बीजेपी के लिए खतरनाक हो सकती है दो नावों की सवारी

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महाराष्ट्र में मराठा आन्दोलन

अगस्त 2016 की वृहद मराठा रैली की पहली बरसी 9 अगस्त 2017 को थी-जो बलात्कार सहित कुछ दलित युवाओं द्वारा एक मराठा लड़की की नृशंस हत्या को लेकर आयोजित की गई थी। इस दिन लाखों मराठा सड़कों पर उतरे और मुम्बई के आज़ाद मैदान में एकत्र हुए। इस बार यह अच्छी बात रही कि 2016 रैली का दलित-विरोधी तेवर दिखाई नहीं पड़ा। बल्कि इस रैली की मुख्य मांग थी कि उन्हें ओबीसी श्रेणी में 16 प्रतिशत आरक्षण के साथ शामिल किया जाए और कृषि संकट का समाधान करने के लिए किसानों की आय बढ़ाई जाए, ताकि किसान-आत्महत्या का सिलसिला रुके। कई किसान संगठनों ने इस बार के मराठा मार्च को समर्थन भी दिया।  

मराठा समुदाय महाराष्ट्र की जनसंख्या का 32 प्रतिशत हिस्सा है। कांग्रेस सरकार ने ओबीसी श्रेणी में मराठाओं के लिए 16 प्रतिशत सब-कोटा का प्रावधान रखा था और बाद में भाजपा सरकार ने भी इसे समर्थन दिया, परन्तु महाराष्ट्र पिछड़ी जाति आयोग ने इसे खारिज कर दिया। मार्च 2015 में भाजपा ने मराठाओं के लिए 16 प्रतिशत आरक्षण के पक्ष में कानून बनाया, पर मुम्बई उच्च न्यायालय ने एक अन्तरिम स्टे के जरिये इसे रोक दिया।

राज्य में 50 लाख शिक्षित युवाओं का नाम एम्पलायमेंट एक्सचेंज में दर्ज हैं और इनमें से बहुसंख्यक लोग मराठा पृष्ठभूमि से हैं। 42 प्रतिशत मराठाओं के लिये खेती ही आय का प्रमुख माध्यम है और क्योंकि यह समुदाय मुख्यतः एक कृषक समुदाय है, उन्हें कई बार सूखाड़ का दंश झेलना पड़ा है और उनके बीच से ही कर्ज में डूबे कृषक आत्महत्या के शिकार होते हैं। काफी लम्बे संघर्ष और मुम्बई बॉयकाट के बाद ही भाजपा सशर्त और सीमित कर्ज़ माफी के लिए राजी हुई। पर इसमें व्यापक किसानों को छोड़ दिया गया। भाजपा ने मराठा मृख्यमंत्री की मांग को भी ठुकरा दिया। इसलिए मराठे भाजपा से नाराज़ हैं। पिछले एक वर्ष में उन्होंने 31 रैलियां आयोजित की हैं, जिनमें लाखों की भागीदारी रही। उन्होंने 9 अगस्त 2017 को यह घोषणा भी की कि वे भाजपा सरकार के विरुद्ध संघर्ष तेज करेंगे।

गुजरात में पाटीदारों का संघर्ष

28 अगस्त 2017 को जब एक बहुप्रचारित साक्षात्कार में पाटीदार  आन्दोलन नेता, हार्दिक पटेल ने कहा कि वह चुनाव नहीं लड़ेंगे और परोक्ष संकेत दिये कि उन्हें कांग्रेस को लाभ देने से कोई परहेज़ नहीं है, क्योंकि उनका मुख्य मकसद किसी भी कीमत पर भाजपा को हराना है, तो भाजपा खेमे की कंपकपी बढ़ी। जब कुछ दिनों बाद अमित शाह अहमदाबाद भागे गए और मिशन 150 की घोषणा किये, हार्दिक पटेल ने यह कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई कि स्वप्नलोक में जीने वाले व्यक्ति की कपोल-कल्पना का क्या किया जाए?

गुजराज के विधानसभा चुनाव को मात्र 4 महीने बाकी हैं। विभिन्न किस्म के आंकलन बताते हैं कि पाटीदार या पटेल जनसंख्या 15 से 20 प्रतिशत के बीच है। इन्होंने पिछले एक वर्ष में आरक्षण और पाटीदारों को पिछड़ों की सूची में शामिल करने के मुद्दे पर बड़ी-बड़ी रैलियां की हैं, जिनका नेतृत्व 24-वर्षीय हार्दिक पटेल ने किया। भाजपा सरकार ने एक अध्यादेश के माध्यम से उच्च जाति के आर्थिक रूप से कमज़ोर हिस्सों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया, पर इससे पटेलों को संतुष्ट न किया जा सका। खैर, उस पर भी उच्च न्यायालय ने स्टे लगा दिया।

हार्दिक पटेल और एक नौजवान, जिगनेश मेवानी, जो नई पीढ़ी के दलित नेता हैं, साथ मिल गये हैं और गुजरात में भाजपा की वाट लगा रहे हैं। पाटीदार नेता कह रहे हैं कि अब चुनाव सिर पर है, तो बड़ी रैलियों का समय नहीं है, बल्कि अब केंद्रीकरण होगा भाजपा से बदला लेने के लिए उसे उसी के गढ़, गुजरात में शिकस्त देना। यह अभी देखना बाकी है कि वे अपने उद्देश्य में सफल होते हैं या नहीं, पर एक बात तो तय है कि भाजपा को पटेलों का अविभाजित समर्थन शायद ही मिल सके।

उच्च जातियां ओबीसी सूची में आने के लिए क्यों आतुर?

ओबीसी आरक्षण की मांग को लेकर उच्च जातियों में हलचल है पर इसको लेकर अध्येताओं और ओबीसी कार्यकर्ताओं में मिली-जुली प्रतिक्रिया है। इनमें से कुछ का कहना है कि उच्च जातियां उनके हिस्से का कोटा हथियाना चाहती हैं। कुछ का तो यहां तक मानना है कि पुराने दौर का आरक्षण-विरोध अब रंग बदलकर आ रहा है-यानि अब आरक्षण का भीतर से ही निषेध कर दिया जाएगा। जो भी हो, अभी माहौल उस तरह ध्रुवीकृत नहीं है जैसे मंडल के बाद आरक्षण-विरोध के दौर में था।

कई शोधकर्ताओं को लगता है कि यह मांग मुख्य रूप से बेरोजगारी की समस्या के फलस्वरूप उभरी है। मध्यम वर्ग का विस्तार तो हो रहा है पर संगठित क्षेत्र और सफेदपोश नौकरियां संकुचित होती जा रही हैं। उभरते हुए मध्यम व नव-मध्यम वर्ग के लोगों को बेहतर वेतन वाली सफेदपोश नौकरियों में अपनी संख्या के अनुपात में जगह नहीं मिल पा रही है। औरों का कहना है कि पहचान ही शक्ति है और कम-से-कम मराठाओं और जाटों के मामले में कहा जा सकता है कि राज्य में अपनी सत्ता कायम करने के लिए उनका सारा संघर्ष है।

जहां एक ओर बहस जारी है, एक बात स्पष्ट है कि नौजवानों के लिए नौकरियां तैयार करने के अपने वायदे में पूरी तरह विफल मोदी सरकार के अपने परंपरागत समर्थकों में भारी बेचैनी है और उनका कम-से-कम एक हिस्सा तो पार्टी के विरुद्ध जाएगा।

ओबीसी मुद्दे पर भाजपा की पहली चाल 

23 अगस्त 2017 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फैसला किया कि ओबीसी जातियों की सूची की समीक्षा की जाएगी और ओबीसी आरक्षण में उप-श्रेणियां बनाने पर विचार होगा। मंत्रिमंडल ने यह भी तय किया कि  मलाईदार हिस्से की आय-सीमा को 6 लाख से बढ़ाकर 8 लाख कर दिया जाएगा। अब इस पर मतविभाजन है कि यह सचमुच ओबीसी के पक्ष में कदम है या कि उच्च जातियों के इशारे पर पिछड़ों को बांटने की साजिश।  आन्ध्र प्रदेश के स्थानीय भाजपा नेता इस कदम को ओबीसी सब-कोटा में कापू जाति को जगह देने का एक उपाय मान रहे हैं।

इससे पहले, 1 अगस्त 2017 को भाजपा सरकार को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी, जब वह राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का पुनर्संयोजन कर उसे सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों का राष्ट्रीय आयोग घोषित करने के बाद भी संवैधानिक मान्यता नहीं दिला पाए। कारण था कि राज्य सभा में भाजपा के पास इस बाबत संविधान संशोधन विधेयक पारित करने लायक बहुमत ही न था। कांग्रेस ने विधेयक में कुछ संशोधन की मांग कर उसे संसदीय समिति को सुपुर्द कर दिया है, इसलिए विधेयक पुनः लोक सभा में जाएगा।

एक तरफ जहां पिछड़ों में मोदी सरकार की असली मंशा को लेकर शंका बनी हुई है, यह देखना बाकी है कि क्रीमी लेयर की आय सीमा को बढ़ाने से उनकी भावनाओं पर क्या नकारात्मक असर होता है। ओबीसी सूची में उच्च जातियों के हिस्सों को शामिल करना भी मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ने जैसा ही होगा, क्योंकि राजपूत, लिंगायत, वोक्कालिगा समुदायों ने कुछ राज्यों में इसी किस्म की मांगें उठाई हैं। कई परिवेक्षक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि भाजपा अपनी सामाजिक नीति के बारे में अस्पष्ट है, और सबसे बुरी स्थिति में, भाजपा दो नावों में पैर रखकर डूब जाएगी, यदि इन कदमों से उच्च जातियां और पिछड़े दोनों ही मोहभंग के शिकार हुए। 

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