आप सभी।

इतनी पढ़ी लिखी आदिवासी लड़कियां यूँ ही 40-50 की आयु सीमा में आ जाती हैं कि आप के समाज का वर पक्ष आकर लड़की का हाथ मांगेगा।

पर होता क्या है, ज्यादा कमाती है, डोमिनेट करेगी।

ज्यादा सुंदर नहीं है, हाइट नहीं है, काली है, मोटी है,

यह तमाम कमेंट्स के बिना कोई आदिवासी स्त्री है तो बता दें।

नौकरी, पढ़ाई जहां होगी, वहां पसंद भी होगी और शादियां भी होंगी, उस एक दो किस्सों को लेकर यह नाजायज़ मांग सरना धर्मावलंबियों की कूपमंडूकता को ही दर्शा रही है।

विचारें।

जिंदगी जीने के क्रम में स्वाभाविकता रखें।

धार्मिक कट्टरता आदिवासी समाज का गुण कभी नहीं रहा है।

मुझे बहुत खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि पर्चे में लिखे गए आयोजकों के साथ, delimitation की लड़ाई, CNT spt एक्ट बचाओ, और आदिवासी सरना धर्म कोड जैसे मामलों में मैंने इन लोगों के साथ काम किया और अपनी एक बड़ी ऊर्जा को खर्च किया।

आदिवासी राजनीति का इतिहास रहा है कि जब कभी एक नेता के पास कुछ लोग हो जायें, तो उनको अपने में मिला लो और उनके सामाजिक मुद्दों को खत्म कर, पोजीशन देकर, उनके पूरे दल बल को मिला लो।

लंबे समय से इस खेल का मूकदर्शक रहा है झारखंडी आदिवासी समाज।

कांग्रेस भी डोली उतरवा देगी आपके अंगना,

और भाजपा भी शादी का पंडाल लगा ही देगी।

हाँ बस आदिवासियत को नोंच खरोंच वह अक्सर देती रहेगी,

पर हम तो सत्ता के दामाद

और सत्ता की बहुरानियाँ बनने को तैयार बैठी हैं/ बैठे हैं, आगे और क्या कहना।

(नीतिशा खलखो दिल्ली में अध्यापक हैं।)

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