पंजाब इस समय तनाव के दौर से गुजर रहा है। सूबे में आम आदमी पार्टी की सरकार और भगवंत मान के मुख्यमंत्री बनने को अब भी वहां की सामाजिक-राजनीतिक शक्तियां स्वीकार नहीं कर पा रही हैं। कारण साफ है कि राज्य में करीब आधी सदी से कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल ही सत्ता और विपक्ष में रहते थे। आम आदमी पार्टी के उभार ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया तो अकाली दल को विपक्ष के लायक भी नहीं छोड़ा। ऐसे में नए-नवेले मुख्यमंत्री के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा हो गया है।
पंजाब में आम आदमी पार्टी की विजय के पीछे तीन कारक सक्रिय थे। एक, पंजाब के जाट सिखों के वर्चस्व को नकारते हुए कांग्रेस ने राजनीतिक परिस्थिति के दबाव में दलित मुख्यमंत्री को आगे कर दिया था। दूसरा, लंबे समय से पंजाब में अमरिंदर, बादल व मजीठिया की तिकड़ी के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए कांग्रेस ने नई राजनीतिक गोलबंदी करने का जोखिम ली थी। चूंकि कांग्रेस अब कैप्टन अमरिंदर का बोझ बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं रह गई थी। इसलिए कांग्रेस ने आंतरिक संकट का हल निकालने में जोखिम भरा रास्ता चुना।
तीसरा, बड़ा कारण था किसान आंदोलन के कारण अकाली दल की जमीन बुरी तरह से खिसक गयी थी। बादल परिवार और कैप्टन अमरिंदर की राजनीति से पंजाब पीछा छुड़ाना चाह रहा था। बादल किसान आंदोलन के दबाव में भाजपा से अलग होकर अपनी साख बचाने में लगे थे। इस स्थिति में कांग्रेस की वापसी रोकने के लिए अकाली दल, भाजपा, अमरिंदर ने अपवित्र गठबंधन कर लिया। इस गठबंधन के छिपे सहयोग से आम आदमी पार्टी को पंजाब में भारी विजय मिली। यहां तक कहा जा सकता है कि इस त्रिगुट ने आम आदमी पार्टी को जीतने में मदद की।
आप की जीत में किसान आंदोलन का भी बड़ा योगदान था। किसान संगठनों का एक धडा आम आदमी पार्टी के साथ चला गया। किसान आंदोलन ने कृषि संकट के मूल कारण के बतौर कॉर्पोरेट लूट को चिन्हित किया था और पहली बार किसान आंदोलन के निशाने पर अडानी अंबानी जैसे बड़े कॉर्पोरेट घराने आ गए थे। इसलिए कॉर्पोरेट खेमे ने भाजपा अकाली और अमरिंदर सिंह को नकार कर आम आदमी पार्टी के पीछे अपनी शक्ति झोंक दी।
चूंकि किसान आंदोलन के पूरे दौर में आम आदमी पार्टी ने कभी भी पूंजीपतियों पर कोई सवाल नहीं उठाया था। अमरिंदर तो साफ-साफ अडानी और अंबानी पर हमले का विरोध कर रहे थे। इसलिए पंजाब में जनता के लिए आम आदमी पार्टी के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। इस कारण आम आदमी पार्टी ने सारे राजनीतिक दलों को धूल जताते हुए भारी विजय हासिल की।
लेकिन अपवित्र समझौते तो कीमत वसूलते ही हैं। जो आज पंजाब से वसूलने जा रहा है। आम आदमी पार्टी और पंजाब-आम आदमी पार्टी लोकलुभावन नीतियों और प्रबंधकीय राजनीति का स्वयं को मास्टर समझती है। लेकिन पंजाब का संकट न प्रबंध का संकट है न लोकलुभावन नीतयों का।
पंजाब के आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक संकट को पंजाब की कृषि के संकट ग्रस्त होने के संदर्भ में देखना चाहिए। किसानों के आक्रोश के मूल में कॉर्पोरेट लूट, भूमि की उर्वरा शक्ति में क्षरण और जल क्षमता में लगातार गिरावट, कृषि में पूंजी निवेश के बढ़ते दबाव मुख्य आर्थिक कारण है। सीमावर्ती राज्य होने के कारण पंजाब नशे के कारोबार के लिए सुविधाजनक है।
पंजाबी समाज में सत्ता पर काबिज तिकड़ी का कृषि, उद्योग, परिवहन और नशा के कारोबार पर नियंत्रण है। नशा के कारोबार के विस्तार के कारण पंजाबी समाज में आए गंभीर सामाजिक संकट ने पंजाब के विकास को अवरुद्ध कर दिया है। आधुनिक खेती के कारण प्रदूषित हुए पर्यावरण और नशे के प्रसार ने पंजाब को कैंसरस राज्य में बदल दिया। जो पंजाबी परिवारों के लिए गंभीर चिंता का विषय है।
अवरूद्ध कृषि विकास, नौजवानों में बढ़ती बेरोजगारी, औद्योगिक पिछड़ेपन व सामाजिक बुराइयों के घालमेल ने पंजाब की जटिल सामाजिक संरचना से मिलकर परिदृश्य को बहुत ही उलझा दिया है। इसलिए आम आदमी पार्टी की हिपोक्रेटिक पॉलिटिक्स के लिए पंजाब में स्थाई जगह नहीं है।
आम आदमी पार्टी की जीत के बाद यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि कहीं पंजाब 80 के दशक में वापस तो नहीं लौट जाएगा। संघ व भाजपा की राजनीति और कार्य नीति को जो समझते हैं। उनके दिमाग में यह बात अवश्य आई होगी कि सिख धर्म की विशेषता और धार्मिक पहचान के प्रति संवेदनशील पंजाबी समाज को लक्षित कर भाजपा हर संभव कोशिश करके पंजाब में उग्रवादी राजनीति को हवा दे सकती है।
चूंकि गिरती हुई साख को बचाने के लिए संघनीति भाजपा के पास धार्मिक टकराव और दमन के अलावा कोई सकारात्मक एजेंडा नहीं है। किसान आंदोलन के दौर में पंजाब बनाम हरियाणा करने की कोशिश हुई थी। लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़े सतलुज जल विवाद को खड़ा करने का प्रयास हुआ था। लेकिन हरियाणा के किसानों ने इस षड्यंत्र को नकार दिया।
जब किसान आंदोलन जन गोलबंदी के सर्वोच्च शिखर पर था तब 26 जनवरी को भाजपा ने दीप सिंधु नामक अपने कार्यकर्ता को आगे करके लाल किले पर निशान साहिब का झंडा फहराया। इस तरह किसान आंदोलन में खालिस्तानी उग्रवाद को आगे करने की कोशिश की गई। हालांकि उस समय किसान आंदोलन के नेताओं और किसान कार्यकर्ताओं के अनुशासन व संयम ने भाजपा की चाल को फेल कर दिया था। बाद के दिनों में संदिग्ध परिस्थितियों में दीप सिंधु सड़क दुर्घटना में मारा गया।
संघ-भाजपा की ताकत- भारतीय राष्ट्र राज्य की सत्ता की संरचना में अंदर तक घुसी हुई है। भाजपा इस स्थिति में है कि वह कहीं भी किसी भी इलाके में सामाजिक शांति को भंग कर सकती है। यह निष्कर्ष निकालने के पीछे मेरी समझ 2013 में मुजफ्फर नगर की घटना और किसान आंदोलन में 26 जनवरी 2020 को लाल किले पर निशान साहिब का झंडा फहराने की घटना को देखते हुए बनी है। जिसे भाजपा ने अपने संगठन और सरकारी मशीनरी का प्रयोग कर अंजाम दिया था। उसी समय गोदी मीडिया को किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए लगा दिया गया था।
अमृतपाल सिंह के साथ भाजपा पंजाब में उग्रवाद के पुनरुत्थान की कोशिश में लगी है। लेकिन आम पंजाबी समाज अब इस तरह के तत्वों को प्रश्रय और महत्व देने की स्थिति में नहीं है। वह इन तत्वों से घृणा करता है। अमृत पाल अतीत में खालिस्तान फोर्स का उग्रवादी रहा है। जो लंबे समय तक कनाडा में रहने के बाद दुबई लौट आया था। बाद में आप सरकार की जीत के बाद इसे भारत सरकार के अदृश्य सहयोग से पंजाब ले आया गया है। वह माझा और दोआबा के इलाके में गांवों में घूम घूम कर खालिस्तान के सवाल को उठाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन आमतौर पर लोग उसकी बातों को अनसुना कर दे रहे हैं।
पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत के बाद कांग्रेस और भाजपा ने केजरीवाल पर यह आरोप लगाया था कि विजय के पीछे पंजाब के कट्टरपंथी सिख संगठनों का हाथ रहा है। कनाडा आधारित एक बड़े उग्रवादी नेता के आवास पर केजरीवाल के ठहरने की बात आई थी। जो आप के साथ उनके गहरे रिश्ते का संकेत देता है। चुनाव के बाद की घटनाओं ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि पंजाब के उग्रवादी तत्वों के साथ आम आदमी पार्टी के रिश्ते बेहतर हैं और वह उन्हें प्रोत्साहन दे रही है।
चूंकि पंजाब में वाम प्रगतिशील जनवादी ताकतों का जनता में राजनीतिक आधार है। जिन्होंने पंजाब के उग्रवाद के दौर में सबसे ज्यादा कुर्बानियां दी थी। किसान आंदोलन में भी जब-जब कट्टरपंथी ताकतों को आगे करने की कोशिश हुई तो वामपंथी किसान संगठन मजबूत दीवार की तरह इसके खिलाफ खड़े हो गए थे। तब भाजपा तथा उसके एजेंटों की चाल वामपंथी किसान संगठनों ने बेनकाब कर दिया था। यहां तक कि किसान महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रुल्दू सिंह पर हुए हमले को वाम संगठनों ने सचेतन ढंग से तूल न देने का निर्णय लिया था। क्योंकि इससे भाजपा की चाल को कामयाब होने का मौका मिलता और किसान आंदोलन में फूट पड़ जाती।
वर्तमान हालात-तरनतारन जिले के अजनाला थाने में बंद ‘तूफान’ नामक युवा को छुड़ाने के लिए गुरु ग्रंथ साहिब हाथ में लेकर अमृतपाल सिंह के गैंग द्वारा पुलिस थाने में घुसकर किए गए हमले के समय प्रशासन का रक्षात्मक स्थिति में रहना और दूसरे दिन उस उग्रवादी को छोड़ देने की घटना से ऐसा लगता है कि यहां इतिहास खुद दोहराने जा रहा है। आप को याद होगा कि निरंकारी पंथ के प्रमुख गुरबचन सिंह की हत्या के बाद जरनैल सिंह भिंडरावाले को किस तरह तत्कालीन सरकार ने हवाई जहाज में बिठाकर सरेंडर कराया था और बाद में उसे जेल से रिहा कर दिया गया। जो कांग्रेस सहित पंजाब के लिए भस्मासुर साबित हुआ।
लेकिन पूंजी के दलाल इतिहास से सबक लेने के लिए तैयार नहीं होते। वे अपने तात्कालिक लक्ष्य और मालिकों की सेवा के लिए राष्ट्र और समाज के साथ षड्यंत्र रचने में लगे रहते हैं। उस समय आनंदपुर साहिब प्रस्ताव मूलतः कृषि संकट को संबोधित करने के लिए तैयार किया गया था। जो अपने में पंजाबियत को समेटे हुए आर्थिक धार्मिक व भौगोलिक पहचान को संबोधित कर रहा था। जो दोबारा इंदिरा गांधी के सत्ता में वापसी के बाद कांग्रेस के हिंदू वाद की तरफ लौटने के कारण एक गंभीर संकट में बदल गया।
हिंदुत्व के उभार के दो कारण- पंजाब में खालिस्तान समर्थक आंदोलन निरंकारी पंथ के साथ आर्य समाज और वामपंथियों के खिलाफ केंद्रित होता गया। उसी समय असम में भी असमी संस्कृति को बचाने के नाम पर घुसपैठियों की पहचान को लेकर असम में असम छात्र संगठन द्वारा आंदोलन चल रहा था। जो धीरे-धीरे मुस्लिम विरोधी दिशा लेता गया।
इंदिरा गांधी ने भारत के दो विपरीत छोरों पर हुए इन दोनों आंदोलनों को संघ भाजपा के संयुक्त सहयोग से हिंदुत्व के उभार के अवसर में तब्दील कर दिया। इसलिए असम में जहां मुसलमान विरोधी नरसंहार हुए।(नेल्ली जन संहार जिसमें एक अनुमान के अनुसार 2हजार मुसलमान बच्चे स्त्रियां और पुरुष मारे गए थे।) वहीं उत्तर भारत में सिखों को केंद्रित कर सिख विरोधी भावनाओं को भड़काया गया।
इस प्रकार कृषि संकट और पहचान के लिए खड़ा हुआ आंदोलन अंततोगत्वा खालिस्तानी उग्रवाद में बदल गया। जिसे उत्तर भारत में हिंदू विरोधी शक्ल देने की कोशिश हुई। जो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख नरसंहार के रूप में अपने चरम पर पहुंचा। यह आज भी भारत के लोकतंत्र पर गहरे जख्म के बतौर मौजूद है।
इस समय पंजाब दोराहे पर खड़ा है। आज आम आदमी पार्टी भाजपा से लड़ते हुए उदार हिंदुत्व का चोला धारण करने के क्रम में इस हद तक गिर गई कि पंजाब विजय के बाद भी उन्हें भारतीय करेंसी पर गांधी जी के साथ ‘लक्ष्मीजी गणेशजी’ की तस्वीर लगाने की मांग करने लगी।
केजरीवाल जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं उसका अंत त्रासद ही होना है। उन्हें यह नहीं पता की भाजपा और कॉर्पोरेट गठजोड़ की राजनीतिक पकड़ कितनी गहराई तक भारतीय समाज में पहुंच चुकी है। उसने सामाजिक भिन्नता के बारीक से बारीक रेखा को चौड़ा कर दिया है।
(जयप्रकाश नारायण किसान सभा से जुड़े हैं।)